Sonali Misra. ब्रिटिश सरकार हर तरीके से हिन्दुओं को नष्ट करना चाहती थी। उसका निशाना और भी स्थानों पर था। और वह भी प्रशासन के माध्यम से! भारत में मंदिर न केवल धन अपितु सभ्यता के भी केन्द्र हुआ करते थे। उनका कार्य संस्कृतिक मूल्यों की स्थापना के साथ ही विज्ञान, वास्तु एवं इतिहास से जुड़े विषयों के ग्रन्थों का भी संग्रह करना हुआ करता था। मठ अपनी पूजा और उपासना की परम्परा को अक्षुष्ण बनाए रखने के लिए की प्रकार की गतिविधियाँ करते थे एवं सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त थे। वह अपने अनुनायियों की श्रद्धा के अनुसार ही संचालित हुआ करते थे। मंदिर देवता एवं भक्तों की संपत्ति माने जाते थे।
परन्तु मंदिरों की अकूत संपत्ति पर नज़र टिकाए एवं हिन्दुओं को संस्कृति एवं समृद्धि हीन करने का उद्देश्य लेकर आए अंग्रेजों ने वर्ष 1925 में मद्रास हिन्दू रिलीजियस एंडोमेंट एक्ट 1923 को स्थानीय सरकार द्वारा पारित करवाया। इस अधिनियम का उद्देश्य था मंदिरों के प्रशासन को बेहतर करना। परन्तु इस बहाने तमिलनाडु के समस्त मठों पर सरकारी कब्ज़ा हो गया। हालांकि इसकी वैधता को चुनौती दी गयी और फिर उसके बाद वर्ष 1927 में इसे लागू किया गया।
हिन्दुओं को कानूनों से निर्बल किया गया
समय के साथ इसमें कई परिवर्तन हुए। परन्तु स्वतंत्रता के उपरान्त जैसा कि अपेक्षा की जा रही थी कि अंग्रेज सरकार के जाते ही हिन्दू मंदिरों के साथ न्याय होगा और मंदिरों को वापस मठों को सौंपा जाएगा, वैसा नहीं हुआ और उसीके साथ वर्ष 1951 में मद्रास सरकार ने एक और नया हिन्दू धार्मिक अधिनियम पारित किया जिसे हिन्दू रेलिजियास एंड चेरिटेबल एंडोमेंट अधिनियम 1951 कहा गया।
इस कानून में भी वही प्रावधान रखे गए। सरकार की ओर से ही नियुक्त अधिकारी मंदिरों का संचालन करते रहे। यह देखना अत्यंत दुखद है कि जहाँ एक ओर भारतीय संविधान द्वारा ही धार्मिक स्वतंत्रता सभी को प्रदान की गयी है, परन्तु मंदिर अधिनियम के माध्यम से हिन्दुओं के लिए इस स्वतंत्रता को बाधित किया गया है। मंदिरों का संचालन भक्त और भगवान के बीच का अधिकार है।
परन्तु जैसे बैंक आदि का राष्ट्रीयकरण होता है, वैसे ही हिन्दू धर्म का राष्ट्रीयकरण हो गया और देखते देखते वह सरकार की संपत्ति बन गया। गोया वह अनाथ हो। बाद में जब 1951 में इस अधिनियम को और परिष्कृत किया गया, तो इसमें और नए प्रावधान जोड़े गए। इस नए क़ानून ने हिन्दू धार्मिक और धर्मार्थ संस्थानों को एक सरकारी विभाग में बदल दिया।
इस नए कानून के अनुसार सरकार द्वारा नियुक्त कमिश्नर किसी भी योजना को संचालित कर सकता था, यदि उसे लगता था कि एक धार्मिक संस्थान अपने अंतर्गत रखे गए संसाधनों का प्रयोग नहीं कर रहा है या फिर उन उद्देश्यों के विरुद्ध कार्य कर रहा है, जिनके लिए उसकी स्थापना हुई थी।
स्पष्ट है कि हिन्दुओं को कमजोर बनाने की जो योजना अंग्रेजों ने आरम्भ की थी, उसे स्वतंत्रता के बाद भी चालू रखा गया और देखते ही देखते हिन्दुओं को धर्मनिष्ठ से राष्ट्रीयकृत बना दिया गया, और उसका अपने नियम आदि कुछ नहीं रहे।

