श्वेता पुरोहित। जिन्होंने अपने को सब प्रका रसे प्रियतम परमात्मा के चरणों में अर्पण कर दिया है, उनकी अपार महिमा है। ऐसे ही लोग यथार्थ संत हैं और ऐसे ही शान्त, दान्त, भगवत्परायण लोगों को सुख पहुँचाने के लिये शान्त, शुद्ध, सच्चिदानन्दघन भगवान् को अनेक अवतार धारणकर विविध लीलाएँ करनी पड़ती हैं। ऐसा कोई भी कार्य नहीं है, जो भगवान् अपने प्यारे भक्तोंके लिये नहीं कर सकते। भक्तों को विपत्ति से मुक्त करने के लिये, भक्तों के अनोखे भावों की पूर्ति के लिये, भक्तों की महत्ता को बढ़ाने के लिये और भक्तोंके मनोरंजन के लिये भगवान् नीच-से-नीच कार्य करने में भी कोई संकोच नहीं करते। संत सखूबाई की प्रेम-भक्ति के वश होकर भगवान्ने जो कुछ किया उसे पढ़-सुनकर तो हृदय भगवत्-प्रेम में विभोर हो जाता है।
महाराष्ट्र में कृष्णा नदी के तीरपर कर्हाड नामक एक स्थान है। वहाँ एक ब्राह्मण रहता था, उसके घर में कुल चार प्राणी थे- ब्राह्मण, उसकी स्त्री, पुत्र और साध्वी पुत्रवधू। ब्राह्मण की पुत्रवधूका नाम ही सखूबाई था। सखू जितनी अधिक भगवान्की भक्त, सुशीला, विनम्र, आज्ञाकारिणी और सरलहृदया थी, उसकी सास उतनी ही अधिक दुष्टा, अभिमानिनी, कुटिला और कठोरहृदया थी।
पति-पुत्र भी उसीके दुष्ट स्वभाव का अनुसरण करनेवाले थे। तीनों मानो एक ही माला के मनिये थे, वे अपनी शक्तिभर सखूको सतानेमें कोई बात बाकी नहीं रखते थे। तड़के से लेकर रात को सबके सो जानेके बादतक सखू को घरके सारे काम मशीन की भाँति बिना विश्राम करने पड़ते थे। सखू का शरीर शक्ति से कहीं अधिक परिश्रम करने के कारण अस्वस्थ हो गया था, परन्तु वह काम करने में कभी आलस्य या कष्ट का अनुभव.नहीं करती थी। उसने इसको अपना कर्तव्य ही मान रखा था।
मन-ही-मन भगवान्के त्रिभुवनमोहन स्वरूप का अखण्ड ध्यान और केशव, विठ्ठल, राम, कृष्ण, गोविन्द आदि नामों का प्रेमपूर्वक स्मरण करती हुई वह घरके काम-काजको बड़े ही सुचारुरूप से किया करती थी, परन्तु सास तो अपने स्वभाव से लाचार थी, दिनभर में दस-बीस बार सखूको और उसके माँ-बाप को गालियाँ सुनाये और दो-चार लात-घूंसे लगाये बिना उसे संतोष नहीं होता था। बिना कसूर मार और गालियों की बौछार सखू के हृदयमें कभी-कभी क्षणभर के लिये शूल की तरह चुभती थी, परन्तु वह अपने शील-स्वभाववश दूसरे ही क्षण उसे भूल जाती थी।
सास के सामने वह कभी जबान नहीं खोलती। पति के सामने भी दो बूँद आँसू निकालकर हृदय को शीतल करना उसके नसीब में नहीं था; क्योंकि वह भी अपनी माता के सदृश सखूपर सदा खड्गहस्त ही रहा करता था। अधिक क्या, निर्दयहृदया पिशाचिनी बुढ़िया सखू को पेटभर खाने को भी नहीं देती थी। घरमें अनेक पदार्थ बनते और सखूको ही वे बनाने पड़ते, माता-पिता और पुत्र सुखपूर्वक उनसे अपने पापी पेटों को भर लेते, परन्तु सखू को तो चौबीस घंटेमें वही एक वक्त बासी टुकड़े मिलते। इतना होनेपर भी सखू अपने दारुण दुःखों को भगवान्का आशीर्वाद समझकर उन्हें सुखरूपमें परिणत कर सदा प्रसन्न रहती।
