विपुल रेगे। भारत सरकार के सूचना व प्रसारण मंत्रालय और सेंसर बोर्ड के कार्यालय पर शायद ताला लगा दिया गया है। कथित रुप से हिन्दू राष्ट्र बनने जा रहे भारत में ‘एनिमल’ और ‘थैंक्यू फॉर कमिंग’ का रिलीज हो पाना इसका संकेत है कि ये दो विभाग या तो बंद कर दिए गए हैं या समाज को अत्याधुनिक और हिंसक बनाने की सोच हमारी सरकार के मानस में प्रवेश कर गई है। भारत के नौ साल के दौर में सवाल पूछने का रिवाज समाप्त कर दिया गया है। पत्रकार पूछे तो नौकरी जाती है और सांसद पूछे तो सदन से निलंबन हो जाता है। सरकार को प्रश्न पसंद नहीं है। ‘थैंक्यू फॉर कमिंग’ की मुख्य किरदार ऐसे शारीरिक संबंध बनाती है, जैसे वह कपड़े बदल रही हो।
ऐसा इस देश में बहुत कम हुआ है कि फिल्मों को लेकर बवाल मच रहा हो और सरकार अमृतकाल का अमृत पीने में व्यस्त हो। संदीप रेड्डी वांगा की ‘एनिमल’ की गूँज संसद तक में सुनाई दे गई लेकिन सरकार ने अपने सिले हुए होंठ नहीं खोले। मोदी सरकार एक ‘वन वे’ है। इसका व्यवहार एकांगी है। आप इस सरकार से किसी भी विषय में सवाल नहीं कर सकते। हमें सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का वह ‘खुला’ कार्यकाल भूलता ही नहीं जब, नंगी फ़िल्में बनाने वाली एकता कपूर को पद्मश्री पुरस्कार दिया गया।
एकता कपूर को लगा कि समाज में नंगापन परोसने के लिए उन्हें सरकार ने सम्मानित किया है। इससे प्रोत्साहित होकर उन्होंने अपनी नंगई वाली फिल्मों का डोज और बढ़ा दिया। ‘थैंक्यू फॉर कमिंग’ एकता कपूर के प्रोडक्शन की ही फिल्म है। शायद सरकार से पुरस्कार प्राप्त एकता कपूर की फिल्मों को सेंसर बोर्ड वाले बिना देखे रिलीज कर देते हैं। हिंदुत्व के नशे में झूमता समाज पिछले दरवाजे से आ रही तबाही देख ही नहीं पा रहा। वैसे सरकार अपनी सही लाइन पर चल रही है। अवैध संबंधों पर सज़ा देने वाली धारा 497 को भारतीय न्याय (द्वितीय) संहिता विधेयक, 2023 से बाहर कर दिया गया है, तो ‘थैंक्यू फॉर कमिंग’ जैसी फिल्मों में सेंसर बोर्ड को भी कुछ गलत नहीं लगता। यहाँ तक कि ‘सोलह सोमवार’ नामक पवित्र संबोधन को सेक्स से जोड़ा जाना भी बोर्ड को ठीक ही लगा।
मज़े की बात है कि भारत में फिल्मकारों को जितनी स्वतंत्रता है, उतनी ही पाबंदिया पत्रकारों पर है। रिपोर्टर्स विथआउट बॉर्डर्स द्वारा प्रकाशित वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 180 देशों की लिस्ट में 161वें स्थान पर पहुँच गया है। पिछले वर्ष भारत 150वें स्थान पर था, यानि एक वर्ष में 11 पायदान की गिरावट दर्ज की गयी है। भारत में फिल्मकारों की स्थिति पत्रकारों से बहुत बेहतर है। इतनी बेहतर है कि फिल्मकार हद पार कर खून खराबा और सेक्स दिखा पा रहे हैं। विगत दस वर्ष में फिल्मों पर इस सरकार ने कोई कानून नहीं बनाया। कानून बनाने की बात ये सरकार करती रही लेकिन ज़मीन पर कुछ नहीं दिखा। पत्रकारिता पर कानून बनाने की ज़रूरत ही नहीं रह गई, क्योंकि पत्रकारिता जगत सरकार के सामने नतमस्तक हो गया। जो नहीं झुके, उन्हें तोड़ दिया गया।
भारतीय नारी को इस गिरे हुए रुप में पेश करने पर न तो समाज और न मीडिया की ओर से मजबूत आवाज़ उठाई जा रही है। विपक्षी दलों को ऐसा नहीं लगता कि फिल्मों में स्वच्छता के कानून को लेकर उन्हें सड़क पर उतरना चाहिए। विपक्षी दलों को इस मांग में कोई पॉलिटिकल पोटेंशियल दिखाई नहीं देता। जैसे प्रदूषण जैसे मुद्दे को लेकर वे कभी किसी चुनाव में नहीं उतरते । सभी प्रकार के प्रदूषणों से सारे राजनीतिक दल प्रेम करते हैं। इस सरकार का पिछले नौ वर्ष का परफॉर्मेंस देखे तो ऐसा नहीं लगता कि ऐसी फिल्मों पर रोक लगाने या कानून बनाने का इस सरकार का कोई इरादा है। सरकार के मद में झूमी जा रही जनता समाज में फ़ैल रहे कैंसर को ऐसे ही देख रही है, जैसे वह प्रदूषण और यातायात जैसे मुद्दों को देखती है। यही कारण है कि सरकार भी इस दिशा में कुछ ठोस करना नहीं चाहती। जनता और सरकार के सहयोग से उभर आया ये ‘वेक्यूम’ कैसे भरेगा, राम जाने।