अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार से नवाज़े गये अभिजीत बेनर्जी की जीत का जश्न जहा एक तरफ पूरा देश मना रहा है, वहीं दूसरी तरफ इनके विचारों को लेकर कई ऐसी बातें सामने आ रही हैं जो आपको अति बौद्धिकतावाद और समाज के प्रति गैरज़िम्मेदाराना रवैये के भयानक कांकटेल के दोषों के प्रति सचेत भी करेंगी.
अभिजीत बेनर्जी ने 2012 में भारत के जाने माने अंग्रेज़ी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स में बलात्कार की समस्या से संबंधित एक व्याख्यान लिखा था. इस व्याख्यान में उन्होने बलात्कार का विश्लेषण एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से करते हुए यह कहा था कि बलात्कार की दिन ब दिन बढ़्ती घटनाओं का सीधा संबंध समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं से है. इन आर्थिक विषमताओं के चलते गरीब परिवारों से आई नवयुवकों की बहुत सी ऐसी ज़रूरतें और ख्वाहिशें पूरी नहीं हो पातीं जिनकी उन्हे उम्र के एक मकाम पर पहुंचने के बाद स्वाभाविक रूप से चाह होती है. ऐसे में जब वो भारत के शहरों के दिन ब दिन उंन्मुक्त होते मिडिल क्लास के युवा वर्ग को देखते हैं और प्रेमियों को आपस में घूमते फिरते और नज़दीक आते देखते हैं तो उनका सारा सेक्शुअल रिप्रेशन आक्रोश बन कर धीरे धीरे बाहर आने लगता है और यही आक्रोश महिलायों के साथ हुए बलात्कार का कारण बनता है.
अति बौद्धिकतवाद के झोंके में किया बलात्कार से जुड़े तथ्यों को नज़रंदाज़
अभिजीत बनर्जी के इस विश्लेषण से बहुत सी बातें पता चलती हैं, समाज के बारे में नहीं बल्कि उनके खुद के बारे में. पहली बात तो उन्हे भारत के बारे में और महिलाओं के खिलाफ यहां होने वाले अपराधों की पृष्ठ्भूमि के बारे में वास्तविक तौर पर कुछ भी नहीं मालूम है. वे अधिकतर समय विदेश में रहते हैं और मात्र कोरे किताबी ज्ञान की बिनाह पर अति बौद्धिकतावाद से ओत प्रोत होकर इस तरीके की बातें लिख रहे हैं. अगर तथ्यों की ओर नज़र डालें तो बलात्कार जैसे अपराध का संबंध केवल गरीब लोगों से है या फिर सिर्फ गरीब या वंचित लोग ही बलात्कार करते हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है. आंकड़ों के मुताबिक अधिकतर बलात्कारों के मुकदमों में आरोपी महिला या बच्ची की जान पहचान के दायरे में होता है. इसके अलावा बलात्कार के आरोपी संभ्रान्त वर्ग से लेकर मिडिल क्लास तक से भी ताल्लुक रखते हैं. तो ऐसा कहना कि सारे बलात्कारी गरीब परिवारों से आते हैं उनकी गरीबी का अपमान है, उसका मज़ाक बनाना है और तथाकथित पढ़े लिखे लोगों के मन में सर्वहारा वर्ग के प्रति और अधिक संदेह पैदा करना है.
पूरे लेख में महिलाओं का और उनके दृषटिकोण का कहीं ज़िक्र नहीं
दूसरा , उनके इस लेख से और उसकी भाषा में महिलाओं की तौहीन साफ नज़र आती है. पूरे लेख में पुरुषों की कामुक अभिव्यक्ति को तरजीह दी गयी है और किस प्रकास से मूलभूत सुविधाओं के अभाव में इस अभिव्यक्ति की आज़ादी का दमन हो रहा है. पूरे लेख में महिलाओं का, उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का या फिर उनके दृष्टिकोण का कहीं भी ज़िक्र तक नहीं है. लेख की शुरुआत ही कुछ इस प्रकार से होती हैं, ‘ जब मैं पहली बार कामुक ईष्या की आग में जला था, तो मैं मात्र 14 साल का अबोध बालक था. और ये आग तब भड़्की थी जब मैंने उस लड्की को झुकते हुए अपने बांयफ्रेंड की आइस्क्रीम का बाइट लेते हुए देखा, जिस लड़्की पर मेरा दिल आया हुआ था. मुझे अब ये तो याद नहीं है कि वो कैसी दिखती थी लेकिन उन दोनों के करीब होने का ये चित्र अभी भी मेरे ज़ेहन पर अंकित है’. और फिर आगे अभिजीत इसी प्रकास से इस लेख को आगे बढ़ाते हैं कि कैसे इस वक्तव्य ने उन्हे बलात्कार को लेकर ममता बनर्जी द्वारा दिये गये तथाकथित आपत्तिजनक वक्तव्य के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया. ममता बनर्जी ने अपने 2012 में दिये गये वक्तव्य में समाज में बढ्ते बलात्कार की घटनाओं के लिये लड्के और लड़्कियों के बढ़्ते खुलेपन और आज़ादी को दोषी ठहराया था. अभिजीत इसी तर्क को आगे ले जाते हैं कि मिडिल क्लास के लड़्के लड़्कियों के इस खुले आचरण के चलते सर्वहारा वर्ग के पुरूषों की दबी हुई कामुकता धीरे धीरे विस्फोटित होती है और बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य का रूप धारण कर लेती है. अब आप स्वयं देख सकते हैं कि इस पूरे क्रम में कहीं भी महिलाओं का ज़िक्र नहीं है. जैसे कि महिलायें एक वस्तु मात्र हैं पुरूषों की यौन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु. लड़्के को गर्ल्फ्रेंड का सुख नहीं नसीब हो रहा, वह एक छोटे से घर में रहता है जहां उसके पास जगह ही नहीं है अपनी गर्लफ्रेंड के साथ समय बिताने की. और फिर इस पूरे तर्क को अभिजीत बनर्जी गरीबों के लिये ‘लो इंकम हांउसिग ‘ की ज़रूरत से जोड-कर उसे अर्थशास्त्र की ओर ले जाने की कोशिश करते हैं. तो आप देख सकते हैं कि किस तरह अति बौद्धिकतावाद में मदांध होकर न सिर्फ अभिजीत जी महिलाओं को उपभोग जी वस्तु के रूप में चित्रित कर रहे हैं कि अगर उपभोग के लिये गर्ल्फ्रेंड आसानी से नहीं मिली तो पुरूष अपराध करेगा ही बल्कि उस तर्क को किसी भी तरह से जबरन अपनी अर्थशास्त्र संबंधी नीतियों से जोड़्ने का प्रयास कर रहे हैं.
