समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध
महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ की अमर साहित्यिक कृति का ये भाग अप्रासंगिकता की सीमा से सदा ही बाहर रहा है। या यूँ कहे कि इन दो लाइनों ने इस कविता को कभी विस्मृत ही नहीं होने दिया। आज पुनः ये कृति प्रासंगिक हो गई है। वर्तमान परिदृश्य बोलने और न बोलने के लिए भविष्य में हमेशा स्मरण में रहेगा। सुशांत सिंह राजपूत की निर्मम हत्या ने देश को वैचारिक रुप दो भाग में चीरकर रख दिया है। कुछ बोल बिगड़ रहे हैं तो कुछ बोल गले में ही घुट कर रह गए हैं। फ़िल्मी अभिनेताओं और निर्माताओं की एक लंबी सूची बनाई जा सकती है, जो इस प्रकरण में बोल रहे हैं या नहीं बोल रहे।
हम बोलने वालों को उँगलियों पर गिन सकते हैं। सुशांत प्रकरण में फिर सिद्ध हुआ कि प्रसिद्धि की चोटियों पर बैठे कलाकार फिल्म उद्योग में पनप रही गंदगी पर बोलना नहीं चाहते बल्कि इसे ढांप देना चाहते हैं। सुशांत प्रकरण में केंद्रीय जाँच एजेंसियों का आना उनको ऐसा लग रहा है मानो सरकार ने उनकी निजता पर अतिक्रमण कर लिया हो।
कुछ लोग सामान्य जाँच प्रक्रिया को फिल्म उद्योग पर आक्रमण समझकर उसे राज्यसभा के पटल पर ले जाते हैं। ऐसा ही उस समय हुआ था जब मैच फिक्सिंग के मामले में क्रिकेट संस्था बीसीसीआई ने न्यायालय में शर्मनाक बयान दिया था कि उनके खिलाड़ी देश के लिए नहीं खेलते।
कुछ ऐसा ही शर्मनाक दृश्य राज्यसभा में दिखा, जब सपा सांसद जया बच्चन ने सीबीआई, ईडी और एनसीबी की जाँच से फिल्म उद्योग को बचाने की गुहार केंद्र सरकार से लगाई। निश्चय ही ये असंवैधानिक मांग थी। जब जाँच एजेंसियां सुशांत प्रकरण के साथ फिल्म उद्योग में संचालित अंतरराष्ट्रीय ड्रग सिंडिकेट की जड़े खोदने में लगी हो तो उस महत्वपूर्ण जाँच में बाधा डालने वाली ये मांग असंवैधानिक ही कही जाएगी।
बिहार की पृष्ठभूमि से आए अभिनेता मनोज वाजपेयी ने इस प्रकरण पर अपनी राय प्रकट करते हुए कहा आप जैसे ही कहते हैं कि यहां ड्रग्स का व्यापार है, तो जो भी लोग यह देख रहे हैं वो जब मुझे देखते हैं कि तो उन्हें लगता है कि ड्रग्स का गोदाम आ रहा है। उनको लगता है कि जैसे कांचा सेठ मनोज बाजपेयी है।
मनोज बाजपेयी जी का ये कहना दर्शाता है कि उन्हें इस बात का वैसा ही बुरा लगा है, जैसे पुलिस-राजनीतिज्ञ-पत्रकार को भ्रष्ट कहा जाता है तो उन्हें बुरा लगता है। मनोज इसी गंदगी के बीच अपना कॅरियर शानदार ढंग से चलाते रहे हैं। निश्चय ही ये गंदगी उन्हें पसंद न होती तो वे अपने इतने लंबे कॅरियर में इस तरह का छद्म बयान अवश्य देते।
मुझे याद नहीं पड़ता कि सुशांत सिंह राजपूत की हत्या के बाद उन्होंने एक बिहारी होने के नाते शोक प्रकट किया था या नहीं। बिहार के पूर्वी चंपारन में छोटा सा सुंदर गांव है बेलवा। मनोज यहीं जन्मे थे। आज बेलवा के लोग उनका बयान पढ़कर क्या सोचते होंगे।
उनसे बेहतर बिहारी फ़िल्मी निर्देशक प्रकाश झा थे, जिन्होंने कम से कम सुशांत के मरने पर दुःख प्रकट किया और स्वीकार किया कि फिल्म उद्योग में एक धड़ा ड्रग के इस नेटवर्क में शामिल है। एक अभिनेत्री रकुल प्रीत कौर अपना नाम इस प्रकरण में आने के बाद दिल्ली हाईकोर्ट चली जाती हैं और मीडिया में ख़बरें नहीं चलाने की अपील करती हैं।
हिन्दी फिल्म उद्योग भी क्रिकेट संस्था बीसीसीआई की तरह व्यवहार करने लगा है। उसे अपने इनर सर्कल में सरकार का अतिक्रमण स्वीकार नहीं हो रहा है। बोलने की बात की जाए तो प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी लेने वाले वे एक दर्जन कलाकार आज कहाँ हैं। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का लाभ उठाने की गरज से सेल्फी लेने वाले कलाकार भी मौन हैं।
रणवीर सिंह, वरुण धवन, एकता कपूर, रोहित शेट्टी, शाहरुख़ खान, आमिर खान कहाँ हैं। जैकलीन फर्नांडीज, करण जौहर और कॉमेडियन कपिल शर्मा क्यों मौन हैं। अजय देवगन, अक्षय कुमार राष्ट्रवादी तो शायद मुंबई में हैं ही नहीं। आज देश फिल्म उद्योग के विरुद्ध वैसे ही एकजुट हो गया है, जैसा वह बीसीसीआई के अक्खड़पन के विरुद्ध एकजुट हो गया था। जैसे वह निर्भया आंदोलन में एकजुट हो गया था।
घास का तिनका सिखाता है कि जब अंधड़ आए तो विनम्रता से झुक जाना चाहिए। लेकिन यहाँ हम सदन के पटल पर वह चेहरा देखते हैं, जो बॉलीवुड का प्रतिनिधित्व करता है। वह चेहरा चाहता है बॉलीवुड टूटकर बिखर जाए। कंगना को व्याघ्र माने तो ये भी मान लेना होगा कि समय उनके भी अपराध लिखने वाला है, जो इस समय मौन हैं और जो सदन में बोल रहे हैं, वे बॉलीवुड का भला चाहते ही नहीं
बहुत बढिया लेख
बहुत आभार जितेंद्र जी