अगर किसी राजनीतिक विचारधारा की साक्षात उलटबांसी देखना हो तो समाजवादी पार्टी से बेहतर उदाहरण कोई और नहीं हो सकता। समाजवाद का झंडा थामे लोहिया के ये लोग न केवल समाजवाद के असल मूल्यों और मकसद को बिसरा चुके हैं बल्कि समाजवाद को ऐसा रूप प्रदान कर रहे हैं कि लोग इस विचारधारा को ही हेय दृष्टि से देखने लगें।
समाजवाद जहाँ संसाधनों और सम्पति पर समाज के समान हक़ और वितरण की बात करता है वहीँ नेताजी का समाजवाद इन संसाधनों और सम्पत्ति पर महज एक परिवार का कब्ज़ा चाहता है, समाजवाद जहाँ समाज के हित में सत्ता के विकेंद्रीकरण की वकालत करता है वहीँ मुलायम सिंह का समाजवाद सत्ता को सैफई की सीमाओं में कैद रखने का पक्षधर है। अपने सम्पूर्ण मुख्यमंत्रित्व काल में स्वयं को युवा और आधुनिक सोच के अगुआ के तौर पर प्रचारित करने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी अपनी पार्टी और परिवार की इस उलटबांसी से खुद को दूर नहीं रख पाए। जिसका प्रमाण है प्रदेश में पिछड़े वर्ग की 17 जातियों को दलित दलित वर्ग में शामिल करने के प्रस्ताव को मंजूरी देने का उनका निर्णय।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की घोषणा से महज कुछ दिन पूर्व उठाया गया उनका यह कदम जहाँ एक ओर इस निर्णय के प्रति उनकी गंभीरता की पोल खोलता हैं वहीँ यह भी साबित करता है कि उनके पांच साल के कार्यकाल का लब्बोलुआब सिफ़र है और इसलिए चुनावी वैतरणी पार करने के लिए उन्हें आरक्षण की पतवार का सहारा लेना पड़ रहा है। जहाँ तक उनके इस निर्णय की व्यवहारिकता और इसको अमल में लाने का सवाल यह तो यह लगभग असम्भव से प्रतीत होता है और स्वयं मुख्यमंत्री भी इस बात को भी भली भांति जानते हैं क्योंकि दलित कोटे में नई जातियों का समायोजन वर्तमान आरक्षण के प्रतिशत को बढ़ाये बिना नहीं हो सकता जिसमें संविधान संशोधन सहित तमाम तकनीकी अड़चनें हैं।
अतएव उनका यह आरक्षण कार्ड साफ़ तौर पर उनके असफल कार्यकाल पर पर्दा डालने के लिए और चुनावी मुद्दों को भटकाने के मकसद लिए हुए है । जहाँ वे पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को भी भ्रमित करना चाहते हैं कि उनके कोटे में से 17 जातियों के दलित वर्ग में स्थानांतरित हो जाने से उनके लिए अवसरों में बढ़ोतरी हो जायेगी।
राजनीति की चाल और चेहरा बदलने का दावा करने वाला एक युवा मुख्यमंत्री भी अगर समाज को बांटने की राजनीति करता है तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है हमारी राजनीतिक व्यवस्था के लिए और उत्तर प्रदेश जैसे सूबे के लिए भी जो विकास की तमाम हसरतों के बीच लगातार जातिगत राजनीति का शिकार होता रहा है।