क्या बुद्धिजीवी होने से इंसान सामाजिक दायित्वों के दायरे से हो जाता है बाहर ?
इस सब से अब बात किसी भी बुद्धिजीवी के सामाजिक दायित्व की आ जाती है. क्या बुद्धिजीवी होने का अर्थ यह है कि आप् बिना सोचे विचारे, बिना विवेक का प्रयोग किये, जो आपके मन में आये , मीडिया के लिये लिख डालें? आप के पास नाम है, शोहरत है, इसीलिये निश्चित तौर पर ही मीडिया आपकी कही बात छापेगा ही. लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि अतिबौद्धिकतवाद के झोंके में आकर आप कुछ भी अजीबो गरीब दलीलें देकर सामाजिक सरोकारों से बिल्कुल मुंह फेर लें? आपने ऐसा लेख लिखने से पहले शायद ऐसा बिल्कुल भी नहीं सोचा कि ये लेख पढ़्के पहले से ही पितृसत्ता के नशे में मदांध कितने ही भारतीय पुरुष आपकी बेतुकी बातों को पढ़्कर न सिर्फ महिलाओं का मज़ाक उड़ायेंगे बल्कि उन्हे और भी ज़्यादा अपनी ख्वाहिश पूरी करने की वस्तु के रूप में देखेंगे. और जिन गरीब युवकों की आप बात कर रहे हैं, उन तक तो आपकी बात वैसे भी नहीं पहुंचने वाली क्योंकि वो कोई अंग्रेज़ी का अखबार तो पढ्ते नहीं हैं.
अगर कोई कम पढ़ा लिखा या अकादमिक भाषा का ज्ञान न रखने वाला व्यक्ति किसी गम्भीर मसले पर कोई हल्की या बेतुकी बात करे तो उसे आपत्तिजनक करार दे दिया जाता है. जैसा कि बिल्कुल होना भी चाहिये. लेकिन आखिर क्यों बौद्धिकतवाद और सांफिस्टिकेटेड तर्क वितर्कों की आड़ में कोई कुछ भी कह सकता है और उस पर उंगली तक नहीं उठाई जाती? ये वही एजेडा है जो गरीबों का हितैषी बन कर बड़ी बड़ी बातें फैलाता है लेकिन उन गरीबों को वास्तविकता में देखते ही अपनी नाक भौं सिकोड़ लेता है. ये वहीं एजेंडा है जो मिडिल क्लास को गरीबों के शत्रुओं के रूप में चित्रित करता है और एन जी ओज़ का मकड-जाल साम्राज्य भुनाकर एक अरसे से गरीबी दूर करने के नाम पर अपनी जेबें भरता आया है और जिसने गरीबों और शोषितों का इस्तेमाल हमेशा महज़ एक ‘सब्जेक्ट ‘ के रूप में किया है. और यही एजेंडा और इससे जुड़े लोग मीडिया को अपनी दुकान चलाने का भरपूर सामान दिन रात सप्लाई करते रहते हैं.
पूरे विश्व के नारीवादी आंदोलन ने महिलाओं के सशक्तिकरण के लिये क्या क्या पापड़ नहीं बेले. वोटिंग अधिकार से लेकर अपने शरीर पर अधिकार के हक महिलाओं ने अपने लिये लड़्कर हासिल किये. और आज ऐसे समय में जब भारत के युवक युवती बरसों से बुनी गयी पितृसत्ता की ज़ंजीरों से बाहर निकल एक दूसरे के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की, एक दूसरे को जानने समझने की कोशिश कर रहे हैं, तो आप अपनी विकृत सोच का प्रयोग कर इस सकरात्मक परिवर्तन को सेक्शुअल रिप्रेशन और बलात्कार से ज़बर्दस्ती जोड़ रहे हैं? अभिजीत बेनर्जी को नोबल पुरस्कार मिला, इसके लिये उन्हे हमारी तरफ से भी बहुत बहुत बधाई. लेकिन अब आशा करते हैं कि उन्हे ये एहसास हो जाए कि बौद्धिकतावाद के मद में आके ऊल जलूल और आपत्तिजनक बातें लिखना कभी कभी उलटा भी पढ़ जाता है.