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India Speaks Daily > Blog > समाचार > देश-विदेश > क्या भारत को मिले राफेल की अतिरिक्त तकनीक को दुश्मन देश के लिए सार्वजनिक कराना चाहते हैं राहुल गांधी?
देश-विदेश

क्या भारत को मिले राफेल की अतिरिक्त तकनीक को दुश्मन देश के लिए सार्वजनिक कराना चाहते हैं राहुल गांधी?

Courtesy Desk
Last updated: 2018/02/14 at 9:11 AM
By Courtesy Desk 1.4k Views 9 Min Read
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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पिछले कुछ दिनों से राफेल लड़ाकू विमान सौदे को लेकर जिस तरह मोदी सरकार पर हमलावर हैं वह यही दर्शाता है कि उन्हें और उनके सलाहकारों को न तो रक्षा सौदों के बारे में कुछ पता है और न ही सामरिक मसलों के बारे में। राहुल गांधी और उनके साथियों का मोदी सरकार पर पहला हमला राफेल विमान सौदे की ‘असली’ कीमत को सार्वजनिक करने से इन्कार करने को लेकर किया गया। यह अचंभित करने वाला हमला है, क्योंकि ऐसा कभी नहीं होता। इसलिए नहीं होता, क्योंकि असली कीमत से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि राफेल के बेसिक मॉडल में क्या-क्या अतिरिक्त तकनीक और अन्य उपकरण लगे हैं।

इससे यह भी जाहिर हो जाएगा कि समझौते में विमान के अलावा कितने और कैसे हथियारों का प्रावधान है। कुछ लोगों के लिए यह बयानबाजी का मुद्दा हो सकता है, परंतु दूसरे देशों के रणनीतिकार इसमें से क्या-क्या निष्कर्ष निकालेंगे, इसका शायद राफेल सौदे को लेकर सोशल मीडिया पर शोर मचाने और ज्ञान देने वाले लोगों को अंदाजा भी नहीं है। रक्षा सौदे का विवरण उजागर होने से देश की सुरक्षा और युद्ध-नीति खोखली हो सकती है। नि:संदेह ऐसा भी नहीं है कि मोदी सरकार ने राफेल विमान सौदे का कोई भी विवरण संसद को नहीं दिया है। आठ नवंबर 2016 को सरकार ने संसद में प्रति विमान की बेसिक कीमत 670 करोड़ रुपये बताई थी। जाहिर है कि इसमें विमान में अतिरिक्त तकनीक अथवा कितने हथियार शामिल हैं, इसकी कीमत नहीं है।

भारत का राफेल को ज्यादा पैसे देना है राहुल का आरोप

राहुल और उनके साथियों का दूसरा आरोप है कि भारत राफेल को ज्यादा पैसा दे रहा है, पर अगर इस लड़ाकू विमान के अन्य सौदे देखें तो भारत द्वारा किया गया सौदा प्रधानमंत्री मोदी के इस दावे को सिद्ध करता है कि भारत को खासी छूट मिली है। उदाहरण के तौर पर कतर ने 24 राफेल विमान 6.3 बिलियन यूरो में खरीदे। इसका मतलब है कि प्रति विमान की कीमत 262 मिलियन यूरो थी। इसमें प्रशिक्षण और लॉजिस्टिक का विस्तृत पैकेज था, लेकिन कोई ऑफसेट प्रावधान नहीं था। मिस्न ने भी 24 राफेल विमान खरीदे हैं जिनकी कुल कीमत 5.2 बिलियन यूरो है, लेकिन इसमें बेसिक विमान के अलावा अन्य प्रावधान अधिक नहीं हैं।

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इसके विपरीत भारत ने 36 राफेल 7.8 बिलियन यूरो में खरीदे हैं जो 216 मिलियन यूरो प्रति विमान पड़ते हैं। इसमें हथियारों का विस्तृत पैकेज भी शामिल है। विमान की तकनीक उन्नत है और उसमें कई परिवर्तन भी किए गए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस के तहत 50 फीसद ऑफसेट का भी प्रावधान है। यानी फ्रेंच कंपनी दासौ इस समझौते के मूल्य का 50 प्रतिशत भारत में किसी भारतीय कंपनी के साथ मिल करके पुन: निवेश करेगी या फिर भारतीय उत्पाद खरीदेगी। इसके लिए दासौ ने रिलायंस डिफेंस को चुना है।
आखिर रिलांयस को ही क्यों चुना

राहुल गांधी तीसरा सवाल यह भी उठा रहे हैं कि आखिर रिलांयस को ही क्यों चुना गया और उसके बजाय पब्लिक सेक्टर की किसी कंपनी जैसे एचएएल आदि को क्यों नहीं चुना गया? यहां यह याद रखना आवश्यक है कि दासौ किसको चुने, यह भारत सरकार तय नहीं सकती थी। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दासौ या फिर फ्रांस सरकार कोई भी सौदा केवल आपकी ही शर्तों पर नहीं करेगी और वह भी तब जब आप एक तरह से मजबूरी में उनसे विमान खरीदने जा रहे हों। यह भारत की एक तरह से मजबूरी ही थी कि उसे लड़ाकू विमान जल्द से जल्द चाहिए थे। यह भी समझने की जरूरत है कि फ्रांस ने शायद रिलायंस को इसलिए चुना, क्योंकि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस ने नौसेना के क्षेत्र में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है।

