डॉ रजनी रमण झा । नासदीयसूक्त (ऋग्वेद, मण्डल – १०, सूक्त – १२९)
(५)
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामध: स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त् ।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयति: पुरस्तात् ।।
अर्थ – (अविद्या, काम एवं मनोरेत) इनकी रश्मि तिरछी होकर फैली थी। क्या वह नीचे थी ? अथवा ऊपर थी ?
इन कारणों से उत्पन्न होनेवाले भाव पदार्थों में से कुछ बीज रूप कर्म को धारण करनेवाले जीव थे और कुछ महान् अर्थात् आकाश आदि के रूप में थे। इन सम्पूर्ण उत्पन्न जागतिक पदार्थों में भोग्य अवर श्रेणी का तथा भोक्ता उत्कृष्ट श्रेणी का माना गया।