Sonali Misra. दिल्ली नगर निगम ने हाल ही में माँस के उपभोग को एक निर्णय आया है कि अब से हर माँस की दुकान पर यह लिखना अनिवार्य होगा कि मांस हलाल है या फिर झटका! हलाल और झटका मांसाहार इन दिनों पर्याप्त चर्चा का विषय हैं, तथा अतीत में भी रहे हैं। परन्तु क्या शब्द मात्र खानपान तक ही सीमित हैं या फिर यह और कुछ भी हैं? क्या इनका विस्तार खानपान से कहीं अधिक बढ़कर है। क्या यह सांस्कृतिक वर्चस्व का युद्ध है या फिर आर्थिक वर्चस्व का, यह भी एक प्रश्न है।
कहीं न कहीं हलाल और झटका, यह दो शब्द कान में आते ही एक ओर तहजीब आती है और दूसरी ओर सभ्यता! कई लोग यह कहते हैं कि “दोनों ही तरीकों में जान जाती है, फिर क्या फर्क पड़ता है?” सच में ऐसा तर्क देने वाले इतने मासूम हैं या फिर कुछ और है? हलाल का अर्थ क्या होता है? हलाल का अर्थ है “वैध!” और इसे झटका सर्टिफिकेशन अथॉरिटी के अध्यक्ष श्री रवि रंजन और स्पष्ट रूप से समझाते हैं।
वह कहते हैं कि हलाल एक अरबी शब्द है, जो इस्लाम के आने से पहले भी था। हलाल का अर्थ है वैध! वैधता प्रदान करना। पहले इस शब्द को वहां रहने वालों के द्वारा प्रयोग किया जाता था। परन्तु इस्लाम के आने के बाद यह इस्लाम तक ही सीमित हो गया। और हलाल का अर्थ हो गया इस्लाम के अनुसार वैध! जो हलाल की परिभाषा हुई, वह इस्लाम के अनुसार हुई।
सांस्कृतिक आक्रमण: रवि रंजन जी का यह कहना है कि यह एक सांस्कृतिक आक्रमण है। उनके अनुसार इस्लाम के भारत आने से पहले भारत में झटका माँस प्रयोग किया जाता था। झटके से बलि दे दी जाती थी। यह आहार में उनके अनुसार संस्कृति अपनाने की लड़ाई है। वह कहते हैं कि हलाल करते समय एक मजहब का कलमा पढ़ा जाता है। हालांकि कलमा से कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, परन्तु किसी दूसरे मजहब का कलमा मेरे आहार का हिस्सा क्यों बने? दूसरे मजहब का कलमा मेरे आहार की संस्कृति का हिस्सा क्यों बने?
जैसे बलि एक धार्मिक परम्परा है और उसे ग्रहण करना या न करना, दूसरे मजहब का अधिकार है, बलि तो खैर अब प्रतिबंधित है, साधारण खानपान की वस्तु का प्रसाद भी ग्रहण करना या न करना दूसरे मजहब का अधिकार है, कि वह ले या न ले! तो ऐसे में हलाल, जो पूरी तरह से एक मजहबी परम्परा है, जिसमें बकरे को काटते समय एक मजहबी कलमा पढ़ा जाता है, वह दूसरे धर्म के माँसाहार का हिस्सा क्यों बने? यह धार्मिक स्वतंत्रता का भी प्रश्न है, जो हर भारतीय को संविधान में प्रदत्त है।
हर भारतीय को यह स्वतंत्रता संविधान देता है कि वह अपनी संस्कृति की रक्षा करे एवं अपनी संस्कृति पर हो रहे आक्रमण को रोके, और इसमें हलाल माँस का प्रयोग भी आता है।
हमारी वैधता का निर्धारण इस्लाम से क्यों? हलाल अर्थात किसी वस्तु को वैधता प्रदान करना। जब वह माँस या किसी अन्य वस्तु को हलाल का प्रमाणपत्र देते हैं तो वह एक प्रकार से उसकी वैधता निर्धारित करते हैं। परन्तु वह वैधता किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच की न होकर इस्लाम के अनुसार होती है। प्रश्न यही है कि अन्य धर्मावलम्बियों के लिए इस्लाम द्वारा प्रदत्त वैधता अनिवार्य क्यों हो? जो हलाल प्रमाणपत्र है, वह इस्लाम के अनुसार अनुमत है, फिर अन्य धर्मों के लिए क्या वैध है और क्या नहीं, इसका निर्धारण इस्लाम क्यों करेगा? यही बात रवि रंजन सिंह कहते हैं कि हलाल केवल माँस काटने की पद्धति न होकर बहुत अधिक है। इसमें साजिशों की भरमार है। वह कहते हैं कि हालांकि यह शब्द पहले से ही था, जैसे अल्लाह शब्द इस्लाम से पहले भी था। पर जैसे अल्लाह को इस्लाम ने री-डीफाइन किया, वैसे ही हलाल को इस्लाम ने अपने अनुसार रीडीफाइन किया है।
