- केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पिछले सप्ताह राज्यसभा में अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के संदर्भ में बताया कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले अनुसूचित जाति के लोगों को नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
इस मुद्दे पर Sandeep Deo का Video
- ऐसे लोग अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट से संसदीय या विधानसभा चुनाव भी नहीं लड़ सकते हैं।
- हालांकि, जो हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म अपनाते हैं उन्हें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने और आरक्षण के अन्य लाभ मिलेंगे।
- गुरुवार (11 फरवरी 2021) को राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सदस्य जीवीएल नरसिम्हा राव ने कानून मंत्री से दूसरे धर्मों को लेकर सवाल किया था.
- इसपर प्रसाद ने कहा कि जिन लोगों ने हिंदू, सिंख और बौद्ध धर्म अपनाया है, वे अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीट से चुनाव लड़ सकते हैं. साथ ही इन धर्मों में शामिल होने वालों को आरक्षण का लाभ भी मिलेगा. इसके अलावा उन्होंने आरक्षित संवैधानिक क्षेत्रों से चुनाव लड़ने के मापदंडों को लेकर भी बात की.
- कानून मंत्री ने संविधान (अनुसूचित जाति) के पैरा 3 का हवाला दिया है. उन्होंने कहा कि इसके तहत कोई भी व्यक्ति जो हिंदू, सिख या बौद्ध के अलावा किसी धर्म का दावा करता है, तो उसे अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा. साथ ही उन्होंने यह साफ किया है कि प्रतिनिधित्व कानून में कोई भी संशोधन को लेकर प्रस्ताव नहीं लाया गया था.
- 2015 में अदालत ने कहा था कि व्यक्ति एक बार हिंदू धर्म छोड़कर ईसाई बन जाता है, तो ऐसे में उसे कोई सुरक्षा देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अब वो अनुसूचित जाति से संबंध नहीं रखता है.
- प्रसाद ने यह साफ कर दिया है कि इस्लाम और ईसाई धर्म चुनने वाले दलितों और हिंदू बनने वाले दलितों में फर्क स्पष्ट है.
इतिहास के आईने में जातिगत आरक्षण
- वर्ष 1882 में नौकरियों में आरक्षण देने की शुरुआत हुई थी। तब ज्योतिबा फुले ने हंटर आयोग को ज्ञापन देकर मांग की थी कि सरकारी नौकरियों में कमजोर वर्गो को संख्या के अनुपात में आरक्षण मिले।
- वर्ष 1937 में दलित समाज के लोगों को भी केंद्रीय कानून के दायरे में लाया गया। इसी समय अनुसूचित जाति शब्द युग्म पहली बार सृजित कर प्रयोग में लाया गया।
- वर्ष 1942 में भीमराव आंबेडकर ने नौकरी और शिक्षा में दलितों को आरक्षण की मांग की, जिसे फिरंगी हुकूमत ने मान लिया।
- आजादी के बाद वर्ष 1950 में अनुसूचित जाति और जनजाति के उत्थान, कल्याण एवं उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए साढ़े सात और 15 फीसद आरक्षण का प्रविधान एक दशक के लिए किया गया था।
- एक दशक बाद इस आरक्षण को खत्म करने के बजाय इसे अब तक जीवनदान दिया जाता रहा है। फलत: पिछड़ी जातियां भी आरक्षण की मांग करने लग गईं। परिणामस्वरूप 1953 में पिछड़ी जातियों की पहचान के लिए आयोग का गठन किया गया।
- वर्ष 1978 में मंडल आयोग ने पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसद आरक्षण की मांग की।
- वर्ष 1990 में अपनी कुर्सी बचाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने इस आरक्षण को मंजूरी दे दी।
- इसके बाद वर्ष 1995 में संविधान में 77वां संशोधन कर पदोन्नति में भी आरक्षण का प्रविधान किया गया।
- बिहार के मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर ने अपने कार्यकाल में नवंबर 1978 में बिहार के गरीब सवर्णो के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी।
- साथ ही कर्पूरी ठाकुर ने महिलाओं के लिए तीन प्रतिशत और पिछड़े वर्गो के लिए भी 20 प्रतिशत के आरक्षण का प्रविधान कर दिया था। इस आरक्षण में सभी जाति की महिलाएं शामिल थीं।
- लेकिन जब लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने 1990 में जातिगत भेदभाव बरतते हुए गरीब सवर्ण महिलाओं को मिलने वाले तीन प्रतिशत आरक्षण को खत्म कर दिया था।
- नीतीश कुमार ने इस फैसले का विरोध किया था, लेकिन नतीजा शून्य रहा।
- इसी तरह मायावती जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं, तब उन्होंने भी गरीब सवर्णो को आरक्षण देने का शिगूफा छोड़ा था।
- साल 2019 की पहली कैबिनेट बैठक में बड़ा फैसला लेते हुए मोदी सरकार आर्थिक रूप से फिछड़े ऊंची जाति यानी सवर्णों को सरकार ने आरक्षण देने का ऐलान किया. मोदी कैबिनेट ने 10 फीसदी आरक्षण को मंजूरी दी.