सखू की दशापर गाँव के स्त्री-पुरुषों को तरस आता, परन्तु वे भी बिना बात लड़नेको कमर बाँधे रहनेवाले ब्राह्मण- ब्राह्मणीके डरसे कुछ कह नहीं सकते। सखू मन-ही-मन भगवत्कृपाका अनुभव करती हुई सोचती कि भगवान्ने बड़ा ही अच्छा किया जो मुझे इस घरमें भेजा, कहीं मुझपर अनुराग करनेवाले सास-ससुर और स्वामी मिल जाते तो मैं मोहवश मायाजालमें फँस गयी होती। यों विचार करती-करती वह आनन्दमग्न हो जाया करती और भगवान्के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करती।
एक दिन पड़ोसिन ने मौका पाकर उससे पूछा, ‘बहिन ! क्या तेरे नैहरमें कोई नहीं है ? तू इतना दुःख भोगती है, परन्तु वे कभी तेरी खोज-खबर ही नहीं लेते।’
सखूने मुसकराते हुए कहा, ‘मेरा नैहर पण्ढरपुर है और वह यहाँ से बहुत दूर है। मेरे माँ-बाप श्रीरुक्मिणी-कृष्ण हैं, उनके असंख्य संतान हैं, मालूम होता है, इसीलिये वे मुझे भूल गये हैं, परंतु कभी-न-कभी तो अवश्य ही बुलाकर मेरा दुःख दूर करेंगे !’ पण्ढरपुर महाराष्ट्रका प्रसिद्ध तीर्थ है। यहाँ आषाढ़ शुक्ला एकादशीको बड़ा भारी मेला लगता है। भगवान् पण्ढरीनाथ श्रीविठ्ठलके दर्शनार्थ लाखों नर-नारी दूर-दूरसे भगवन्नाम-कीर्तन करते हुए वहाँ आते हैं, पण्ढरपुर की यात्रा के दिन आ गये। भक्तों की यात्रा शुरू हो गयी, चारों ओरसे दल-के-दल श्रद्धालु नर-नारी हाथ में छोटी-छोटी पताकाएँ लिये भगवन्नाम का कीर्तन करते हुए जा रहे हैं। मृदंग, करताल और झाँझ की एकस्वर मधुर ध्वनि से आकाश गुंजायमान हो रहा है। पैरों में घुँघुरू बाँधे प्रेम-मतवाले भक्तगण नाच रहे हैं। श्रीहरिके गुणगान और चरित्र – कीर्तन से लोग आनन्द-सिन्धु में डूबे जा रहे हैं, मानो साक्षात् नादब्रह्म ही मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गये हैं।
इसी प्रकार के भक्तों के कुछ दल कर्हाड होकर जा रहे थे। सखूबाई उस समय पानी भरने कृष्णा नदीके तटपर गयी थी। प्रेमी-भक्तों के संकीर्तन-दल को देखकर सखू के हृदय में प्रेम उमड़ उठा। उसकी पण्ढरपुर जाने की प्रबल इच्छा हो गयी। उसने सोचा कि घरवालों से आज्ञा प्राप्त करना तो मेरे लिये असम्भव है, बात पूछते ही मार और गालियों की बौछार शुरू हो जायगी, परन्तु पण्ढरपुर जाना निश्चय है, अतः यहीं से इस संतमण्डली के साथ चली जाऊँ तो अच्छा है। यह विचारकर सखू संतमण्डली के साथ हो ली। पड़ोसिन ने जाकर यह समाचार उसकी दुष्टा सास को सुनाया।
वह सुनते ही जहरीली नागिन की तरह फुफकार उठी और सिखा-पढ़ाकर उसी समय लड़के को कृष्णा के किनारे भेजा। क्रोध से आग-बबूला हुआ वह दौड़कर नदी-तीरपर आया और सखू की चोटी पकड़कर उसे घसीटते एवं मारते-पीटते घर ले गया। गालियों की पुष्पांजलि तो सारे रास्ते चढ़ ही रही थी। तीनों निर्दय-हृदय मिलकर सोचने लगे कि ‘यह तो बिलकुल बेकाबू हुई जा रही है, अब मामूली मार-पीट से काम नहीं चलेगा, यह सीधी राहसे माननेवाली नहीं।’ मार-पीट तो उनके मन सीधी राह थी। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि अभी पण्ढरपुर की यात्रा दो सप्ताह तक जारी रहेगी, इसलिये इस बीच इसे जकड़कर खम्भे से बाँध रखना चाहिये और खानेको रोटी बिलकुल नहीं देनी चाहिये। ऐसा करनेपर यह जरूर सीधी हो जायगी। निश्चय के अनुसार ही काम भी तुरंत किया, उन्होंने मिलकर सखूको बड़ी ही निर्दयता से बाँध दिया। रस्सी से इतने जोर से खींचकर बाँधी गयी कि सखू के सूखे शरीर में उससे गड़हे पड़ गये।
सखू का शरीर बँध गया; परन्तु उसके मन को कोई नहीं बाँध सका, वह तो सारे बाँध तुड़ाकर पहले ही भगवान्के चरणों तक पहुँच चुका था। द्वापरयुग की बात है, व्रजभूमि के अंदर विद्यामद में चूर एक याज्ञिक ब्राह्मण ने भी अपनी साध्वी पत्नी को इसी प्रकार श्रीकृष्णदर्शनार्थ जाने से रोककर कोठरी में बंद कर दिया था; परंतु उसका मन भगवान्में लग चुका था, इससे वह अपने शरीर को वहीं छोड़कर सबसे पहले श्रीहरि से जा मिली थी। आज सखू भी बँधकर कुछ भी दुःख का अनुभव नहीं करती हुई भगवान्से कहती है- ‘भगवन्! कृपा करो, मैंने अपने को तुम्हारे चरणों से बाँधना चाहा था, परंतु बीच में ही यह नया बन्धन कैसे हो गया ? क्या इन नेत्रों से तुम्हारे पण्ढरपुरी रूप के दर्शन नहीं होंगे ? प्रभो! मुझे मरने की चिन्ता नहीं है, न मुझे कोई कष्ट ही है। एक बार ये नेत्र तुम्हारा चरणदर्शन कर कृतार्थ होना चाहते थे, इतना होने पर प्राण निकलते तो इनकी इच्छा पूर्ण हो जाती। हे मेरे जीवनधन ! हे जगज्जीवन !! तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है। मेरे तो माँ-बाप, भाई-बहिन, इष्ट-मित्र – जो कुछ हो – सब तुम्हीं हो, मैं भली-बुरी जो कुछ हूँ, तुम्हारी ही हूँ। क्या मेरी इतनी-सी बात नहीं सुनोगे दयामय !’
हे निर्गुण, हे सर्वगुणाश्रय, हे निरुपम, हे उपमामय ! हे अरूप, हे सर्वरूपमय, हे शाश्वत, हे शान्ति-निलय !!
हे अज, आदि, अनादि, अनामय, हे अनन्त, हे अविनाशी !
हे सच्चित्-आनन्द-ज्ञान-घन द्वैत-हीन घट-घटवासी !!
हे शिव, साक्षी, शुद्ध सनातन, सर्वरहित हे सर्वाधार !
हे शुभमन्दिर, सुन्दर, हे शुचि, सौम्यसाम्यमति, रहितविकार !!
हे अन्तर्यामी, अन्तरतर, अमल, अचल, हे अकल अपार !
हे निरीह, हे नर-नारायण, नित्य, निरंजन, नव-सुकुमार !!
हे नव-नीरद-नील, नराकृति, निराकार, हे नीराकार !
हे समदर्शी, संत-सुखाकर, हे लीलामय, प्रभु साकार !!
हे भूमा, हे विभु, त्रिभुवनपति, सुरपति, मायापति, भगवान !
हे अनाथपति, पतित-उधारन, जन-तारन, हे दयानिधान !!
हे दुर्बलकी शक्ति, निराश्रयके आश्रय, हे दीन दयाल !
हे दानी, हे प्रणत-पाल, हे शरणागत-वत्सल, जन-पाल !!
हे केशव, हे करुणासागर, हे कोमल अति सुहृद महान !
करुणा कर अब उभय अभय चरणोंमें मुझे दीजिये स्थान !!
सुर-मुनि-वन्दित, कमलानन्दित, चरण-धूलि तब मस्तक धार !
परम सुखी हो जाऊँगी मैं हूँगी सहज भवार्णव पार !!
