विपुल रेगे। संदीप रेड्डी वांगा की ‘एनिमल’ रिलीज होने के ग्यारह दिन बाद भारतीय समाज में इसका इन्फ़्लुएंस साफ़-साफ़ नज़र आने लगा है। ‘एनिमल’ का वहशीपन थियेटर के दरवाज़े पार कर गया है और खुले में दिखने भी लगा है। इस चितकबरी फिल्म के त्वरित प्रभाव का समाज शास्त्रियों को अध्ययन करना चाहिए। तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्रालय के इतिहास में ‘एनिमल’ रिलीज हो पाना एक अनोखी घटना है। समाज में हलचल पैदा करने वाले इन्फ्लुएंसर्स का इस जानवर से मुंह मोड़कर बैठ जाना भी देश की जनता को याद रहने वाला है। देश के चौराहे पर खून से सना खंजर लेकर खड़ा बीस्ट समाज की गहन चुप्पी देख मुस्करा रहा है।
रणबीर कपूर की ‘एनिमल’ 700 करोड़ से अधिक कलेक्शन कर चुकी है और अब भी इसे भर कर दर्शक मिल रहे हैं। ये सोच भी कितनी खौफनाक है कि ऐसी फिल्म देश के लिए ‘यूनिवर्सल चॉइस’ बन गई है। कुछ बारह घंटे पहले उत्तरप्रदेश में तीन युवाओं ने मिलकर एक अन्य युवा की नृशंस हत्या कर डाली है। इन तीन युवाओं ने शराब पी, एनिमल देखी और एक ऐसे आदमी का गला रेत डाला, जो उनके दुश्मन का दोस्त था। राजस्थान में श्री राजपूत करणी सेना के प्रमुख सुखदेव सिंह गोगामेड़ी को मारने वाले नितिन फौजी और रामवीर ने हत्या को अंजाम देने से एक दिन पहले यही फिल्म देखी थी। क्या ये फिल्म किसी भी आदमी का गला रेतने के लिए अतिरिक्त उत्साह प्रदान करती है ?
सूचना व प्रसारण मंत्रालय के बहरे कान ये सुनें कि ‘एनिमल’ से उपजा शोर राज्यसभा तक जा पहुंचा है। एक सांसद सदन के पटल पर इस फिल्म की चर्चा कर रही हैं। छत्तीसगढ़ से कांग्रेस सांसद रंजीत रंजन ने ‘एनिमल’ में दिखाई गई हिंसा का विरोध किया है। शोभा डे के इकलौते नारी स्वर में उनका कातर स्वर भी मिल गया है। सांसद ने बताया कि ‘एनिमल’ में इतनी हिंसा और महिलाओं का अपमान दिखाया गया है कि मेरी बेटी और उसकी दोस्त रोत-रोते इस फिल्म को बीच में ही छोड़कर थिएटर से बाहर निकल गई। दर्शक एक्शन फ़िल्में देखना पसंद करते हैं लेकिन रक्तपात उन्हें विचलित करता है। विशेष रुप से महिला दर्शकों को इस फिल्म ने बहुत विचलित किया है। एक्शन फ़िल्में तो बहुत से निर्देशक बनाते हैं और उन्हें पसंद भी किया जाता है लेकिन वहशीपन परोसना हद को पार करने जैसा काम है।
सूचना व प्रसारण मंत्रालय एक कांग्रेस सांसद की बात क्यों सुनेगा भला ? ये भी गौर करने वाली बात है कि उन सांसद महोदया को ‘एनिमल’ के विरोध से कोई राजनीतिक लाभ नहीं होने वाला था। सदन के पटल पर ये मांग अत्यंत ही स्वाभाविक थी। संदीप रेड्डी वांगा अपनी फिल्म की सफलता से उत्साहित होकर इसका अगला भाग भी बनाने जा रहे हैं। हाँ वे इसका दूसरा, तीसरा और कई भाग बना सकते हैं। उन्हें देखकर युवा उस वहशीपन से हत्या करना सीख सकते हैं। वे किसी भी महिला को अपना जूता चाटने के लिए कह सकते हैं।
भारतीय समाज कभी मध्य में नहीं बना रहता। वह एक अति से दूसरी अति की ओर जाता है। क्या संदीप रेड्डी वांगा नारी आंदोलन से घृणा करते-करते नारी से ही घृणा करने लगे हैं? ऐसा लगता है कि वांगा की फ़िल्में दूसरी ओर से अति नारीवाद दिखाने वाली फिल्मों का जवाब है। हां भारतीय समाज में अति नारीवाद एक घृणित मानसिकता के रुप में सामने आ रहा है। क्या अब वैसे ही अति पुरुषवाद या अल्फा मेल इस समाज के लिए एक और मुश्किल बनेगा। पुरुष-स्त्री संबंधों को सामान्य क्यों नहीं दिखाया जा सकता ? हालाँकि समाज ने एक बदबूदार कचरे के ढेर को ठोकर मारने के बजाय उसे अपना लिया है। अब ऐसी ही बहुत सी फिल्मों के लिए तैयार रहिये।