हलाल का अर्थ है जायज होना, या हिंदी में न्यायिक! वह कहते हैं कि जायज़ कई स्थितियों पर निर्भर करता है। एक देश में एक चीज़ जायज होगी और दूसरे में नहीं। एक क़ानून भारत में जायज होगा तो हो सकता है दूसरे देश में न हो। उनका कहना एकदम स्पष्ट है कि हमने इस्लामिक हलाल को यूनिवर्सल हलाल समझ लिया है। अर्थात जो इस्लाम में जायज है, वह सभी में जायज है।
ऐसे शब्द हमारे दैनिक जीवन में कितने भीतर तक प्रवेश कर चुके हैं यह भी देखना होगा। रवि रंजन जी एक मुहावरे का उदाहरण देते हैं कि हम लोग आम तौर पर एक मुहावरा प्रयोग करते हैं “यह हक़ और हलाल की कमाई है।” वह समझाते हैं कि हक अलग है और हलाल अलग है, हक़ तो ठीक है, पर हलाल? हलाल का अर्थ हो गया, इस्लाम के अनुसार जायज! जैसे इस्लाम में सुअर का माँस हलाल का नहीं है, तो क्या कोई सुअर का माँस नहीं खाएगा? यह प्रश्न उठता ही है और उठना ही चाहिए जैसा रवि रंजन जी भी कहते हैं कि इस्लाम के अनुसार जो जायज है, वह सभी के लिए जायज क्यों हो?
आर्थिक पक्ष: “हलाल” शब्द देखने में जितना छोटा है, उसका आर्थिक पक्ष उतना ही बड़ा है। रवि रंजन जी इसे नाम दिया है हलाल-अर्थव्यवस्था अर्था हलालोनोमिक्स! नेट पर केवल एक हलाल-अर्थव्यवस्था खोजने से वह जानकारियाँ प्राप्त होतीं हैं, जो हममें से लगभग सभी को अचंभित कर देंगी। 9 सितम्बर 2020 को अरब न्यूज़ की एक रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक हलाल अर्थव्यवस्था वर्ष 2024 तक 3.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के समान हो जाएगी। दुबई एयरपोर्ट फ्रिजोन (डाफ्ज़ा) द्वारा बनाई गयी “दुबई-अ ग्लोबल गेटवे फॉर हलाल इंडस्ट्री: अ स्टेप-बाई-स्टेप गाइड” के दूसरे संस्करण में वैश्विक इस्लामिक अर्थव्यवस्था में विभिन्न क्षेत्रों में सभावनाएं तलाशी गयी हैं।
इसी बात को और भी अधिक विस्तार से रवि रंजन जी समझाते हुए कहते हैं कि हलाल एक बहुत बड़ा आर्थिक चक्र है। पहले माँस से यह आरम्भ हुआ, पर बाद में यह माँस तक न सीमित रहकर उसके आगे बढ़ा। वह कहते हैं कि हलाल आज दुनिया की हर चीज़ में है। और यह हमें दिखता भी है, जब हम अरब न्यूज़ की वह रिपोर्ट पढ़ते हैं और पाते हैं कि हलाल मेकअप किट्स हैं, हलाल टीशर्ट्स हैं और हलाल दूध आदि सभी है। रवि रंजन जी कहते हैं कि या तो वह अर्थव्यवस्था टिक पाएंगी जो हलाल अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं या फिर जो उनके इशारे पर नाच रही हैं।
वह पकिस्तान का उदाहरण देते हैं कि आज पाकिस्तान में जो हम देख रहे हैं कि अल्पसंख्यक शेष है ही नहीं, तो यह उन्होंने तलवार के बल पर ही नहीं किया या जबरन नहीं किया, बल्कि अर्थव्यवस्था के आधार पर किया। जैसे किसी की हलवाई की दुकान बढ़िया चल रही थी, पर कोई उसके पास जाएगा ही नहीं, तो अपना आर्थिक नुकसान कराने के बाद, वह उनमें ही शामिल जो जाएगा। यह सब हलाल अर्थव्यवस्था का ही परिणाम है।