ऐसा ही एक और नियम था जिसने भारत में ईसाई पन्थ को स्थापित कर दिया। चर्चों को स्वायत्त करने के लिए और उनका संचालन चर्च की मान्यताओं के अनुसार करने के लिए Indian Church Act।, 1927 अर्थात भारतीय चर्च अधिनियम को लागू किया गया। इस क़ानून में चर्च ऑफ इंग्लैण्ड और चर्च ऑफ इंग्लैण्ड इन इंडिया एवं चर्च ऑफ इंग्लैण्ड इन सीलोन के बीच कानूनी रूप से एकरूपता लाने के प्रावधान किए गए।
चर्च के कुछ ऐसे क़ानून थे जो इंग्लैण्ड में तो लागू होते थे, मगर भारत में नहीं। अत: भारत में उस समय बिशपों ने यह चिंता जताई कि वह इंग्लैण्ड के धार्मिक क़ानून लागू तो करना चाहते हैं, पर वह कर नहीं सकते हैं। इंग्लैण्ड के कई धार्मिक क़ानून भारत में लागू नहीं होते हैं। अत: उनके लिए ऐसा कानून बनाया जाए जिससे भारत में जो चर्च हैं, उनका पूरा संचालन इंग्लैण्ड के धार्मिक कानूनों के अनुसार हो सके।
चूंकि भारत में धर्मांतरण जोरों शोरो से किया जा रहा था, तो चर्च उस समय भी सरकार का नियंत्रण न चाहकर केवल धार्मिक क़ानून चाहते थे और दूसरी ओर हिन्दू मंदिरों को सरकार के अधीन लिया जा रहा था। यह कैसी विडंबना थी कि जहाँ कुशल प्रशासन के नाम पर हिन्दू मंदिरों को सरकारी क़ानून बनाकर दबाया जा रहा था तो वहीं चर्चों को इंग्लैण्ड के धार्मिक कानूनों के अनुसार संचालित करने के लिए संवैधानिक प्रावधान किए जा रहे थे। वह इंग्लैण्ड के कानूनों के अनुसार अपने लिए योजनाएं बना सकते थे और ऐसी हर योजना की जानकारी उन्हें भारत के गजट में अधिसूचित करनी होती थी।
बिशप ऑफ कोलकता के पास अधिकार था कि वह भारत के गवर्नर जनरल के साथ मिलकर पादरियों के अधिकार, दायित्वों एवं अनुशासन को निगमित कर सके। इसके साथ ही वह चर्च के लिए मेंटिनेंस आदि के लिए खर्च तय कर सकता था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दो प्रकार के धार्मिक क़ानून थे, जिसमें एक क़ानून में हिन्दू धर्म को पूरी तरह से राष्ट्रीय बना दिया गया तो वहीं एक रिलिजन को स्वयं में राष्ट्र बना दिया गया, जिसमें केवल धर्म के अनुसार ही नियम बन सकते थे और सरकार को उस रिलिजन के लिए कदम उठाने के लिए चर्च की अनुमति चाहिए होती थी।
हालांकि इस क़ानून को दिसंबर 1960 में हटा लिया गया। परन्तु यह भी देखना बहुत रोचक होगा कि भारत में अधिकाँश चर्च, जो इस क़ानून के हटने के बाद बने हैं, उन्होंने स्वयं का पंजीकरण किसी धार्मिक संस्था के रूप में नहीं अपितु एक सामाजिक संस्था के रूप में पंजीकृत करवा रखा है।
जितने भी चर्च पूर्वोत्तर भारत में पंजीकृत हैं, वह सभी सामाजिक संस्थान के रूप में पंजीकृत हैं और धार्मिक संस्थान के रूप में पंजीकृत नहीं हैं तो वह हर प्रकार की सहायता के पात्र हैं। और वह विश्व हिन्दू परिषद या फिर किसी भी अन्य संस्था के समान ही हैं।
इसी के साथ रसूला रंगीन से उपजे विवाद एवं वर्ष 1926 में स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के उपरान्त धार्मिक आलोचना पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया और भारतीय दंड विधान में धारा 295 ए को जोड़ा गया।
अत: यह कहा जा सकता है कि हिन्दुओं को तोड़ने के लिए केवल सांस्कृतिक तौर पर ही नहीं अपितु कानूनी तौर पर भी कई कदम उठाए गए जिनके कारण हिन्दू अशक्त हुआ, काल्पनिक जाति के नाम पर हिन्दुओं को तोडा गया और आज तक हम उन्हीं कानूनों में बंधे हुए हैं, कानूनी रूप से अशक्त हिन्दू आज तक अशक्त है। बल्कि तोड़ने वाले क़ानून ही सशक्त हुए हैं।