श्वेता पुरोहित। श्रीशुक उवाच
भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लिमल्लिका: ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रित: ॥
रासपञ्चाध्यायी
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में २९ से ३३वे अध्याय तक भगवान की रासलीला का प्रसंग है। इसी को रास पंचाध्यायी कहते हैं। इस रास पंचाध्यायी में श्रीमद्भागवत वर्णति तत्त्वों के सारभूत परम तत्त्व का परमउज्ज्वल प्रकाश है। ये पाँच अध्याय वस्तुतः श्रीमद्भागवत के पंचप्राण-स्वरूप है।
भगवान की दिव्य लीला का भाव न समझकर केवल बाह्य दृष्टी से देखने पर यह सारी कथा श्रृंगार- रसपूर्ण दिखायी दे सकती है और इससे मनुष्य भ्रम ग्रस्त हो सकता है। इसी से सम्भवतः श्रीशुकदेवजी ने उपयुक्त प्रथम श्लोक में प्रथम शब्द ‘भगवान’ दिया है, जिससे पढ़ने वाला इसे भगवान की लीला समझकर ही पढ़े। वस्तुतः यह लौकिक काम-प्रसंग कदापि नहीं है।
इसके श्रोता हैं विवेक वैराग्य सम्पन्न, मुमुक्षु, धर्मज्ञानपूर्ण, मरण की प्रतीक्षा करने वाले महाराज परीक्षति और वक्ता है ब्रह्माविद्वरिष्ठ परम योगी जीवन्मुक्त सर्वऋषिमुनि मान्य श्रीशुकदेवजी। ऐसे वक्ता श्रोता लौकिक श्रृंगार की बातें कहें सुनें, यह सोचना ही भूल है।
वस्तुतः इन पाँच अध्यायों में भगवान श्रीकृष्ण की परम दिव्य अन्तरंग लीला का, निजस्वरूपभूता, महाभावरूपा ह्लादिनीशक्ति श्रीराधाजी तथा उन्हीं का कायव्यूहरूपा दिव्य कृष्णप्रेममयी गोपांगनाओं
के साथ होने वाली भगवान की रसमयी लीला का वर्णन है। ‘रास’ शब्द का मूल ‘रस’ है और ‘रस’ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। ‘रसो वै सः’
जिस दिव्य क्रीडा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में होकर अनन्त-अनन्त रस का समास्वादन करे, एक रस ही रस-समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद-आस्वादक, लीला, धाम और विभिन्न आलम्बन एंव उद्दीपन के रूप में क्रीडा करे-उसका नाम ‘रास’ है। अतएव यह रासलीला भी लीलामय भगवान का ही स्वरूप है। भगवान की यह दिव्य लीला भगवान के दिव्य धाम में दिव्यरूप से निरन्तर हुआ करती है।
(साभार श्री राधामाधव चिन्तन से)
क्रमशः