भक्त के अन्तस्तल की सच्ची पुकार कभी व्यर्थ नहीं जाती। भगवान् सब सुनते हैं; परन्तु नकली पुकार का जवाब नहीं देते। असली पुकार चाहे जितनी धीमी हो, वह त्रिभुवन को भेदकर भगवान्के कर्णछिद्र में तुरंत प्रवेश कर जाती है और उनके हृदय को उसी क्षण द्रवीभूत कर देती है।
सखू की आर्त पुकार से भगवान्का आसन हिल गया, नाथ के मुखमण्डल पर उद्विग्नता छा गयी। जगज्जननी रुक्मिणीजी भगवान्की उदासी का कारण जानती हैं। सदा प्रसन्नरूप श्रीहरि के उदास होने की किसी भी अवस्था में कोई सम्भावना नहीं, परन्तु जब कोई भक्त उदास होता है तो उसकी उदासीका हूबहू चित्र उनके मुख-मण्डलपर तुरंत खिंच जाया करता है। इसी से देवी ने पूछा- ‘भगवन्! आज किस भक्तकी बुलाहट है? किस भक्तको आज दुष्टोंने सताया है?’ भगवान् बोले- ‘प्रिये! अधिक बात करने का समय नहीं है, सखूबाई नाम्नी मेरी एक भक्त है। वह हमारे दर्शनार्थ पण्ढरपुर जा रही थी, उसकी दुष्ट सास और पति ने उसे बाँध रखा है, मुझे तुरंत वहाँ जाना है।’ भगवान्का कहीं जाना-आना कैसा? यह तो भक्तोंके साथ उनका विनोद है।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना । प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥
जहाँ प्रेम होता है वहीं प्रेमी प्रभु प्रकट हो जाते हैं। बस, सुन्दर स्त्रीका रूप धारणकर भगवान् उसी क्षण सखूके पास जा पहुँचे और बड़ी ही मधुर वाणीसे बोले- ‘बाई मैं पण्ढरपुर जा रही हूँ, क्या तू वहाँ न चलेगी ?’ सखूने उदास होकर कहा- ‘जाना तो चाहती हूँ; परंतु कैसे जाऊँ? मैं तो यहाँ बँध रही हूँ।
मुझ पापिनीके भाग्यमें पण्ढरपुरकी यात्रा कहाँ है?’ स्त्रीरूपी भगवान्ने कहा- ‘बाई ! मैं तेरी सदाकी सहचरी हूँ, तू उदास क्यों हो रही है। तेरे बदले मैं यहाँ बँध जाऊँगी, तू चिन्ता न कर।’ सखूबाई बदलेमें कुछ कहने ही नहीं पायी कि भगवान्ने उसके बन्धन खोल दिये और देखते-ही-देखते उसे पण्ढरपुर पहुँचा दिया। अहा ! आज सखू के सौभाग्य का क्या ठिकाना है? स्वयं नारायण अपने हाथों उसे बन्धन मुक्त कर रहे हैं। आज सखूका केवल यही बन्धन नहीं खुला, उसके सारे बन्धन सदा के लिये खुल गये। वह मुक्त हो गयी। धन्य भगवन्!
