विपुल रेगे। इलेक्ट्रानिक मीडिया के ‘बंदर नाच’ से आखिरकार न्यायालय भी तंग आ गया। खुद को स्वयंभू न्यायधीश मानने वाले ये चैनल लोगों की प्रतिष्ठा का हनन करने के अपराधी हैं। इन पर सरकार का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं बचा है। अब ये चैनल ‘ज़ोम्बियों’ जैसे उन्मुक्त व्यवहार करने लगे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन से कठोर प्रश्न किये हैं। हर शाम देश के नागरिकों का मानसिक स्वास्थ्य खराब करने वाले इन न्यूज़ चैनलों पर कुठाराघात आवश्यक हो गया है लेकिन सरकार की कमज़ोर इच्छाशक्ति के चलते ये कार्य कुछ मुश्किल लगता है।
भारत में ‘स्व नियामक तंत्र’ यानी सेल्फ रेगुलेटरी कतई एक मज़ाक है। ये बात हमें न्यूज़ चैनलों पर चलती ख़बरों को देख पता चल ही जाती है। इन दिनों समाचार चैनलों का ‘असली फ़ूड’ ज़मीनी ख़बरें न होकर शाम की ज़हरीली बहसें रह गई है। हर बड़ा चैनल शाम होते ही एक के बाद एक बहसों पर आधारित लाइव शो दिखाता है। इनमे एक तो पब्लिक ओपिनियन वाली बहस होती है, जो सड़कों पर की जाती है और दूसरी स्टूडियो में होती है। स्टूडियो में अब राजनीतिक दल चैनलों में भेजने के लिए बद्तमीज़ से बद्तमीज़ प्रवक्ता का चयन करते हैं। एक प्रवक्ता पार्टी द्वारा घोषित होता है और दूसरा राजनीतिक विश्लेषक का चोला पहनकर आता है। हालाँकि ये भी एक पार्टी की भाषा ही बोलता है और मुख्य प्रवक्ता को बेक सपोर्ट देता है।
अब तो एक सब्जीवाला भी जान लेता है कि कौनसा चैनल किस राजनीतिक पार्टी की भाषा बोल रहा है। भाजपा के प्रभाव वाले चैनलों में न्यूज़ एंकर रणनीति के ज़रिये विरोधी पार्टी के प्रवक्ता को अधिक रगड़ते हैं। ऐसा ही कांग्रेस समर्थित चैनल में भाजपा के प्रवक्ता के साथ किया जाता है। इन बहसों में बोले जाने वाली भाषा असहनीय हो चली है। इन बहसों में लोकप्रिय व्यक्तित्वों पर लांछन लगाया जाता है। चैनलों की इन्ही हरकतों के चलते कई अच्छे चरित्र के लोगों का हनन हो चुका है। जनता को भी अब इन बहसों में कोई रस प्राप्त नहीं हो रहा है क्योंकि अधिकांश न्यूज़ चैनल सरकार का यशोगान करते हैं लेकिन सवाल नहीं करते।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने लापरवाह न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन पर जो प्रहार किये हैं, न्यायोचित लगते हैं। न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन को आड़े हाथों लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘चैनलों के स्व-नियामक तंत्र को प्रभावी बनाना जरूरी है। जब आप लोगों की प्रतिष्ठा में हस्तक्षेप करते हैं, तो ये अपराध का अनुमान है।’ सुप्रीम कोर्ट ने जिस स्व-नियामक तंत्र यानी सेल्फ रेगुलेटरी की बात की है, उसकी दशा सच में बहुत खराब है। CJI डी वाई चंद्रचूड़ ने सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के समय की गई रिपोर्टिंग का उदाहरण देते हुए कहा कि आप लोगों ने जाँच पहले ही शुरु कर दी। वास्तव में न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन और सूचना व प्रसारण मंत्रालय का इन ज़ॉम्बी चैनलों पर कोई नियंत्रण नहीं है और वे नियंत्रण करना चाहते भी नहीं है।
आज तक फेक न्यूज़ को लेकर कोई कानून नहीं बनाया गया क्योंकि फेक न्यूज़ सभी राजनीतिक दलों का एक ‘छद्म हथियार’ है और वे इसे कभी खोना नहीं चाहेंगे। फेक न्यूज़ का विष जनता को पीना पड़ रहा है। गलत जानकारियों के कारण जनता में मत भिन्नता की स्थिति बन रही है। न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन को सुप्रीम कोर्ट पहले ही ‘दंतहीन’ कह चुका है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी कहा था कि NBA वैधानिक निकाय नहीं है। हालाँकि NBA पहले ही कह चुका है कि उसके द्वारा निर्मित आचार संहिता को सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा ‘केबल टेलीविज़न नेटवर्क नियम, 1994’ के ‘प्रोग्राम कोड के नियम- 6’ में सम्मिलित कर इसे वैधानिक मान्यता दी जानी चाहिये, जिससे ये संहिता सभी समाचार चैनलों के लिये बाध्यकारी बन सके।
