संदीप देव। पहले मुझे वेद समझ में नहीं आते थे। वेदों पर मेरे पास कई टीका है पहले से। काफी बार पढ़ने का प्रयास किया, परंतु असफल रहता था। उधर मैंने पुराणों का अध्ययन किया, जैसा कि आप सभी को पता है कि मैं पुराणों पर लिखता-बोलता भी रहा हूं। पुराणों के अध्ययन के बाद जब मैंने वेद पढ़े तो अर्थ एकाएक खुलते चले गये। और एक रात तो ऐसा हुआ कि मैं रात 11 बजे से सुबह के 7 बजे तक ऋग्वेद पढ़ता रहा। वह जो पढ़ने में रस आया, उसकी व्याख्या मुश्किल है!
फिर समझ में आया कि पुराणों को वेद की व्याख्या क्यों कहा गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् पुराणों के उदय को वेद के उदय के समान बताते हैं। अथर्ववेद का एक मंत्र है:-
ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह।
उच्छिष्टाज्जिज्ञरे सर्वे दिवि दिविश्रिता:।। अथर्व ११|७|४
अर्थात्:- उच्छिष्ट से ऋचाएं, साम, छंद (अथर्ववेद) तथा पुराण यजुष् के साथ उत्पन्न हुए।
माता सरस्वती की कृपा रही कि पुराणों के अध्ययन के बाद पुनः मैंने वेद खोले और मां ने सारे अर्थ स्पष्ट करने आरंभ कर दिए!
मुझे वेदों के भाष्य में सबसे संतुलित दृष्टिकोण विजय नगर साम्राज्य के संस्थापक राजगुरु सायणाचार्य का लगा। हालांकि वह बहुत विस्तृत है और अब वह मूल स्वरूप में शायद ही मिलता है। आधुनिक समय में सातवेलकर जी का वेद भाष्य भी अप्रतिम है। और स्वामी दयानंद सरस्वती जी का तो क्या कहना। साथ ही मधुसूदन ओझा जी का जो मंथन है, वह भी हमें एक अलग धरातल पर खड़ा कर देता है।
मैंने अभी सायणाचार्य जी की ऋग्वेद भाष्य का डॉ गंगा सहाय शर्मा द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद ही पूरा पढ़ा है। इसके अलावा मधुसूदन ओझा जी को पढ़ा है। अन्य टीका के कुछ-कुछ अध्याय पढ़े हैं।
परंतु एक बात अपने अनुभव से कह सकता हूं कि सीधे वेद पढ़ने की जगह यदि एक पुराण भी आपने पूरा पढ़ लिया और फिर वेद पढ़ने गये तो आपको अर्थ स्पष्ट होने लगेंगे। मॉं शारदा को नमन के साथ कोटि-कोटि धन्यवाद