श्रीमती मंजू मिश्रा । ओह! आज सुबह कब आ गया ? रविवार की सुबह दरवाजे की लगातार बहती घंटी ने आखिर मजबूर कर दिया की मैं उठूँ और देखूं की कौन आया है ? मन में झुंझलाहट थी इसलिए भिनभिनाते हुए उठी. आज संडे है और आप लोग तो संडे को ही मिलते हैं’ दरवाजे पर अखबार वाले रामशंकर भैया मुस्कुराते हुए खड़े थे. अपनी बात करने के साथ ही उन्होंने २५० रूपये का बिल हमारे हाथ में थम दिया. आज तीन जुलाई थी और परसों ही तो मुझे तनख्वाह मिली थी. मैंने अंदर जाकर बेग में से पैसे निकाले खुल्ले थे नहीं. अतः मैंने भैय्या से कहा मेरे बचे रूपए अगले महीने जोड़ लेना. इसके पहले न मैंने कभी पैसे गिने,न इसकी जरूरत पड़ी. इसका कारण यह था कि परिवार में कुल चार सदस्य ही थे और सबको सबपर विश्वास था. आज अनायास ही मैंने सोचा कि अभी तो सबका हिसाब करना करना है, क्यों न एक बार पैसे गिन लिए जायें.
ओह! यह क्या नोटों में दो हजार रुपये कम थे. पहले तो लगा कि गिनने में ही गलती हो रही है परंतु बार-बार गलती नहीं ही सकती!
मेरे पति संभव सरकारी नौकरी में कार्यरत हैं. उन्हें पैसों के हिसाब-किताब,जमा खर्च में अधिक दिलचस्पी नहीं है. जितनी आवश्यकता उन्हें पड़ती है रखकर शेष मेरे सुपुर्द कर देते है. अतः उनसे इस बात की चर्चा कर उनकी सुबह ख़राब नहीं करना चाहती थी. पर अब मैं करूँ तो क्या करूँ ? इसी उधेड़बुन मैं मेरा शरीर ठंडा पड़ता जा रहा था.
तो क्या!मेरे बच्चों ने चोरी की है? नहीं नहीं!इस कल्पना से भी मेरा संस्कारी मन काँप गया. ऐसा तो हो ही नहीं सकता,क्योंकि मैंने अपने दोनों बच्चों को किसी बात की कमी होने नहीं दी. हो सकता है मैंने कही इधर-उधर रख दिए हो और भूल गई हूँ. लेकिन कहाँ?सर गुमने लगा मुझे बच्चों से पूछताछ करनी पड़ेगी. घर में पहली बार ऐसा हुआ है अतः इससे आखिरी भी करना होगा. मेरी बेटी सौम्या छोटी है जो पहली कक्षा में पड़ती है. उसे पैसों और नयी चीजों का लालच भी नहीं है. कभी उसकी इच्छा झलकती भी नहीं दिखाई पड़ती. कई बार मैं उसे प्यार से दादी भी कहती हूँ क्योंकि बचपन में ही वयस्कों जैसी बातें करती है. मेरा बेटा समय तीसरी कक्षा में पड़ता है वह स्वाभाव से महत्वाकांक्षी है. उसे आदर्शों और नैतिकता की इतनी शिक्षा तो दे ही चुकीं हूँ कि वह चोरी नहीं कर सकता वह कई बार मुझे ‘हाई सोसायटी’ बच्चों की बात बताता है… माँ ! मेरे दोस्त की मम्मी पापा के पास बहुत पैसा है. वे रोज कैंटीन से खरीदकर खाते हैं. मुझे भी कभी कभी खिलाते हैं पर ! माँ मैं तो आपसे पैसे नहीं लेता न.