इस मामले में केंद्र सरकार ने पहले ही कोर्ट को ये कह दिया है कि वह ‘फेक न्यूज़ या हेट स्पीच’ पर अंकुश लगाने के लिये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को विनियमित करने हेतु किसी भी कवायद को शुरू न करें, क्योंकि इससे निपटने के लिये पर्याप्त नियम और दिशा-निर्देश पहले से ही मौजूद हैं। जिन न्यूज़ चैनलों के कारण समाज में वातावरण खराब हो रहा है, उन्हें लेकर केंद्र का रवैया कितना नरम है, ये उसके इस कथन से ही सिद्ध हो जाता है। कोर्ट में NBA अपनी गलती स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखता। अब सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट प्रश्न कर रहा है कि वर्तमान सेल्फ रेगुलेटरी को सरकार कैसे और सशक्त बनाएगी।
अब वह समय आ गया है कि खुद सरकार और अदालत बनते जा रहे न्यूज़ चैनलों को नियंत्रण में लाया जाए। यदि ऐसा नहीं होता है तो आने वाले दिनों में हम लोग शाम के समय टीवी को ऑफ रखना पसंद करेंगे। इन विष वमन करती बहसों से भारत तंग आ गया है। किसी स्वतंत्रता दिवस पर हमें इन मीडियाई बिलौटों से मुक्ति मिल सके, तो वह दिन भारतीय इतिहास का एक चमकदार दिन होगा। राजनीतिक दल और सरकार चुप रहेंगे क्योंकि मीडिया उनका प्रमुख टूल है। न्यायालय सवाल कर रहा है लेकिन उनके वकील गलती नहीं मानते। बीच में फंसे हैं हम लोग। सरकार कब समझेगी कि समाचार चैनलों की इस ‘पैरेलल सत्ता’ की लगाई आग भारतमाता के आँचल को झुलसाने लगी है।
1994’ के ‘प्रोग्राम कोड के नियम- 6’
केबल सेवा में कोई भी कार्यक्रम नहीं चलाया जाना चाहिए जो
(ए) अच्छे स्वाद या शालीनता के खिलाफ अपमान।
(बी) में मित्र देशों की आलोचना शामिल है।
(सी) इसमें धर्मों या समुदायों पर हमला या धार्मिक समूहों के प्रति अपमानजनक दृश्य या शब्द शामिल हैं या जो सांप्रदायिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देते हैं।
(डी) इसमें कुछ भी अश्लील, अपमानजनक, जानबूझकर, गलत और विचारोत्तेजक संकेत और आधा सच शामिल है।
(ई) हिंसा को प्रोत्साहित करने या भड़काने की संभावना है या इसमें कानून और व्यवस्था के रखरखाव के खिलाफ कुछ भी शामिल है या जो राष्ट्र-विरोधी दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है।
(एफ) इसमें न्यायालय की अवमानना जैसी कोई बात शामिल है।
(छ) इसमें राष्ट्रपति और न्यायपालिका की सत्यनिष्ठा के विरुद्ध आक्षेप शामिल हैं।
(ज) राष्ट्र की अखंडता को प्रभावित करने वाली कोई भी बात शामिल है।
(i) व्यक्तिगत रूप से किसी व्यक्ति या देश के कुछ समूहों, सामाजिक, सार्वजनिक और नैतिक जीवन के क्षेत्रों की आलोचना, बदनामी या बदनामी करता है।
(जे) अंधविश्वास या अंध विश्वास को प्रोत्साहित करता है।
(के) किसी महिला की छवि, उसके रूप या शरीर या उसके किसी भी हिस्से को किसी भी तरीके से चित्रित करके महिलाओं को बदनाम करता है, जिससे महिलाओं के लिए अशोभनीय, या अपमानजनक होने का प्रभाव हो, या भ्रष्ट होने की संभावना हो, सार्वजनिक नैतिकता या सदाचार को भ्रष्ट या क्षति पहुँचाना।
(एल) बच्चों को बदनाम करता है।
(एम) में ऐसे दृश्य या शब्द शामिल हैं जो कुछ जातीय, भाषाई और क्षेत्रीय समूहों के चित्रण में निंदात्मक, व्यंग्यात्मक और दंभपूर्ण रवैया दर्शाते हैं।