भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून का दिन अपनी पूरी कालिमा के साथ आता है। इतना काला कि उसके उजास के लिए अगले दिन का इंतज़ार करना होता है। यह दिन प्रतीक है तानाशाही का। तानाशाही के एक ऐसे दौर का जिसने भारत के लोकतंत्र को बदनुमा दाग दिया। रात के बारह बजे तानाशाह इंदिरा गांधी ने अपनी मनमानी करते हुए देश की आत्मा पर प्रहार किया। घटना क्रम यह था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पांचवी लोकसभा का चुनाव रायबरेली से जीतकर संसद में कदम रखा था। जब सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग का मामला लेकर श्री राजनारायण उच्च न्यायालय गए तो उनके पक्ष में निर्णय देते हुए न्यायालय ने इंदिरा गांधी का निर्वाचन रद्द कर दिया। इस पर इंदिरा गांधी गुस्से से बौखला उठीं और उन्होंने ऐसा कदम उठाने का निर्णय लिया, जो सबसे काले काल के रूप में जाना जाने वाला था।
25 जून 1975 को रात को बारह बजे जब पूरा देश सो रहा था, तब वह शायद उसे एक बहुत गहरी नींद में सुलाने का षड्यंत्र चल रहा था। रेडियो से एक घोषणा और लग गया ग्रहण! उस समय राजनीतिक विरोध और विरोधियों को दबाने के लिए जो साजिशें हुईं वह अब सभी को पता है। मगर एक प्रश्न उठता है कि उस समय लेखक और पत्रकार क्या कर रहे थे? क्या किसी कवि ने कुछ लिखा? क्या उन्होंने जनविरोध को हवा दी, उन्होंने जनविरोध को स्वर दिया? तो इसका उत्तर हैं हां! उस काल में कई कवि ऐसे हुए जिन्होंने अपने निर्भीक स्वरों से तानाशाही सरकार को असहज किया। बार बार प्रश्न किए। जैसे फणीश्वर नाथ रेणु, नागार्जुन, धर्मवीर भारती, दुष्यंत और अटल बिहारी वाजपेयी, जिनमें से अटल बिहारी वाजपेई जी बाद में प्रधानमंत्री के पद पर भी पहुंचे। यह सच है कि कई पत्रकारों ने आपातकाल के समक्ष घुटने टेके थे, मगर लेखक और कवियों ने नहीं। फणीश्वर नाथ रेणु अपनी कविता इमरजेंसी में लिखा:
“इमर्जेंसी-वार्ड की ट्रालियाँ
हड़हड़-भड़भड़ करती
आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमर्जेंसी!
सैलाइन और रक्त की
बोतलों में क़ैद ज़िन्दगी!
-रोग-मुक्त, किन्तु बेहोश काया में
बूंद-बूंद टपकती रहती है- इमर्जेंसी!
सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम
और तमाम चुपचाप हवाएँ
एक साथ
मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर- इमर्जेंसी!
धर्मयुग के सम्पादक एवं हिंदी के प्रख्यात रचनाकार भी इस अन्याय के खिलाफ मुखर रहे थे एवं उन्होंने इस तानाशाही के खिलाफ अपनी एक लम्बी कविता लिखी। उन्होंने अपनी कविता मुनादी में इस कैद को बखूबी दिखाया,
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का। । ।
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है !
जब आप देखें तो यह सच ही था कि जिन्होनें आज़ादी के लिए संघर्ष किया था, उन्होंने कभी भी सपने यह कल्पना नहीं की होगी कि वह एक कैद से निकल कर दूसरी में कैद हो जाएंगे। ऐसे में एक युवा कवि भी था जिसने इस अत्याचार के खिलाफ न केवल आन्दोलन से बल्कि कविताओं से भी बिगुल फूंक दिया। वह थे अटल बिहारी वाजपेई। जब बार बार सरकार की तरफ से अनुशासन की दुहाई दी गयी तो उन्होंने लिखा:
अनुशासन के नाम पर अनुशासन का खूनभंग कर दिया संघ को कैसा चढ़ा जुनून
कैसा चढ़ा जुनून, मातृ-पूजा प्रतिबंधित
कुटिल कर रहे केशव-कुल की कीर्ति कलंकित
कह कैदी कविराय, तोड़ कानूनी कारा
गूंजेगा भारत माता की जय का नारा
यह कविता आन्दोलनकारियों के लिए एक प्रेरणा बन गयी। उसके बाद उन्होंने इंदिरा इज इंडिया पर भी तंज कसते हुए लिखा था
‘इंदिरा इंडिया एक है, इति बरुआ महाराज
अकल घास चरने गई, चमचों के सरताज
चमचों के सरताज, किया अपमानित भारत
एक मृत्यु के लिए कलंकित भूत भविष्यत्
कह कैदी कविराय, स्वर्ग से जो महान है
कौन भला उस भारतमाता के समान है’।
यह वह लोग थे जिन्होनें बहुत मन से 1947 में स्वतंत्रता का स्वागत किया था, और भारत भूमि के दो टुकड़े देखे थे। श्री अटल बिहारी जी की पार्टी के नेता श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो स्वतंत्रता के उपरान्त कश्मीर को भारत में रखने के लिए अपने प्राणों का बलिदान भी दे चुके थे।
ऐसे में हिंदी गजल को पहचाने देने वाले दुष्यंत कुमार को कौन भूल सकता है। उन्होंने इंदिरा गांधी पर प्रहार करते हुए लिखा
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
इनमें यदि नागार्जुन का नाम नहीं लेंगे तो सबसे बड़ा अन्याय होगा। यद्यपि वह इंदिरा गांधी जी के पिता श्री जवाहर नाल नेहरु के भी बहुत बड़े आलोचक थे, मगर फिर भी आपातकाल लगाने को लेकर वह इंदिरा गांधी को उनके पिता से भी निकृष्ट नेता मानते थे। उन्होंने बहुत तल्ख़ कविता लिखी
इन्दु जी, क्या हुआ आपको
छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको
काले चिकने माल का मस्का लगा आपको
किसी ने टोका तो ठस्का लगा आपको
अन्ट-शन्ट बक रही जनून में
शासन का नशा घुला ख़ून में
फूल से भी हल्का
समझ लिया आपने हत्या के पाप को
इन्दु जी, क्या हुआ आपको
रानी महारानी आप
नवाबों की नानी आप
नफ़ाख़ोर सेठों की अपनी सगी माई आप
काले बाज़ार की कीचड़ आप, काई आप
सुन रहीं गिन रहीं
गिन रहीं सुन रहीं
सुन रहीं सुन रहीं
गिन रहीं गिन रहीं
हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को
एक-एक टाप को, एक-एक टाप को
आपातकाल यद्यपि बीत गया है, परन्तु हमें इन कविताओं को अपनी विरासत के रूप में अपने पास रखना चाहिए, स्मृति में रखना चाहिए, जिससे हम जान सकें कि जो अत्याचार सरकारी अभिलेखों में रिकॉर्ड न हो सके, वह इन कविताओं में जिंदा है।
तभी कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण है!
पतटथद
So sad…