प्रेमपाश में बँधे हुए भगवान् सखूका स्वरूप धारणकर उसकी जगह स्वयं बँध गये। जिनके नाम-स्मरणमात्र से माया के दृढ़ बन्धन पटापट टूट जाते हैं, आज वही सच्चिदानन्दघन भक्त के लिये स्वयं बन्धन स्वीकार करते हैं। एक दिन आप यशोदा मैयाके द्वारा ऊखलमें बँधे थे, प्रेममयी गोपिकाओंने तो न मालूम कितनी बार आपको बाँधा था, परंतु आज का यह बन्धन सबसे अनोखा है। वहाँ तो आप बालक बने थे, सबको तंग करते थे, तब बँधना पड़ा था; यहाँ तो अपनी भक्त सखूबाई के लिये सखूबाई बनकर बँधना पड़ा है। भक्तप्रेमाधीन होकर आपको सब कुछ करना पड़ता है।
सखूबाई बने नाथ बँध रहे हैं। सखूबाईके निर्दयी सास-ससुर और निष्ठुर स्वामी बार-बार आते हैं और मनमानी गालियाँ बक जाते हैं। भगवान् सुशीला वधू की भाँति सब कुछ सह लेते हैं। इस प्रकार बँधे हुए पूरे पंद्रह दिन बीत गये। सास-ससुर का मन तो इतने पर भी नहीं पसीजा; परंतु सखू के पति के मनमें यह विचार आया कि पूरे दो सप्ताह इसको बिना अन्न-जल ग्रहण किये बीत गये हैं, कहीं बँधी-की-बँधी ही मर गयी तो मुश्किल होगी।
हम अपनी करतूतों से गाँव भर में प्रसिद्ध हो चुके हैं, ऐसा कौन है जो मेरी और मेरे माँ-बाप की काली कीर्ति न सुन चुका हो। यह मर गयी तो दूसरा विवाह होना असम्भव ही है। हजारों रुपये देनेपर भी कोई अपनी लड़की देनेको राजी न होगा। इन सब स्वार्थ के विचारों के साथ ही बँधी हुई इस सखू के पास जानेसे कई बार उसके मनमें कुछ आकर्षण भी हो गया था, सखूरूपी भगवान्के उदास मुखमण्डल को देखकर उसके हृदय में दया उत्पन्न हो गयी और उसे अपनी क्रूर करतूतोंपर पश्चात्ताप होने लगा था। अब उससे नहीं रहा गया, उसने आकर सारे बन्धन काट दिये और बड़े ही मीठे वचनोंसे सान्त्वना देने लगा। उसने कहा- ‘प्रिये! मैं बहुत ही निष्ठुर हूँ, मेरे माता-पिता ने भी तुझे बहुत सताया है, तुम तो सती हो, मुझपर क्षमा करो और शीघ्र स्नान करके कुछ खाओ।’
भवबन्धनहारी, अनन्त आनन्द के सागर भगवान् ठीक पतिव्रता पत्नी की भाँति शान्त और विनम्रभाव से मानो संतुष्ट होते हुए सिर नीचा किये खड़े रह गये। भगवान्ने सोचा कि यदि मैं अभी अन्तर्धान हो जाऊँगा, तो ये दुष्ट सखूको लौटने पर फिर सतावेंगे।
इससे उसके लौटनेतक यहीं ठहरना चाहिये। ठीक है नाथ ! यहीं रहिये, जब आपने सखूके बदले बन्धन स्वीकार किया तो अब अपनी सखूके स्वामीकी पत्नी बननेमें क्या संकोच है?
पति के आज्ञानुसार सखूरूपी भगवान्ने स्नानकर रसोई – बनायी और स्वयं अपने हाथ से तीनों को जिमाया। आज के भोजन का स्वाद कुछ विलक्षण ही था। पुत्र और माता-पिता तीनों ने बड़ी सराहना करते हुए भोजन किया। पुत्रवधू के बनाये भोजन की सराहना करने का सास-ससुर के लिये जीवन में यह पहला ही अवसर था। क्यों न हो, आज पुत्रवधू के रूप में माधुर्य के निधि भगवान् स्वयं विराजमान थे और अपने हाथसे भोजन करा रहे थे। अहा! सखू के संग से ऐसे दुष्ट भी भगवान्के सेवा-पात्र बन गये।
सबके बाद सखूरूपी भगवान्ने भोजन किया। सारा दिन घरके काम-काज में बीता। पानी भरना, झाड़ देना, चक्की पीसना, बरतन माँजना, चौका देना, सासके पैर दबाना आदि सारे कार्य भगवान् बड़ी ही दक्षतासे करने लगे। चतुरचूडामणि ही तो ठहरे ! जिन्होंने व्रजके बालकों और बछड़ोंके बदलेमें सालभरतक विविध रूपधारी बालक और वत्स बनकर अपनी- अपनी माताओंको सुख दिया था, उनके लिये वहाँ वधू बनकर पति और सास-ससुरको सुखी करना कौन बड़ी बात थी। आपने रातको शयनागारमें पतिके पैर दबाकर उसकी यथेच्छ सेवा की और उसे संतुष्ट किया। स्त्री-पुरुषका भेद भगवान्की दृष्टिमें कुछ भी नहीं है।
