विपुल रेगे। विशाल भारद्वाज की हालिया रिलीज ‘ख़ुफ़िया’ में एक समलैंगिक कैरेक्टर रखा गया है। ‘खुफिया’ के रिव्यूज में इस तथ्य को लेकर किसी समीक्षक ने कोई बात नहीं लिखी। इस पर किसी स्तम्भकार ने कोई विचारोत्तेजक लेख नहीं लिखा। क्रिया की कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। विगत एक दशक में समाज में ये नया बदलाव आया है। ‘समलैंगिकता’ भारतीय समाज के लिए ‘न्यू नॉर्मल’ वाली स्थिति में आ गई है। हिन्दी फिल्म उद्योग और सरकारी नीतियां इस विक्षिप्तता को बढ़ावा दे रही है। ‘ख़ुफ़िया’ की समलैंगिकता पर बुद्धिजीवी वर्ग में चर्चा न होना चिंता वाली बात है।
अब तक समलैंगिकता भारत में पर्दों और कालीनों में दबी रही थी। इन संबंधों को समाज में जाहिर करने के अपराध बोध ने इन्हे सतह पर नहीं आने दिया था। इस समुदाय की कोई अभिव्यक्ति सिनेमाई परदे पर देखने को नहीं मिलती थी। सन 1995 में इरफ़ान खान की ‘अधूरा’ भारत की पहली समलैंगिक फिल्म थी, जो कभी रिलीज नहीं हुई। उस समय का सेंसर बोर्ड समझदार था। उसने रिलीज पर रोक लगा दी। नब्बे के दशक में भारतीय समाज परंपरावादी हुआ करता था। भारतीय सेंसर बोर्ड इन हमलों को अधिक समय नहीं रोक पाया।
सन 2003 से होमोसेक्सुअल फ़िल्में नियमित रुप से रिलीज होने लगी। इन दस वर्षों में पश्चिम से हो रहे इस सांस्कृतिक आक्रमण को रोका जा सकता था। इस दौर में पत्रकारिता चुप रही, इन्फ्लुएंसर्स चुप रहे और अब हम इस घिनौनेपन को नार्मल होते देख पा रहे हैं। फिल्म निर्माता और निर्देशक करण जौहर ने तो इस समस्या को समाज पर थोपने में महती भूमिका निभाई है। सन 2015 में मनोज बाजपेयी की ‘अलीगढ़’ रिलीज हुई थी। मीडिया ने दिल खोलकर इसकी प्रशंसा की थी। 2 जुलाई 1999 को कोलकाता के एक समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ता, पवन ढल ने पंद्रह अन्य लोगों के साथ देश के पहले समलैंगिक अधिकार प्रदर्शन में हिस्सा लिया था।
इन तारीखों को भारतीय समाज को हमेशा याद रखना चाहिए क्योंकि भविष्य में ये तारीखें सोचने पर विवश करेगी कि मजबूत इच्छाशक्ति से इसे रोका जा सकता था। ‘ख़ुफ़िया’ रिलीज हुई तो समीक्षकों ने फिल्म की प्रशंसा की लेकिन ‘समलैंगिक किरदार’ के बारे में कुछ नहीं लिखा और न कहा। केवल बीस वर्ष में हम ऐसे भारत में जीने को विवश है, जहाँ समलैंगिकता अब ‘न्यू नॉर्मल’ बन चुकी है। 2020 समाप्त होते-होते भारत में समलैंगिक विवाह को मान्यता दिए जाने की मांग उठाई जाने लगी। बात न्यायालय तक पहुँच गई।
वर्तमान मोदी सरकार ने एलजीबीटी समुदाय की समस्याओं के निराकरण की बात कही लेकिन समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से इंकार कर दिया। अब भी ये लड़ाई कोर्ट में चल रही है। अभी 18 सितंबर को ही पंजाब के बठिंडा शहर में एक गुरूद्वारे में दो लड़कियों ने रीति-रिवाज के साथ विवाह कर लिया। डिम्पल नाम की लड़की खुद को पति मानती है और मनीषा खुद को उसकी पत्नी मान रही है। भारत में इस तरह की समलैंगिक शादी की न तो क़ानूनी मान्यता है और न ही सामाजिक। इस घटना से समझा जा सकता है कि एलजीबीटी समुदाय अब समाज में स्वछंदता के साथ क्रान्ति कर रहा है।
