श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दासजी की मुख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरित पर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
बारह महीने माता के गर्भ मे निवास करने के बाद गोस्वामीजी प्रकट हुए। पण्डित आत्माराम जी के यहाँ बड़े उल्लास के साथ पुत्र जन्मोत्सव मनाया जाने लगा।
पुरे गांव के नर नारी पंडीतजी को बधाई देने आये। इधर ये सबका समुचित स्वागत-सत्कार करने में अत्यंत व्यस्त हो रहे थे। आनंदमय चहल-पहल मची हुई थी। इसी बीच घरसे एक दासी निकली और आत्मारामजी के समीप आकर कहने लगी – पंडितजी ! आपके घर मे बुलाहट हो रही है। आपके यहाँ अद्भुत बालकने जन्म लिया है। पहले तो वह जन्म के समय किंचित् भी रोया नही, दूसरे जन्म लेतें ही उसने ‘राम’ नाम का उच्चारण किया, तीसरे मुख मे बत्तीसों दांत अभी से जमे है, चौथे वह नवजात शिशु अभी ही पांच साल के बालक सरीखा लग रहा है, पांचवे महरी (नालोच्छेदन करनेवाली) कहती थी कि जब मैं नालोच्छेदन कर रही थी तो उस समय शंख-ध्वनि सुनाई पडी थी, जिसे सुनकर प्रसूतिगृह में एकत्रित सभी स्त्रियाँ डर के मारे भाग गईं।
सब कह रही थी कि पंडितजी के घर में किसी राक्षस ने जन्म लिया है। सचमुच पंडितजी! मै बूढी हो गई, परंतु ऐसा बालक आज तक मैने कभी नहीं देखा। लोग लुगाइयों की जितने मुख उतनी बातें सुनकर देवी हुलसी दुखी हो रही है। आप घर में चलकर उन्हें धैर्य बंधावै। पंडित आत्माराम तत्काल भीतर गये तो दासी का सब कथन सत्य पाया।
उनका मुख म्लान हो गया। आँखें सजल हो गईं, मन में विचार करने लगे कि लगता है कि यह मेरे किसी पुर्वकृत पाप का परिणाम है जो ऐसा बालक जन्मा है। इस प्रकार चिंता करते हुए आत्मारामजी बाहर आये। पुत्र जन्म सुनकर उनके सभी बंधु-बांधव, इष्ट-मित्र, पंडित-विद्वान आये थे, इन्होंने जब उन लोगोंसे नवजात शिशु के संबंध में विचार-विमर्श किया तो सब लोगों ने यही कहा कि ऐसे विलक्षणजन्मा प्राणी प्रायः जीवित नहीं रहते है।
अतः आप भी कम से कम तीन दिन तक देखें, यदि बालक जीवित रहता है, तब तो उसके सभी लौकिक वैदिक संस्कार किये जायें। अन्यथा कोई आवश्यकता नहीं है।
इधर तीन दिन बीतने पर दशमी की आधी रात को माता हुलसी की स्थिति चिंताजनक हो गई, उन्होंने अपनी प्रिय दासी चुनियाँ को पास बुलाकर कहा, ‘सखी ! अब तो मेरे प्राण-पखेंरू उडना चाहते है । अतः तुम मेरे शिशु को लेकर अभी ही अपनी ससुराल हरिपुर चली जाओ।
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर
जय श्री तुलसीदासजी
क्रमशः… (भाग – ५)