जो सबके अन्तरात्मा हैं; जो स्त्री-पुरुष, नपुंसक समस्त शरीरोपाधियोंके एकमात्र अधिष्ठान हैं, जो सर्वमय, सर्वसाक्षी और सर्वाधार हैं, जो अज, अव्यय रहते हुए ही जन्म लेकर विविध लीला करते हुए-से दिखायी देते हैं, जो समस्त चराचरके रूपमें अभिव्यक्त हो रहे हैं, उन परमात्मामें स्त्री-पुरुषका भेद कैसा? कुम्हार मिट्टीका घड़ा भी बनाता है और हाँड़ी भी, सुनार सोनेका कड़ा भी बनाता है और कण्ठी भी, यह लिंगभेद नाममें है, न कि अधिष्ठानरूप मिट्टी या सोनेमें।
आकाश सर्वत्र एकरूप होनेपर भी उसमें ध्वनि नाना प्रकारकी सुनायी पड़ती है, इसी प्रकार भगवान् भी उपाधिभेदसे ही अनन्त प्रकारके भासते हैं, वास्तवमें तत्त्वतः वे एक ही हैं। अस्तु। सखूरूपी भगवान्ने अपनी सेवा और सुन्दर व्यवहार से पति और सास-ससुरको संतुष्ट कर लिया। अब वे सब प्रकारसे इस सखू के अनुकूल हो गये। उनके स्वभाव में विलक्षण परिवर्तन हो गया। ठीक ही है, अब भी परिवर्तन न होता तो फिर होता ही कब ?
उधर सखू पण्ढरपुर पहुँचकर भगवन्नाम के आनन्द में मग्न हो गयी। भगवान्की माया से वह इस बात को भूल गयी कि मेरे बदलेमें कोई दूसरी स्त्री वहाँ बँधी है और मैं यहाँ आ गयी हूँ। उसने देखा, भक्तगण हाथों में निशान लिये ताल-मृदंग और झाँझ बजाते हुए, नाम का घोष करते हैं और मस्त हुए नृत्य कर रहे हैं। आज छोटे-बड़े और ऊँचे-नीचे, अमीर-गरीब और ब्राह्मण- शूद्र का कोई भेद नहीं रह गया है। सभी प्रेम में मत्त हो रहे हैं, भगवन्नामकी तुमुल गर्जना से, आकाश प्रकम्पित हो रहा है।
इस आनन्दरस में विभोर हुई सखूबाई चन्द्रभागा में स्नान करके भगवान् पण्ढरीनाथ के दर्शनार्थ मन्दिर की ओर चली। मन्दिरमें जाकर भगवान्के दर्शन कर वह आनन्दसिन्धु में डूब गयी। भगवान्की श्यामसुन्दर मनोहर मूर्ति है – आप दिव्य पीताम्बर धारण किये हुए हैं, परम सुन्दर श्रीमुख है, कानोंमें दिव्य मकराकृत कुण्डल हैं, वक्षःस्थलपर सुगन्धित पुष्प और तुलसी की माला सुशोभित हो रही है। इस रूपमाधुरीको भक्तदृष्टिसे देखते ही सखू मुग्ध हो गयी, उसके त्रिताप सदाके लिये शान्त हो गये, वह अपने देहकी सुध-बुध भूल गयी।
वहाँ उसका मन ऐसा लगा कि उसने भगवान्के सामने यह प्रतिज्ञा कर ली कि जबतक इस शरीरमें प्राण हैं तबतक पण्ढरपुरकी सीमाके बाहर नहीं जाऊँगी। उसे क्या पता था कि मेरे बदलेमें मेरे नाथ वहाँ सासके सामने बहू सजकर संसार चला रहे हैं। प्रेममुग्धा सखू भगवान् पाण्डुरंगके ध्यानमें संलग्न हो गयी। उसे समाधि हो गयी। अन्तमें अष्ट सात्त्विक भावोंमें अन्तिम भावका उदय हो गया, जिससे सखूके प्राण कलेवरको छोड़कर निकल भागे। शरीर अचेतन होकर जमीनपर गिर पड़ा।
दैवसंयोग से यात्रा करने को आया हुआ कर्हाड निकटवर्ती किवल नामक गाँव का एक ब्राह्मण उधरसे आ निकला। उसने सखू की लाश को पहचानकर अपने साथियों को बुलाया और सब ने मिलकर उसका अन्त्येष्टि संस्कार कर दिया। इधर जगज्जननी रुक्मिणीजी ने सोचा कि ‘यह तो खूब रही। इसने तो यहाँ प्राण छोड़ दिये, उधर इसकी जगह मेरे स्वामी बहू बने बैठे हैं! बेढब फँसावट हुई।’ यह विचारकर रुक्मिणीजी श्मशान में पहुँचीं और सखू की अस्थियों का संचय कर अपनी इच्छा से ही उसे जीवित कर दिया। जिन मायादेवी के प्रताप से समस्त ब्रह्माण्ड की रचना और विनाश होता है, जो निर्गुण को सगुण और अविकारी को विकारी-सा बनाकर दिखा देती हैं, जो बिना ही हुए नाना दृश्य उत्पन्न कर देती हैं, उन महामाया की अमृत-वृष्टि से सखू के जीवित हो जाने में कौन आश्चर्य है?
