कहा जाता है कि अगर किसी चीज को विवादित करना हो या फिर उसे खत्म करना हो तो कांग्रेस को बुला लीजिए। मुसलमानों के इफ्तार पार्टी के साथ भी यही हुआ है। इफ्तार अब मजहब का अंग नहीं बल्कि राजनीतिक और सामुदायिक तुष्टीकरण का अवयव बन कर रह गया है। इसके माध्यम से मुसलमानों के एक बड़े वर्ग की उपेक्षा कर एक खास वर्ग को तरजीह दी जाती रही है। जबकि रमजान का उद्देश्य ही गरीबों की सेवा करना है। राहुल गांधी की इफ्तार पार्टी हो या किसी अन्य पार्टी द्वारा दी गई इफ्तार पार्टी हो, किसी में भी आपको गरीबों की मौजूदगी नहीं दिखेगी। हर पार्टी में मुसलमानों के वे रहनुमा दिखेंगे जो अपने समुदाय से कुछ वोट का इंतजाम कर दें। अब तो यहां तक कहा जाने लगा है कि जब तक इफ्तार पार्टी खत्म नहीं होगी मुसलमानों में नया एलिट वर्ग नहीं बन पाएगा। अगर मुसलमानों को आगे आना है तो अपने पुराने रहनुमाओं को बदलना होगा और नए रहनुमाओं को आगे लाने के लिए इफ्तार पार्टी को खत्म करना होगा।
मुख्य बिंदु
* कांग्रेस की इफ्तार पार्टी में मुसलमानों में पहुंच और पैठ के हिसाब से तरजीह दी जाती है
* मुसलमानों को भी इफ्तार पर रोक लगाकर पुराने की जगह नए रहनुमा तलाशने होंगे
आप इफ्तार पार्टी का पूरा इतिहास उलटा कर देख लीजिए। हमेशा से इफ्तार पार्टी में कुछ ही जानी मानी मुसलिम हस्तियों को बुलाया जाता रहा है। इफ्तार पार्टी में मुसलमानों के बीच पहुंच और पैठ के हिसाब से तरजीह दी जाती रही है। महात्मा गांधी ने अपने हिसाब से इफ्तार को जायज ठहराया तो जवाहर लाल नेहरू ने अपने हिसाब से। लेकिन इन दोनों के बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि मुसलिम वोट पाने के लिए ऐसा किया गया। लेकिन इंदिरा गांधी के केंद्रीय सत्ता में आने के बाद मुसलिम तुष्टीकरण का खेल शुरू हुआ जिसमें इफ्तार का बड़ा योगदान रहा। इसके बाद से तो इफ्तार पार्टी का उपयोग अपने राजनीतिक हित साधने के लिए अनवरत रूप से चल रहा है। इंदिरा गांधी ने तो जामा मसजिद के इमाम बुखारी ने अपने हक में वोट करने के लिए फतवा तक जारी करवाती रही है। वो भी एक इफ्तार पार्टी उनके हिसाब से आयोजित कर।
लेकिन इतने दिनो के बाद पहली बार सरकारी स्तर पर कोई इफ्तार पार्टी का आयोजन नहीं किया गया। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पहले ही संवैधानिक हवाला देते हुए इफ्तार का आयोजन करने से मना कर दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैसे भी इफ्तार में विश्वास नहीं करते। एनडीए सरकार ने सरकारी खर्चे पर धार्मिक आयोजनों को बंद कर सही मायने में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया है। लेकिन सरकार के इस कदम की भी छद्म सेकुलरों और पत्रकारों ने आलोचना की है। राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारों ने तो इस मामले में ट्वीट कर प्रधानमंत्री की निजी आस्था पर प्रहार किया है। उन्होंने तो महा-आरती में पीएम की शिरकत के टीवी पर जीवंत प्रसारण पर सवाल खड़ा कर दिया।
Yes, practising religion should be a private matter but then keep it private.Then dont have a live tv of the PM at a Maha-Aarti ritual while staying away from an iftaar. A public figure in a multi faith society like India should celebrate all festivals or none at all in public. https://t.co/LSCuxVhlc1
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) June 13, 2018
छद्म सेकुलरवादी चाहे सत्ता में हो या नहीं वे मुसलिम तुष्टीकरण से बाज नहीं आने वाले। राहुल गांधी के इफ्तार पार्टी में मुसलिमों से ज्यादा आकर्षण के केंद्र सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी थे। याद करिए ये वही लोग हैं जो भाजपा पर हमेशा सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते रहे हैं। आज ये बताएं की असली सांप्रदायिक कौन है? ये लोग जब भी सत्ता में रहे तब भी मुसलमानों को तुष्ट करने के लिए सरकारी स्तर पर इफ्तार का आयोजन करते रहे हैं। क्या आपको याद है कि सरकारी स्तर पर होली या दीवाली का आयोजन किया गया हो। अब जब मोदी सरकार देश को सही मायने में सेकुलर बनाया है तो ये लोग फिर मुसलिम तुष्टीकरण के नाम पर सरकार की आलोचना कर रहे हैं। अब देश की जनता को जवाब देना है कि असली सांप्रदायिक पार्टी कौन है? एक पार्टी भाजपा है जो शुरू से सांप्रदायिकता की आरोपी होने के बावजूद देश में धर्मनिरपेक्षता की मीसाल कायम की है और दूसरी तरफ कांग्रेस, कम्युनिस्ट, सपा बसपा जैसी सेकुलर पार्टियां हैं जो आजतक मुसलिम तुष्टीकरण के नाम पर देश को सही मायने में कभी सेकुलर होने नहीं दिया।
इफ्तार को देश की राजनीतिक पार्टियों ने वोट का राजनीतिक मैदान बना दिया है। जिसमें अपने चहेतों को बुलाकर पूरे मुसलिम समुदाय का सौदा किया जाता है। अगर देश के मुसलमानों को अपने समुदाय का विकास चाहिए भेड़ की भीड़ बनने से बाज आना होगा। नहीं तो कुछ ठेकेदारों के हाथों वे अपना लोकतांत्रिक अधिकार बेचते रहेंगे और वे ठेकेदार अपने हित के लिए पूरे समुदाय का सौदा करते रहेंगे।
URL: Congress made the Iftar party synonymous with Muslim appeasement!
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