नेपाल में राजशाही बहाल करने और देश को फिर से हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग हो रही है। बुटवल, पोखरा और जनकपुर से लेकर काठमांडू तक लोग सड़क पर उतर आए हैं। नेपाल में राजशाही खत्म हुए 15 साल हो चुके हैं और अब इसको बहाल करने की मांग क्यों हो रही है? नेपाल और भारत के संबंधों के लिहाज से इसका कोई खास मतलब बनता है या नहीं? जानेंगे चंद्रभूषण जी से जो वरिष्ठ पत्रकार हैं।
चंद्रभूषण जी, नेपाल में इलेक्टेड असेंबली ने 2008 में राजशाही खत्म करने का निर्णय किया था और अब 2023 में इसकी बहाली के लिए प्रदर्शन होने लगे हैं। ऐसा क्यों होने लगा है?
जिस समय नेपाल में राजशाही का उन्मूलन हुआ था और गणतंत्र की स्थापना हुई थी, उस समय भी ऐसा कहा जा रहा था, इसकी एक आशंका जताई जा रही थी।ये राजशाही इतनी जड़ तक जमी हुई है नेपाल के अंदर, खुद मैंने 1990-91 में वहां देखा है कि किस तरह राजा को भीष्म का अवतार मानते हुए सिर्फ प्रधानमंत्री को ही सारी गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार ठहराने का वहां चलता था। जो सुना हुआ पंचायती प्रथा का जो प्रधानमंत्री वहां हुआ करता था, उसी को सारे लोग जिम्मेदार ठहरा रहे थे। जिस समय वहां बड़ा लोकतांत्रिक आन्दोलन वहां पहला चला हुआ था उस समय भी। तो पूरी तरह से जड़ से राजशाही समाप्त हो रही है, वह एक व्यक्ति ज्ञानेंद्र राजा हटाए जा रहे हैं। ये एक किस्म की दुविधा लोगों के अंदर थी। लोकतंत्र की सफलता पर, इसकी उपलब्धियां पर निर्भर करता है कि राजशाही को किस हद तक चुनौती दी जा पा रही है या वह धारणा जो लोगों के अंदर बनी हुई है। धारणाएं तो बहुत समय तक बनी रहती हैं। तो एक तरह से इसको कहा जा सकता है कि यह नेपाली लोकतंत्र की एक किस्म की कसौटी भी है कि वह अपने आपको जनता के लिए कितना सिद्ध करता है। ये जो प्रदर्शन हो रहे हैं, ये राजशाही के वापसी के संकेत हैं। इसको इस रूप में अभी नहीं देखता। ये इतने प्रबल, इतने ताकतवर अभी नहीं हैं लेकिन, हां जिस तरह आपने अभी बताया है कि कई जिलों में बड़े प्रदर्शन हुए हैं। लेकिन इसे मैं अभी इस रूप में नहीं देखता कि किसी बहुत गंभीर लोकतंत्र विरोधी आंधी वहां उठ खड़ी हुई है।
जी आपने कहा कि लोकतंत्र किस तरह डिलिवरी करता है, उसके सामने ये एक कसौटी रहती है। सिटिजन कैंपेन को-ऑर्डिनेटर हैं दुर्गा परसाई। इस कैंपेन के तहत लोग प्रदर्शन कर रहे हैं वहां पर। उनका कहना है, राजशाही खत्म होने के बाद जितनी भी सरकारें बनी हैं, नेपाल का विकास करने के वादे पर खरी नहीं उतरी है। इसलिए राजशाही बहाल की जानी चाहिए। नेपाल में 2008 के बाद बार-बार सरकारें बदली हैं। दस से ज्यादा बार सरकार बदल चुकी है वहां पर। कभी कोई आता है, कभी कोई। अभी पुष्प कमल दहल प्रधानमंत्री हैं। राजनीतिक अस्थिरता का भी मोहभंग के पीछे वजह हो सकती है?
इसमें कोई शक नहीं। राजनीतिक अस्थिरता एक बहुत बड़ा मुद्दा है नेपाल के लिए और बार-बार लोग इसकी चेतावनी भी दे रहे हैं नेपाल के राजनेताओं को कि आप इतना हल्के में चीजों को मत लीजिए। किस तरह से हर छह महीने में, सालभर में सरकारें बदली रही हैं, प्रधानमंत्री बदलते रहे हैं, यह उचित नहीं है। इसका निश्चित रूप से एक बहुत बड़ा योगदान है। इसके अलावा आप कह सकते हैं कि जमीनी तौर पर उद्योग धंधे खड़े होना या फिर कोई ऐसा डेवलपमेंट मॉडल होना जिससे लोगों को काम मिल सके। बहुत सारे लोगों को अपने विकास के रास्ते खुलते नजर आ सकें। वह अभी नहीं है। और इन सारी चीजों से लोगों में बार-बार असंतोष देखा जा रहा है। लेकिन दूसरी तरफ यह भी है कि बहुत सारे काउंटर ड्वेलिंग फोर्सेस जो वहां हैं, जो कि इसके पहले सोच भी नहीं सकते थे कि नेपाल में उनकी कोई शक्ल दिखाई भी देगी। जैसे नेपाल में बुद्ध बौद्धधर्म का एक चेहरा आज दिखाई दे रहा है। बहुत सारी जनजातियां, बहुत सारे अल्पसंख्यक समुदाय, कोई शक्ल वहां नहीं बनती थी, उनके आज राजनीतिक दल हैं, उनके आज नेता हैं, उनकी आज पहचान है। जमीन पर लोकतंत्र की जो मथानी चलती हैं, जो बहुत तरह की शक्तियां निकलकर आती हैं। तो वो प्रक्रिया तो वहां चल रही हैं। बहुत सारी चीज़ें उदास करने वाली हैं तो बहुत सारी चीज़ें उत्साह बढ़ाने वाली हैं जो ज्यादा करीब से दिखती हैं, बहुत दूर से अभी नहीं दिखती हैं।
जी, ये भी कहा जा रहा है कि नेपाल में चीन का जो प्रभाव बढ़ रहा है, उसके विरोध में ये राजशाही समर्थक एकजुट हुए हैं। क्या यह भी एक फैक्टर हो सकता है?
