शंकर शरण। हिन्दू जागृति का राजनीतिक लाभ लेने में संघ-परिवार ‘नेता’ बनता है – पर लड़ने के अवसरों पर कहता है कि ‘मंदिरों के पुजारी क्या कर रहे हैं?’ अपने लिए संघ-भाजपा एक ही लड़ाई जानते हैं, चुनावी। इस के सिवा हर लड़ाई से अबोध या भगोड़े। शाब्दिक लड़ाई से भी बचते बल्कि इस्लामियों, मिशनरियों के प्रति उदारता छलकाते! वह भी मात्र सांकेतिक नहीं – वरन उन्हें ठोस धन, संसाधन, जमीन, मकान, प्रतिष्ठा, और पुरस्कार देते हुए। यह सब हिन्दू हितों के प्रति कितना बड़ा विश्वासघात है, इस का उन में अधिकांश को बोध भी नहीं है। संघ-परिवार में कई तरह के लोग हैं।
बहुतेरे उस में हिन्दू भाव और चिंता से ही जुड़ते रहे हैं। लेकिन जैसे-जैसे नेतृत्व में ऊपर जाएं, हिन्दू चेतना घटती मिलती है। यह तथ्य दशकों पहले सीताराम गोयल जैसे मनीषी ने नोट किया था। वही स्थिति आज भी है। कूनराड एल्स्ट के शब्दों में, संघ हिन्दू भावनाओं को राजनीतिक व्यर्थता में बदल देता है।(‘transforms a mass of pro-Hindu dedication into political uselessness) कूनराड दशकों से भारत, विशेषकर हिन्दुओं की हित-चिन्ता में लिखते, बोलते रहे हैं। उन की दृष्टि में संघ अच्छे सामाजिक काम करता है। किन्तु एक स्वार्थ भाव इसे व्यर्थ कर देता है। हिन्दू-हितों पर न डटना छिपाने की आड़ समाज-सेवा को बनाता है।
बुनियादी हित छूटते जाते हैं, जिस की परवाह नहीं करता। उलटे हिन्दू समाज को ही दोष देता है – मानो नेतृत्वहीन समाज अपनी लड़ाई लड़े! केवल हिन्दू जागृति का राजनीतिक लाभ लेने में संघ-परिवार ‘नेता’ बनता है – पर लड़ने के अवसरों पर कहता है कि ‘मंदिरों के पुजारी क्या कर रहे हैं?’ अपने लिए संघ-भाजपा एक ही लड़ाई जानते हैं, चुनावी। इस के सिवा हर लड़ाई से अबोध या भगोड़े। शाब्दिक लड़ाई से भी बचते। बल्कि इस्लामियों, मिशनरियों के प्रति उदारता छलकाते! वह भी मात्र सांकेतिक नहीं – वरन उन्हें ठोस धन, संसाधन, जमीन, मकान, प्रतिष्ठा, और पुरस्कार देते हुए।
यह सब हिन्दू हितों के प्रति कितना बड़ा विश्वासघात है, इस का उन में अधिकांश को बोध भी नहीं। ऐन मौकों पर विफलता के लिए संघ समर्थक दूसरों को, प्रायः हिन्दू धार्मिक संस्थाओं को दोष देते हैं। यह भी नहीं देखते कि उन धार्मिक संस्थाओं की बेबसी के पीछे भी यहाँ हिन्दू-हितों के लिए लड़ने वाली कोई राजनीतिक पार्टी न होना ही है। संघ-परिवार ने अपने को ‘राष्ट्रवादी’ कह कर हिन्दू हितों की औपचारिक जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रखा है। संकेतों में कभी गोरक्षा, तो कभी राम-मंदिर, आदि उठाना मुख्यतः दलीय मंशा से रहा है। यानी अपने दल के लिए हिन्दू समाज का वोट-समर्थन लेना। न कि उस के हितों से लिए डटना।
यह बुनियादी अंतर है। तब हिन्दू धर्म संस्थाएं किस के भरोसे बोलें? बंगलादेश में इस्कॉन मंदिर पर हमले पर संघ-भाजपा शासक चुप रहे, कुछ करना तो दूर। यही कश्मीर में हुआ, जहाँ 1990 से लगातार मंदिर तोड़े जाते रहे। भाजपा तब भी केंद्रीय सत्ता में परोक्ष हिस्सेदार थी! इसीलिए हिन्दू-हित के ठोस मुद्दे उठाने के बजाए संघ-भाजपा यदा कदा सतही, तमाशाई चीजें खड़ी करते हैं। जिन का चुनावी दोहन हो जाए, और असल लड़ाई न लड़नी पड़े।
भाजपा नेताओं ने माना भी है कि उन के लिए राम-मंदिर जैसे मुद्दे चुनावी उपयोग से जुड़े थे। वरना गत दशकों में जितनी शक्ति, संसाधन, समर्थन संघ-परिवार ने जुटाए, उस में हिन्दू-हित के कई काम सरलता से संभव थे। हिन्दू-विरोधी काम रोकना भी। किन्तु उस में संघ-परिवार का रिकॉर्ड शून्य, बल्कि हिन्दू-विरोधी रहा है।
1977-78 में राष्ट्रीय संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्यूलर’ शब्द जोड़े रखना, ‘अल्पसंख्यक आयोग’ बनवाना, राष्ट्रीय शिक्षा में हिन्दू-द्वेष फैलते जाना, आदि। प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ने जनसंघ नेता बलराज मधोक को उत्तर दिया था कि यदि मंत्रिमंडल में जनसंघ के लोग विरोध करते तो वह आयोग न बनता। उसी तरह ‘मंडल कमीशन’ बनना, और बाद में उस की हिन्दू-विरोधी रिपोर्ट स्वीकार करना, दोनों में जनसंध-भाजपा शामिल थे। ये सभी काम मर्मांतक रूप से हिन्दू-घाती साबित हुए।
इस्लामी, मिशनरी, वामपंथी ताकतों को उन से अपूर्व बल मिला। हिन्दू लोग दूसरे दर्जे के नागरिक बना डाले गए। वह सब काम न केवल संघ-भाजपा की निष्क्रियता, बल्कि समर्थन से हुए! वे तटस्थ भी नहीं रहे – यह नोट करें। लेश-मात्र हिन्दू चेतना रखने वाले भी ऐसा कदापि न करते। लोकतंत्री राजनीति में नापसंद काम टालने, रोकने के सौ तरीके होते हैं। वे तरीके भाजपा नेता बखूबी जानते हैं। किन्तु उस का उपयोग निजी या दलीय स्वार्थ में करते हैं। हिन्दू-हित उन के मानसिक रडार पर ही नहीं रहा हैं!
