फिल्म रिव्यू: लाल कप्तान
बक्सर की लड़ाई के दौरान जब सभी राजा अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई की योजना बना रहे होते हैं, तब उनमे से एक राजा का बेटा रहमत ख़ान अंग्रेज़ों के हाथों बिक जाता है। नतीजा सभी सेनानियों की फांसी के रूप में सामने आता है। रहमत ख़ान के छोटे भाई को भी फांसी दी जाती है लेकिन वह एक नागा साधु की तरकीब से बच जाता है। एक मुस्लिम बादशाह का चौदह वर्षीय बेटा नागाओं की संगत में एक साधु बन जाता है। नया जीवन मिलने के बाद बादशाह का बेटे को नागा ‘गोसाई’ नाम देते हैं।
निर्देशक नवदीप सिंह की डार्क फिल्म ‘लाल कप्तान’ एक पीरियड ड्रामा है। इस रिवेंज ड्रामा का बैकड्रॉप अठारहवीं सदी में अंग्रेज़ों के जूतों तले कुचला जा रहा भारत है। एक निर्दयी राजा है और उसके खिलाफ एक नागा साधु खड़ा है। रहमत खान मराठों से धोखा कर उनका खज़ाना लूट कर निकल जाता है। रहमत खान अंग्रेज़ों से मिल गया है और उससे कुछ दुरी पर गोसाई लगातार उसके पीछे है। इस फ़िल्म के बारे में तुरंत कोई भी राय बना लेना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी। इस तरह के डार्क नेचर का सिनेमा देखने का रिवाज़ अभी यहाँ शुरू नहीं हुआ है। मैं ये नहीं कहता कि ये फिल्म बेहतरीन है लेकिन ये भी नहीं कहूंगा कि पूरी तरह बकवास है।
मेरे विचार में ये साल की सबसे स्टाइलिश फिल्म है लेकिन बहुत सारी गलतियों से भी भरी हुई है। पीरियड फिल्म बनाते समय तथ्यों का ध्यान न रखा जाए तो ड्रामा बनावटी लगने लगता है। इसकी सबसे दिलचस्प बात है ‘कैरेक्टराइजेशन’। निर्देशक नवदीप सिंह ने अपने किरदारों को अच्छे से संजोया है। ‘गोसाई’ का कैरेक्टर देखिये, कितनी लेयर्स दिखाई देती है। वह किरदार आखिर तक रहस्य्मयी बना रहता है। रहमत खान की बीवी माँ नहीं बन सकती। वह दूसरी औरतों के साथ सम्बन्ध बनाकर दो बेटे पैदा करता है। इनमे से एक की गर्दन वह खुद कलम कर देता है। एक वेश्या का गाल इसलिए चीर देता है क्योंकि वह उसका बदसूरत चेहरा देखकर आँखें मूंद लेती है।
ज़ोया हुसैन का किरदार बड़ा दिलचस्प है। वह रहमत खान के बच्चे को जन्म दे चुकी है और उसका काम गोसाई को बहलाकर रहमत खान के पास लाना है। वह कब किसके साथ दगा करेगी, कहना मुश्किल है। एक ऐसा जासूस है जो हवा में सूंघकर अपने शिकार का पता लगाता है। अपने दो पालतू कुत्तों के साथ रहते रहते वह भी एक ‘कुत्ता’ ही हो गया है। इस फिल्म के सारे कैरेक्टर ही इसकी एकमात्र यूएसपी है।
निर्देशक इसे बहुत अच्छी बना सकते थे लेकिन कुछ गंभीर गलतियां उन पर हावी हो जाती है। जैसे मराठों को कमज़ोर और हास्यापद दिखाया गया है। ऐसा करने से आपकी पीरियड फिल्म की विश्वसनीयता भंग होती है। दृश्यों में जरूरत से ज्यादा अंधकार दर्शक में खीज पैदा करता है। निर्देशक बहुत अधिक सांकेतिक हो जाते हैं, जबकि ऐसे कथानक में उन्हें मुखर होना चाहिए।
निःसंदेह सैफ अली खान गोसाई के किरदार में बेजोड़ दिखाई दिए हैं। एक वे ही हैं, जिनके कारण इस फिल्म को अंत तक देखने का मन करता है। रहमत खान के रूप में मानव विज बहुत प्रभावित करते हैं। दीपक डाबरियाल और ज़ोया हुसैन भी किरदार के मुताबिक रहे हैं। इतने अच्छे परफॉर्मेंस के बाद भी दर्शक को फिल्म अधिक प्रभावित नहीं करती, सिवाय क्लाइमैक्स के। निर्देशक एक अच्छे विषय के साथ आए थे लेकिन मुखर न हो पाना सबसे बड़ी गलती साबित हुई।
आर्ट डायरेक्शन और आउटडोर लोकेशंस के लिए मैं निर्देशक को पुरे नंबर देता हूँ क्योंकि इस डिपार्टमेंट में वे वाकई ऐसा प्रभाव पैदा कर देते हैं कि आप खुद को अठारहवीं सदी के उस दौर में खड़े पाते हैं। इसके लिए बैकग्राउंड स्कोर बनाने वाले भी बधाई के हकदार हैं। जैसे गोसाई घायलावस्था में उसकी सेवा करने वाली विधवा महिला को सोने की मोहरें देता है। मोहरें हाथ में नहीं दी जाती, बल्कि द्वार की चौखट पर रख दी जाती है। इस फिल्म का समग्र प्रभाव मिलाजुला है। ये कुछ हिस्सों में बहुत अच्छी प्रतीत होती है तो कुछ हिस्सों में बहुत बुरी लगती है। निर्देशक ने एक अड़ियल घोड़ा चुन लिया, जिसकी सवारी वे बेहतरीन ढंग से नहीं कर सके। इस फिल्म को ‘ए’ प्रमाणपत्र दिया गया है इसलिए सपरिवार देखने का तो सवाल ही नहीं उठता। यदि आप खुद को अठारहवीं सदी में होने की अनुभूति चाहते हैं तो ये फिल्म टुकड़ों में आपकी इच्छा पूरी कर सकती है। ‘लाल कप्तान’ में पीरियड बेहतर है और ड्रामा कमज़ोर।