देखिए, नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ने की जो बात है, कोई सीधी रेखा में यह प्रभाव नहीं बढ़ रहा है। शुरू मुझे भी लगता था कि लगातार उसकी ताकत बढ़ रही है लेकिन अब समझ में आ रहा है कि ये प्रभाव ऊपर-नीचे हो रहा है। ऐसा नहीं है कि लगातार चीन का प्रभाव बढ़ रहा है। दूसरी चीज ये है कि नेपाल का जो उत्तरी हिस्सा है जहां ज्यादा जनजातीय हिस्सा है क्योंकि वो लोग बिलकुल ही जी तिब्बत से सटा हिस्सा है। जो तिब्बत की सीमा से 50-60 किलोमीटर है। टोटल मान लीजिए 150 किलोमीटर की ही तो चौड़ाई वाला देश हुआ। उत्तर से दक्षिण उसमें 50 किलोमीटर का जो हिस्सा चीन का तिब्बत के करीब है। उन लोगों को लगता है कि चीन से हमारा रिश्ता खुले तो हमारा ज्यादा सामान तिब्बत जाएगा। हमारे रोजी-रोजगार के रास्ते साफ़ होंगे। तो एक हिस्सा तो ऐसा है जो चाहता है कि तिब्बत से उनका ज्यादा सीमा खुले और चीन से नेपाल की ज्यादा नजदीकी मिले। ऐसा एक हिस्सा जमीनी तौर पर चाहता है। कुछेक राजनेता भी हैं जिनको कि आप शुद्ध अवसरवाद कह सकते हैं। जैसा कि ओली का मामला है। एक बार तो ऐसा लगा कि काठमांडू से चीन तक रेलवे लाइन बनवाकर ही रहेंगे। फिर तुरंत चीन के राजदूत ने कुछ स्टैंड पर लेना शुरू किया कि नहीं, वहां की नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी की एकता नहीं टूटनी चाहिए। जिसमें उनको लगा कि उनका प्रधानमंत्री पद जा सकता है। तो उन्होंने अचानक उल्टा स्टैंड लिया और भारत में आकर एकदम से भारत की बांसुरी बजाने लगे।
तो इसको आप एक अवसरवादी नेता के ही उछल-कूद कह सकते हैं। तो चीन का प्रभाव एकनिष्ठ रूप से बढ़ रहा हो, सो तो बात नहीं है लेकिन भारत का कुछ समय तक जो दखल था कुछ समय तक, खासकर हिंदुत्व की राजनीति का जो दखल था, जो विश्व हिंदू परिषद के जो अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे लंबे समय तक नेपाल के राजा, वे सारी स्थितियां अब हट चुकी हैं। तो विशुद्ध हिंदुत्व की राजनीति करने वाली जो शक्तियां रही हैं नेपाल के अंदर उनके लिए यह बहुत बड़ा इश्यू हो जाता है जैसे चीन से कुछ नजदीकी बनती है। वो इस चीज को मुद्दा बनाते हैं और मामला काफी गरम हो जाता है। लेकिन नेपाल के जो राजनेता हैं, धीरे-धीरे उनको बात समझ में आ रही है कि एक पलड़े में जाकर बैठ जाना या चीन के या भारत के, इसमें उनका फायदा नहीं है। कोई बैलेंस बनाकर चलना, थोड़ा इधर, थोड़ा उधर। यही आम मुहावरा नेपाल की राजनीति का हो सकता है। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बन रही है। कुछ भूमिका इसकी जरूर हो सकती है लेकिन चीन बहुत निर्णायक फैक्टर नेपाल की राजनीति में मुझे लगता है कि अभी नहीं है।
जी, आपने बहुत विस्तार से बताया कि जो लोकतंत्र है नेपाल का, उसके सामने कई चुनौतियां हैं। और वहां के नेताओं को ध्यान देना होगा कि बार-बार राजनीतिक अस्थिरता पैदा न हो। आपने ये भी कहा कि वहां जो प्रदर्शन हो रहे हैं उसमें इतना दम नहीं है कि वो राजा ज्ञानेन्द्र को सेंट्रल फिगर बना सकें और बीच में ला सकें। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका जानकारी देने के लिए।
ट्रांसक्राइब : नीलिमा दास