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India Speaks Daily > Blog > इतिहास > विश्व इतिहास > ब्रिटेन का धोखा, यहूदियों का संघर्ष और इज़राइल का निर्माण! (भाग 1)
विश्व इतिहास

ब्रिटेन का धोखा, यहूदियों का संघर्ष और इज़राइल का निर्माण! (भाग 1)

ISD News Network
Last updated: 2021/11/26 at 12:42 PM
By ISD News Network 251 Views 7 Min Read
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सुमंत विद्वांस। इज़राइल की भूमि पर आधिपत्य के सांप्रदायिक संघर्ष का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना है। लेकिन इन दिनों जो राजनैतिक संघर्ष चल रहा है, वह लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था। यहूदियों की प्राचीन भूमि उन्हें वापस लौटाने और उनका अलग देश बनाने की मांग को लेकर सन 1897 में यूरोप में यहूदियों के ज़ायोनी आंदोलन की शुरुआत हुई।

जब जुलाई 1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया, तो अपनी सेना में भर्ती होने के लिए यहूदियों को आकर्षित करने की नीयत से ब्रिटेन ने उन्हें प्रस्ताव दिया कि यदि वे युद्ध में ब्रिटेन की मदद करें, तो युद्ध के बाद ब्रिटेन भी फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए अलग देश की स्थापना में सहयोग देगा। लेकिन अपनी युद्ध के बाद ब्रिटेन अपने वादे से पलट गया और उसने एक समझौते के अंतर्गत ट्रांसजॉर्डन का पूरा इलाका अरब के हाशिमी राजवंश को सौंप दिया।

इसी के वंशज आज जॉर्डन के शासक हैं। ट्रांसजॉर्डन में आज के इज़राइल, जॉर्डन, वेस्ट बैंक और गाज़ा पट्टी का पूरा इलाका शामिल था। 1946 में वह समझौता समाप्त हो गया और जॉर्डन एक स्वतंत्र देश बना। विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अपना नया देश पाने की आशा में पूरे यूरोप से यहूदियों ने धीरे-धीरे फ़िलीस्तीन में वापस जाकर बसना शुरू कर दिया था। पूरे यूरोप में उनके विरुद्ध जारी अत्याचारों और हत्याओं का सिलसिला भी चल रहा था, इस कारण भी उन्हें मजबूरी में वहां से पलायन करना पड़ रहा था।

इन कारण अगले कुछ वर्षों के दौरान फ़िलीस्तीन मे यहूदियों की संख्या लगातार बढ़ने लगी और उसके साथ-साथ ही वहाँ सांप्रदायिक संघर्ष भी बढ़ता गया। इसी समय वहां फिलिस्तीनी अरब आंदोलन की भी शुरुआत हुई। इन दोनों समुदायों के बीच पहला बड़ा दंगा 1921 में जाफ़ा में हुआ था और उसके बाद अगले कई वर्षों तक यह खूनी संघर्ष रुक-रुक कर चलता रहा।

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इन दंगों की जांच के लिए ब्रिटेन ने 1921 से 1938 तक कई जाँच आयोग बनाए। इन्हीं में से एक पील आयोग ने 1936 में यह प्रस्ताव दिया कि फ़िलिस्तीन को अरबों और यहूदियों के लिए दो अलग-अलग हिस्सों में बाँट दिया जाए। यहूदी नेताओं ने इसे मान लिया, लेकिन अरब नेतृत्व ने इससे इनकार कर दिया। इसके बाद एक वुडहेड कमीशन बना, जिसने पील आयोग का प्रस्ताव ख़ारिज कर दिया।

फिर 1939 में ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन में दो अलग देश बनाने की बजाय एक ही देश में अरबों और यहूदियों एक समान अधिकार देने की बात कही। लेकिन साथ ही फ़िलिस्तीन आने वाले यहूदी शरणार्थियों की संख्या भारी कटौती तय कर दी और अरबों से जमीन खरीदने के उनके अधिकारों को भी सीमित कर दिया।

उसी बीच 1939 में द्वितीय विश्व-युद्ध छिड़ गया और उधर जर्मनी में यहूदियों के विरुद्ध हिटलर का नरसंहार अभियान भी शुरू हो गया। इन संकटों से बचने के लिए यहूदियों के पास केवल अपनी प्राचीन भूमि इज़राइल लौटने का ही विकल्प बचा था। ब्रिटेन के लगाए प्रतिबंधों के कारण यूरोप के यहूदियों को चोरी-छिपे इज़राइल तक लाने के लिए यहूदी संगठन यिशुव ने ‘आलिया बेत’ नाम से एक गुप्त अभियान चलाया और 1939 से 1948 तक हज़ारों यहूदी अपनी जान बचाकर फ़िलिस्तीन पहुँचे।

सन 1945 में द्वितीय विश्व-युद्ध समाप्त हो गया। इसके बाद बने संयुक्त राष्ट्र संघ ने मई 1947 में फ़िलिस्तीन के विषय में निर्णय करने के लिए एक विशेष समिति का गठन किया जिसने सितंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र महासभा को प्रस्ताव भेजा कि तत्कालीन फ़िलिस्तीन राज्य को अगले दो वर्षों में धीरे-धीरे दो अलग हिस्सों में बाँट दिया जाए, जिनमें से एक स्वतंत्र अरब राष्ट्र होगा और दूसरा एक स्वतंत्र यहूदी राष्ट्र बनेगा।

येरुशलम शहर को इन दोनों से अलग करके सीधे संयुक्त राष्ट्र के नियंत्रण में रखा जाए। दोनों ही पक्ष इस प्रस्ताव से असंतुष्ट थे, लेकिन फिर भी अधिकांश यहूदियों ने इसे स्वीकार कर लिया। लेकिन लगभग सभी अरब नेताओं ने इसका विरोध किया। उन्हें फ़िलिस्तीन की भूमि पर यहूदियों के अधिकार का सिद्धांत मंज़ूर नहीं था।

अब सितंबर वाले इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की एक और अस्थायी समिति बनाई गई व अक्टूबर में दूसरी एक समिति और बनी। अंततः थोड़े संशोधनों के बाद नवंबर में इस प्रस्ताव पर मतदान हुआ और उसमें फैसला हो गया कि अक्टूबर 1948 से पहले एक नए इज़राइल देश की स्थापना कर दी जाए। उन दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ में कुल 56 सदस्य देश थे। इनमें से 33 देशों ने प्रस्ताव के समर्थन में और 13 ने विरोध में मतदान किया। 10 देश इसमें अनुपस्थित रहे।

इज़राइल के निर्माण का विरोध करने वालों 13 देशों में से भारत भी एक था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषण में यहूदियों की अलग देश की मांग को नाजायज बताकर उसका कड़ा विरोध किया।

भारत और पाकिस्तान दोनों ही देश इस मुद्दे पर एकजुट थे। लेकिन संयुक्त राष्ट्र में इज़राइल के गठन का प्रस्ताव पारित होते ही इधर फिलिस्तीन में यहूदी और अरब संगठनों के बीच युद्ध छिड़ गया, जो 1948 तक जारी रहा। उसी बीच 14 मई 1948 को यहूदियों के नेता डेविड बेन-गुरियन ने यहूदियों की प्राचीन भूमि पर एक यहूदी राज्य की पुनर्स्थापना की घोषणा की, जिसका आधिकारिक नाम “मदीनात इज़राइल” (इज़राइल राज्य) घोषित किया गया।

(अगले भाग में 1948 से 2021 तक की बात होगी।)

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ISD News Network May 21, 2021
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