सिनेमा मनोरंजन का माध्यम होने के साथ एक ज़िम्मेदारी भी वहन करता है। सिनेमा का उत्तरदायित्व है कि समाज की बुराइयों पर रचनात्मक अभिव्यक्ति देकर सरकार और समाज को जगाने का कार्य करे। जब आमिर खान की ‘तारें ज़मीं पर’ प्रदर्शित हुई तो उस समय की शिक्षा व्यवस्था में बड़े परिवर्तन की बातें उठने लगी थी। एक फिल्म अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होती है और किसी भी विषय पर जागरुकता ला सकती है। लेकिन अफ़सोस कि हमारा फिल्म उद्योग समलैंगिकता के पक्ष में फ़िल्में बना रहा है। वह एक भी फिल्म ऐसी नहीं बनाता, जिसमे समलैंगिकता के भयंकर परिणामों पर कहानी पेश की जाए। ऐसी कहानियां हमारे समाज में बिखरी पड़ी हैं लेकिन फिल्म उद्योग जैसे एक ‘मिशन’ पर कार्य कर रहा है।
आजकल न्यू वर्ल्ड आर्डर की बहुत बातें होती है। नई विश्व सरकार का लक्ष्य दुनिया पर नियंत्रण करना है। ऐसा लगता है कि विश्व पर नियंत्रण का स्वप्न देखने वाले इसमें सफल भी हो रहे हैं। आज विश्व के 34 देशों में समलैंगिक विवाह को मान्यता मिल गई है। कहा जाता है कि समलैंगिकता समाजों को कमज़ोर करने वाला हथियार है, जिसे न्यू वर्ल्ड आर्डर वाले फैला रहे हैं। जब समाज में ऐसी विक्षिप्तता को मान्यता दी जाएगी तो इसका सबसे बुरा असर स्त्री-पुरुषों के सामान्य जैविक संबंधों पर पड़ेगा।
कपूर एन्ड सन्स, अलीगढ़, एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, शुभ मंगल ज्यादा सावधान, चंडीगढ़ करे आशिकी, फैशन, बॉम्बे टॉकीज जैसी फिल्मों का बनना और आराम से रिलीज हो जाना बताता है कि समलैंगिकता को मीडिया, फिल्म उद्योग, विचारक, इन्फ्लुएंसर्स आदि ‘न्यू नार्मल’ बना चुके हैं। समाज से आ रही विरोधी आवाज़ों को मीडिया और न्यायालय स्वतंत्रता के अधिकार का हनन मानते हैं। ये विचार करना चाहिए कि एक और दशक बीत जाने के बाद देश के सामान्य लोगों का क्या होगा।
भारतीय संस्कृति में समलैंगिकता को सामान्य बना देने के प्रयास फिल्मों की ओर से किये जा रहे हैं। ये एक निर्विवाद तथ्य है कि भारतीय युवाओं पर फिल्मों का बड़ा गहरा असर देखा जाता है। फैशन से लेकर प्रेम करने तक युवा फिल्मों से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। इन फिल्मों में एक समलैंगिक पात्र को रख देना, अपने आप में बड़ा प्रचार है। बुरी बात ये है कि लगभग आधे युवा ये स्वीकार कर चुके हैं कि भारतीय समाज में समलैंगिकता अब खुली बात है। समाज को लैंगिक रुप से अस्थिर होते देखने की दूरदृष्टि भारत के पास नहीं है। यदि होती तो 2 जुलाई 1999 को कोलकाता में इस विकृति के समर्थन में देश का पहला मार्च कभी नहीं हो सकता था।