ऐसा सुनकर मैं उसपर नैतिकता का एक और पाठ थोप देती कि बहार की चीजें साफ़ नहीं होती, नहीं खाना चाहिए . इस प्रकार मैं आश्वस्त हो जाती कि मैंने बच्चों में अच्छे संस्कार डाल दिए हैं और मेरे बच्चे संस्कारी बन गए. हमारे घर में संभव और मेरी नौकरी के कारण कभी आर्थिक तंगी नहीं हुई परंतु उनके अत्यधिक सैद्धान्तिक विचारो ने मुझे व्यावहारिक कम दिखावटी ज्यादा बना दिया था. विवाह के पश्चात् दबाई इच्छाओं ने इसे सच मान लिया. धीरे-धीरे मेरा स्वभाव उन्हीं के अनुसार हो गया.
मैंने निश्चय किया कि समय का स्कूल बेग चेक करूँगी,हो सकता है कि उसके बालमन ने इच्छायें दबाने की चेष्टा की हो परंतु वही मन चोरी करने पर मजबूर हो गया हो. मैंने धड़धड़ाते हे उसका बैग खोला उसमें पांच सौ के तीन नोट और कुछ खुले रूपए थे. समय ने वो दो हजार रूपए निकाले थे फिर भी इस चकाचौध और दिखावटी के समाज में मात्र तीन सौ रुपये ही खर्च कर कर पाया था. मन मारने और दबाने की ऐसी आदत डाल रहा है. यह संस्कार हैं या इच्छाओं की हत्या.
मुझे अपना बचपन याद आने लगा जब मैं पांचवी कक्षा में थी. मैं भी अपनी सखियों की चीजें,कपडे और खानपान देखकर ललचती रहती. मेरी अमीर सहेलियां अपने सामर्थ्य का खुला प्रदर्शन करती और लगातार मेरे ऊपर भारी पड़ती फिर एक मौका पाकर मैंने दादाजी की जेब से पचास रूपए निकाल लिये. नई-नई चीजें कलम, कलर्स ,कवर ख़रीदे, चाहे जरूरत थी या नहीं. सखियों में श्रेष्ठ बनने का पहला सफल प्रयास था. अपनी महंगी खरीदारी का खूब प्रदर्शन किया लेकिन मेरी चोरी शाम को ही पकड़ी गयी. सजा के तौर पर काफी मार पड़ी और रात का खाना बंद. किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की,मैंने क्यों चोरी की?मुझे क्यों आवश्यकता पड़ी उन पैसों की?
मैंने अपने समय को समझते हुए,समय से बात करने का मन बनाया. आत्मविश्वास से परिपूर्ण मैंने बच्चे को उठाया. मैंने कहा —— समय ! मेरी तनख्वाह बढ़ गयी है और मैंने सोचा कि मैं आपको और सौम्या को पॉकेट मनी दूँ. आप भी कभी कभी पार्टी करो और और ————— जो मन और सेहत को अच्छा लगे. जिसका खाते हैं उसे खिलाते भी हैं नहीं तो एहसान बन जाता है और आत्मसम्मान में भी कमी आती है. मेरा बोलना समाप्त भी नहीं हुआ कि समय बोल पड़ा कि — माँ इस बार तो मैंने दोस्तों को पार्टी दे भी दी. आपके बैग से दो हजार रूपए निकाले थे पर अभी कुछ रुपये बचे हुये हैं . ” मैंने पाया कि इस प्रकार बोलते बोलते वह दोष मुक्त होता जा रहा था, यही मेरा और उसका प्रायश्चित भी था”
अभी दोपहर के दो बजे थे. दोपहर का खाना हो चुका था. मुझे विश्वास था कि अब यह घटना दोबारा नहीं घटेगी क्योंकि मैंने उसके कारण को जड़ से काट दिया.
मैंने छत से देखा मेरे बच्चे निर्दोष भाव से खेल रहे थे और मेरी आंखों से वात्सल्यता के आंसू मेरे गालों पर लुढक रहे थे, प्रेम से मैं उन्हें निहारने लगी. चित्त में अपूर्व शान्ति थी और सोच रही थी कि सोमवार की सुबह हमारे परिवार के लिए अनोखी और नई होगी.
श्रीमती मंजू मिश्रा
कमल मॉडल सीनियर सैकंडरी स्कूल (हिंदी विभाग )
मोहन गार्डन,उत्तम नगर.