विपुल रेगे। (पॉलिटिकल डेस्क ) विगत फरवरी से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में बार-बार ‘370’ का उल्लेख कर रहे हैं। अपनी सभाओं में वे हाथ उठाकर 370 सीट हासिल करने की बात बड़े ही आत्मविश्वास से करते हैं। 370 और 400 पार का ये नारा नरेंद्र मोदी के भाषणों से होता हुआ न्यूज़ चैनलों और अब फिल्मों तक जा पहुंचा है। जब वे 370 की बात करते हैं तो ये बताना नहीं भूलते कि इस नाम से एक फिल्म भी आ रही है। इसे संयोग माना जाए कि उनके बोले गए शब्द किसी फिल्म का टाइटल बन जाते हैं। क्या इसे भी संयोग माना जाए कि विगत दस वर्षों में बॉलीवुड में राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाली फ़िल्में खूब बनाई गई। एक अंग्रेज़ी पोर्टल ने इस विषय पर एक लेख लिखा है, जिसका शीर्षक है ‘370 सीटों के लिए मोदी के आह्वान की गूंज बॉलीवुड में भी है।’
फिल्म को प्रचार के लिए इस्तेमाल करना एक अवांछित तरीका है। नाज़ियों ने बहुत पहले ही फिल्म के प्रचार से होने वाले लाभ को जान लिया था। हिटलर के समय में ठसक के साथ फिल्मों का भरपूर राजनीतिक लाभ लिया गया। भारत में भी इसे लागू किया गया किन्तु उस समय फिल्मों को सीधे अपने प्रचार के लिए इस्तेमाल करने की परंपरा नहीं थी। कांग्रेस की सरकारों के समय आम आदमी फिल्म देखने सिनेमाघर जाता तो उसे फिल्म शुरु होने से पूर्व ‘न्यूज़ रील’ देखनी पड़ती थी। ये देखना अनिवार्य था।
कोई सिनेमाघर रील चलाने से इंकार नहीं कर सकता था। भारत की सरकारों द्वारा उठाया गया ये पहला अवांछित कदम था, जो कहीं न कहीं व्यक्ति और सिनेमाघर मालिक की मौलिक स्वतंत्रता में विघ्न डालता था। हालांकि न्यूज़ रील बहुत वर्षों तक दिखाई जाती रही। अब हम नरेंद्र मोदी काल में जी रहे हैं। अब तो राजनेता सीधे फिल्मों में प्रवेश कर रहे हैं। वे फिल्मों में कैरेक्टर बन जा रहे हैं। पिछले दस साल से सिनेमाघरों में फ़िल्में देखते हुए हमने इस प्रचार युद्ध को तीव्रता से महसूस किया है। चाहे वह ‘उरी’ हो, ‘द कश्मीर फाइल्स’ हो या अभी-अभी रिलीज हुई ‘आर्टिकल 370’ हो। इस फिल्म में तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के किरदार लाए गए।
नरेंद्र मोदी का किरदार अरुण गोविल ने अदा किया। एक मिश्रित कॉम्बिनेशन बनाया गया। अरुण गोविल आपको राम मंदिर की याद दिलाए और इसी में नरेंद्र मोदी का मिश्रण कर उन्हें एक नायक की भांति पेश किया जाए, जिन्होंने हमारे सैनिकों के बलिदान का प्रतिशोध सीमा पार जाकर लिया। भाजपा फिल्मों और न्यूज़ चैनलों के ज़रिये प्रचार विधा में माहिर खिलाड़ी है। जब न्यूज़ चैनल आपके हो और राष्ट्रवादी फिल्मों में अचानक प्रचुर पैसा लगाया जाने लगे, तो प्रचार करना कुछ आसान भी हो जाता है। भाजपा फिल्मों और ख़बरों का इस्तेमाल कर अपने एजेंडे और उपलब्धियों को लोगों को याद कराती रहती है।
भाजपा की एक अघोषित टीम है, जिसमे ऐसे फिल्म निर्माता-निर्देशक शामिल हैं, जो उसके मिज़ाज की फिल्म बना सके। ऐसी फिल्म बना सके, जिससे भाजपा का वोट बैंक और मजबूत हो जाए। अभी एक फिल्म ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ जल्द ही रिलीज होने जा रही है। फिल्म के निर्माता विपुल अमृतलाल शाह हैं। विपुल शाह ने ही ‘द केरल स्टोरी’ बनाई थी। जैसे ही इस फिल्म का प्रचार शुरु किया गया, भाजपा के आईटी सेल के प्रमुख ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ को लेकर अपने एक्स अकाउंट पर ट्वीट करते हैं। फिल्म में सत्य दिखाया जाएगा कि हमारे कितने सैनिक नक्सलवादियों से लड़ते हुए बलिदान हुए लेकिन इसका भी पॉलिटिकल माइलेज लिया जाएगा। भाजपा वाले यदि इस फिल्म को प्रमोट कर रहे हैं तो जान लीजिये कि इसमें भी उनका कोई न कोई राजनीतिक लाभ निहित है।
हमारे सैनिकों की हत्या पर जेएनयू में जश्न मनाया गया था, जो कि किसी देशद्रोह से कम नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के लिए यही ‘विषयवस्तु’ उनके प्रचार की यूएसपी है। वे हमारे सैनिकों के बलिदान से अधिक जेएनयू वाले मसले को भुनाएंगे। फिल्म रिलीज होने के बाद छोटे-छोटे शॉट्स काटकर रील्स बनाई जाएगी। फिर ये रील्स चुनाव प्रचार में भी बड़ी काम आने वाली है। भाजपा को फिल्म में क्या अच्छा लगा है, ये उनके आईटी सेल प्रमुख के लेखनुमा ट्वीट से साफ झलक रहा है।
देश की वास्तविक दशा पर ध्यान न जाए, इसके लिए न्यूज़ चैनलों और अखबारों को सेट कर लिया गया है। इस शिकंजे से बस फ़िल्में ही बची थी, उनको भी ‘छवि निर्माण’ और प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इस समय न्यूज़ चैनलों और अखबारों में नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की स्तुति चल रही है। आज वे क्रिएटर्स अवार्ड समारोह में पुरस्कार पाने वाले रचनाधर्मियों से मिल रहे हैं, इन ख़बरों से मीडिया ओवरलोडेड है लेकिन इक्का-दुक्का चैनल को छोड़ किसी पर भी ये खबर नहीं है कि मोदी सरकार इलेक्टोरल बांड के मामले में सुप्रीम कोर्ट के शिकंजे में बुरी तरह फंस चुकी है।
भारत के विशाल पटल पर आप स्तुति के सिवा और कुछ नहीं देखेंगे। क्या ये चिंता का विषय नहीं है कि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया जैसा सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक सरकार की बोली बोलने लगे। आजकल विपक्ष कह रहा है कि मोदी जी के परिवार में नई एंट्री हुई है। पहले सीबीआई, ईडी थे और अब स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया भी उनके परिवार का सदस्य बन गया है। मुझे चिंता इस बात की है कि ये परिवार और बड़ा न हो जाए और कहीं बॉलीवुड भी परिवार का सदस्य न बन जाए।