इसीलिए दशकों तक ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का विरोध भी उन का चुनावी पैंतरा भर था। वह तुष्टिकरण रोकने की चाह उन में कभी न थी। वरना वह तभी रोका जा सकता था। पर कहाँ है तुष्टिकरण की किसी भी नीति के विरुद्ध संघ-भाजपा का कोई आंदोलन? या, संसद में कोई विधेयक? खोज कर देखिए। उन्हें उस से सरोकार नहीं था। उस पर कभी-कभार मामूली बयानबाजियाँ केवल हिन्दू आक्रोश को अपनी ओर वोट-समर्थन में घुमाने भर की तरकीब थी।
यही कारण है कि, आज संघ-भाजपा नेता जमकर वही तुष्टीकरण कर रहे हैं। बढ़-बढ़ कर। खुल कर कहते हुए कि ‘कांग्रेस ने मुसलमानों का केवल इस्तेमाल किया, जबकि हम उन्हें मनुष्य समझते हैं।’ यानी कांग्रेस उन को ठगती थी, पर भाजपा माल-मत्ता दे रही है। यह कोई नई स्थिति नहीं, बल्कि दशकों पुरानी मानसिकता है। कूनराड की अनूठी पुस्तक ‘भारतीय जनता पार्टी विज-अ-वी हिन्दू रिसर्जेंस’ (1997) में संघ-परिवार की पूरी स्थिति का राई-रत्ती विश्लेषण है। जिसे पढ़ आज भी कोई परख सकता है। संघ-परिवार द्वारा ‘हिन्दू हितों’ के बदले ‘राष्ट्रवाद’ की बातें करते रहना उसी दोमुँहेपन की आड़ है।
हिन्दू हितों पर चुप्पी रखकर मुसलमानों को विशेष सुविधाएं एवं अधिकार देकर लुभाने की कवायद। यह क्रमशः हुआ। डॉ। हेगडेवार के अवसान के बाद से ही। संघ द्वारा अपनी पार्टी भारतीय जनसंघ बना लेने के बाद संघ-परिवार ने धीरे-धीरे सभी कांग्रेसी नीतियाँ, विचार, जुमले तक अपना लिये। हिन्दू महासभा की विरासत से कन्नी कटाकर नेहरूवादी विरासत में हिस्सेदारी लेने की जुगत की। पहले ही आम चुनाव (1957) में ही भाग लेते समय जनसंघ ने दावा किया कि वे कांग्रेस की ‘सेक्यूलर’, ‘समाजवादी’ नीतियों को ही ‘ईमानदारी’ से पूरा करेंगे। यानी, नीतियों में नहीं, केवल कांग्रेस और जनसंघ की ईमानदारी का अंतर रह गया!
चूँकि यह खुल कर कहा गया, इसलिए क्रमशः वैसे संघी नेता भी किनारे होते गए, जो हिन्दू हितों की चेतना रखते थे। बलराज मधोक के बदले नेहरू-प्रेमी एवं वामपंथियों के जाने-माने दोस्त अटल बिहारी वाजपेई की बढ़त उसी का फल थी। भोले-भाले संघ-कार्यकर्ताओं समर्थकों को यह सब ‘चतुराई’ कह कर बेचा गया। वे आज तक वैसी ही चतुराइयों के भुलावे में रखे जाते हैं। यह ठीक गाँधीजी वाली नाटकीय, पर घातक शैली है। जिस में हिन्दू हितों के प्रति हर घात को कोई ‘रणनीति’ समझ अनुयायी लोग चुपचाप पी लिया करते थे।
जिन से अंततः लाखों हिन्दू औचक मारे गए। उन्हें नोटिस तक देने की जरूरत गाँधीजी ने नहीं समझी थी। आज संघ-भाजपा द्वारा बढ़-चढ़ कर गाँधी-प्रचार करना क्या उसी दिशा का संकेत है? गाँधीजी ने जो विश्वासघात सिंध, पंजाब, कश्मीर, और बंगाल के हिन्दुओं को दिया था, वही संघ परिवार ने बचे-खुचे कश्मीर और बंगाल के हजारों हिन्दुओं को दिया है। भुक्तभोगी आम कश्मीरी, बंगाली हिन्दुओं से पूछ कर देखिए। सैकड़ों मील दूर से, सुरक्षित रह कर, उन्हीं को अपशब्द कहना जले पर नमक छिड़कना है। ऐसे लोगों को हिन्दू-रक्षक समझना जीती मक्खी निगलने समान है।