अमेरिकी नौसेना के 100 युद्ध पोतों की मरम्मत और उनके रखरखाव का अनुबंध रिलायंस डिफेंस के पास है। इसका मतलब है कि उसे अनुभव भी है। कोशिश में रही कि दासौ ऑफसेट के लिए भारत की किसी सरकारी कंपनी को चुने, लेकिन फ्रांस की सरकार ने उसे नकार दिया। यह जानने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि भारत की सरकारी कंपनियों के साथ दुनिया की बड़ी हथियार निर्माता काम करने को तैयार नहीं हैं। 2011 में विकिलीक्स ख़ुलासे में भारत में रहे अमेरिकी राजदूत ने एचएएल के बारे में लिखा था कि यह कंपनी पश्चिमी उत्पादन मानकों से करीब 30-40 वर्ष पीछे है। उनका यह भी मानना था कि खराब गुणवत्ता और कम उत्पादन को छिपाने के लिए सरकारी अधिकारी झूठ बोलते हैं और धोखाधड़ी तक का सहारा लेते हैं। इस सबके बावजूद यह ध्यान रहे कि 50 प्रतिशत ऑफसेट का एक हिस्सा सरकारी कंपनी डीआरडीओ को जा रहा है।

इतने महंगे सौदे की क्या जरूरत थी?

राफेल सौदे को लेकर चौथा सवाल यह उठाया जा रहा है कि यह सौदा महंगा है और इतने महंगे सौदे की क्या जरूरत थी? इसी सिलसिले में यह भी कहा जा रहा है कि आरंभ में तो 126 राफेल विमानों की कीमत 8.5 बिलियन यूरो ही थी। सच यह है कि इस कीमत को विशेषज्ञों ने उसी समय हास्यास्पद बताया था। इस बारे में यहां तक कहा गया था कि क्या आप ऐसी कार खरीद रहे हैं जिसमें सिर्फ पहिये और स्टीयरिंग व्हील भर लगा हो?
जब 2013 में राफेल को खरीदारी के लिए चुना गया तो कीमत 12.57 बिलियन यूरो हो गई और जनवरी 2014 में यह 300 प्रतिशत बढ़कर 25.5 बिलियन यूरो हो गई। यह कांग्रेस के समय हुआ न कि मोदी सरकार के दौरान। मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद खटाई में पड़े इस सौदे को बचाते हुए भारत के लिए यथासंभव अच्छा सौदा किया, क्योंकि कांग्रेस की सरकार ने नए लड़ाकू- विमान खरीदने में एक दशक से ज्यादा का वक्त लगा दिया और फिर भी उसे अंतिम रूप नहीं दे सकी। यह सब इसके बावजूद हुआ कि लड़ाकू विमानों के अभाव में भारतीय वायुसेना की युद्धक क्षमता लगातार कमजोर पड़ती जा रही थी।

मोदी सरकार ने राफेल के बजाय यूरो-फाइटर को क्यों नहीं चुना

पांचवां प्रश्न यह पूछा जा रहा है कि मोदी सरकार ने राफेल के बजाय यूरो-फाइटर को क्यों नहीं चुना, जिसे वायुसेना ने दूसरी वरीयता में रखा था? इसके अनेक कारण हैं। जहां राफेल के लिए सिर्फ फ्रांस के साथ सौदेबाजी करनी थी वहीं यूरो फाइटर के लिए अनेक देशों से बात करके सौदे को अंतिम रूप दिया जाना संभव होता। इसके अलावा राफेल की परमाणु हमले में भी मुख्य भूमिका होगी, जो अभी तक दासौ के ही मिराज-2000 में है। जर्मनी, इटली जैसे देश यूरो फाइटर में परमाणु हथियार लगाने का विरोध करते हैं। राफेल का परमाणु हमले में काम आना भी सौदे की गोपनीयता का एक बड़ा कारण है।

बेहतर हो कि राहुल इससे अवगत हों कि 2013 में संप्रग के समय भारत सरकार ने हथियार खरीद के नए नियम लागू किए थे। इसके तहत राफेल सरीखे दो सरकारों के बीच होने वाले सौदे में कैबिनेट की मंज़ूरी जरूरी नहीं हैं। ये यह भी अनुमति देते हैं कि दूसरी वरीयता वाले विकल्प को संज्ञान में लेना जरूरी नहीं। इस सबके बाद भी कांग्रेसी नेताओं का उतावलापन समझ से परे है। वे न केवल मोदी सरकार पर, बल्कि फ्रांस सरकार पर भी बेतुके आरोप लगा रहे हैं। यह और कुछ नहीं संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के लिए एक विश्वसनीय और सामरिक क्षेत्र में सहयोगी देश के साथ संबंध दांव पर लगाना है।

राफेल पर राहुल का गैर जरूरी सवाल, इससे देश की सुरक्षा और युद्ध-नीति पर पड़ेगा असर

साभार: जागरण.कॉम

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Courtesy Desk February 14, 2018
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