फाइनेंसियल मैनेजमेंट में वर्ष 2019 में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसमें रवि रंजन जी की बात प्रमाणित होती है। इस रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक हलाल अर्थव्यवस्था वर्ष 2023 तक 3ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक हो जाएगी। और कुछ कंपनियां अपने अपने देशों की सरकार के समर्थन के साथ, इस हलाल बाज़ार की सम्भावनाओं को भुनाने के लिए तैयार हैं। जिनमें मलेशिया में एक शौपिंग मॉल में कोरियाई कंपनियों के नाम मुख्य थे।
इस रिपोर्ट के अनुसार टोक्यो में वर्ष 2020 में होने वाले ओलम्पिक गेम्स में आने वाले हजारों खिलाड़ियों एवं प्रतिनिधियों के लिए भोजन व्यवस्था के लिए एक हलाल केन्द्रित रसोई की स्थापना के लिए एक मलेशियाई फ़ूड प्रोवाइडर के साथ एक जापानी कंपनी Curetex Corp ने हाथ मिलाया था। हालांकि कोविड 19 के चलते यह गेम्स नहीं हुए थे और अब जुलाई 2021 में वह प्रस्तावित हैं।
रवि रंजन जी हलाल औषधियों की बात करते हैं। और वह कहते हैं कि यह चिकित्सा विज्ञान को डेढ़ हज़ार साल पीछे ले जाने का षड्यंत्र है क्योंकि यदि कोई औषधि इस्लामिक रूप से हलाल प्रमाणित की गयी है, तो यह स्पष्ट है कि उसमें एल्कोहल नहीं होना चाहिए, यदि एल्कोहल होगा तो वह इस्लाम के अनुसार नहीं होगी। अब यदि हलाल औषधियां हैं, तो आप सोचिये कि यह कितना घातक और खतरनाक है कि यदि उसमें जरा भी एल्कोहल होगा तो वह प्रयोग नहीं होगी, या फिर कहें आगे जाकर बनेगी ही नहीं, फिर चाहे मरीज जिये या मरे! रवि रंजन जी कहते हैं कि हलाल के नशे में विज्ञान का एक दरवाजा बंद कर दिया है।
यहाँ तक कि हलाल डेटिंग और हलाल वैश्यावृत्ति भी है, हलाल डेटिंग इन दिनों मुस्लिम समाज में नया ट्रेंड है।
तो यह समझा जा सकता है कि जो शब्द एक अत्यंत छोटा और मामूली दिखाई देता है, वह स्वयं में एक अर्थव्यवस्था है। एवं विरोधी समाज को खा जाने वाला शब्द है। और हमें भी हलाल खाने के लिए विवश किया जा रहा है। इतना ही नहीं रवि रंजन जी तो इससे भी आगे कहते हैं कि जो भी कंपनी हलाल प्रमाणपत्र लेती है, उसके द्वारा दी गयी फीस का प्रयोग तो इस्लाम की बढ़ोत्तरी के लिए होता ही है, बल्कि साथ ही जो हलाल प्रमाणपत्र लेती है, वह कुछ भी इस्लाम विरोधी नहीं कर सकती। अर्थात यह इस्लाम के प्रचार का माध्यम है एवं इस्लाम के नाम पर किये जा रहे किसी भी अत्याचार का आप विरोध भी नहीं कर सकते हैं। शायद तभी अधिकाँश कंपनियां विज्ञापन बनाते समय इस्लामिक आस्थाओं का ध्यान रखती हैं क्योंकि उनका पैसा जुड़ा हुआ है।
उन्होंने अपने मजहब के अनुसार जायज और नाजायज की परिभाषा निर्धारित कर दी है। इस जायज की परिभाषा के खिलाफ और वैश्विक जायज के आर्थिक चक्र के खिलाफ रवि रंजन जी अभियान चला रहे हैं, लोगों को जागरूक कर रहे हैं। जब उनसे मैंने पूछा कि दिल्ली नगर निगम के इस निर्णय पर उन्हें क्या कहना है तो उन्होंने कहा कि हालांकि यह बहुत छोटा कदम है, पर शुरुआत तो हुई। यह हमारी धार्मिक स्वतंत्रता है कि हम कलमा पढ़ा हुआ हलाल मांस खाना चाहते हैं या नहीं और यह हमारे इतने वर्षों से चली आ रही लड़ाई में महत्वपूर्ण पड़ाव है।
उन्होंने बताया कि इस अभियान के लिए उन्होंने अपने घर की ईंटें तक बेची हैं। अत: जो दिल्ली नगर निगम ने यह घोषणा की है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि कलमा पढ़ा हुआ माँस खाना हिन्दू और सिख धर्म के अनुयाइयों के लिए उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है और बात अब उससे कहीं आगे की है। अर्थव्यवस्था की है और हिन्दू धर्म के अस्तित्व की है।