सखू नींद से जागने की भाँति उठ बैठी। रात को स्वप्न में जगन्माता ने उससे कहा कि- ‘पुत्री ! तेरा प्रण तो यही था न कि मैं इस देहसे पण्ढरपुर से बाहर नहीं जाऊँगी। तेरा वह शरीर तो जलाया जा चुका है, यह दूसरा देह है, अतएव तू घर लौट जा, तेरा कल्याण होगा।’ इस आदेश को पाकर सखू दो दिन बाद यात्रियों के साथ कर्हाड लौट आयी।
सखूका आना जानकर सखूवेषधारी नारायण पानी का घड़ा लेकर घाटपर चले आये और पूर्वपरिचित सखी का वेष धारणकर सखू से जा मिले। उन्हें देखते ही सखूको सारी बातें याद हो आयीं। वह पश्चात्ताप और कृतज्ञता प्रकट करती हुई चरण पकड़कर बोली- ‘बहिन ! तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ होगा, तुम मेरे बदले बन्धनमें रही। मैंने तो तुम्हारी ही कृपासे भगवान्के दर्शन किये हैं।
तुम्हारे उपकार का बदला नहीं चुका सकती।’ दो-चार मीठी-मीठी बातें बनाकर भगवान्ने कहा कि ‘ले यह घड़ा तू ले जा; मैं जाती हूँ’। इतना कहकर वे तो अदृश्य हो गये। सखू घड़ा उठाकर घर पहुँची और स्वाभाविक ही अपने घरके काममें लग गयी। सास-ससुर और स्वामीके स्वभावमें विचित्र परिवर्तन देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।
दूसरे दिन किवल गाँवका वह ब्राह्मण सखू के मरनेका समाचार सुनाने कर्हाड आया। उसने सखू के घर पहुँचकर सखू को घरका काम करते देखा तो उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा, वह सखूके ससुरको बाहर बुलाकर कहने लगा, ‘तुम्हारी बहू तो पण्ढरपुरमें मर गयी थी, उसे तो हम जलाकर आये हैं। यहाँ उसे तुम्हारे घरमें काम करते देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है, कहीं प्रेत होकर तो वह यहाँ नहीं आ गयी ?’ सखूके ससुर और पतिने कहा कि वह ‘पण्ढरपुर गयी ही नहीं, तुम भूलसे ऐसा कहते हो।’
आखिर ब्राह्मणके बहुत कहनेपर ससुरने सखूको अपने पास बुलाकर पूछा कि ‘बहू! तुमको तो हमने यहाँबाँध रखा था, ये कहते हैं कि तुम पण्ढरपुरमें मर गयी थी – यह कैसी बात है?’ सखूने कहा कि ‘मेरे ही-जैसी एक स्त्री यहाँ आकर स्वयं बँध गयी थी और मुझे छुड़ाकर वहाँ भेज दिया था। मैं पण्ढरपुर जरूर गयी थी और वहाँ एक दिन मुझे बेहोशी भी हुई थी।
पीछे स्वप्नमें मालूम हुआ कि मैं मर गयी थी; परन्तु माता रुक्मिणीजीने मुझे जिला दिया। यहाँ लौटनेपर वह स्त्री कृष्णा नदीके घाटपर मुझे घड़ा देकर चली गयी। हो-न-हो वह मेरे नाथ श्रीपाण्डुरंग थे। आपलोगोंका बड़ा सौभाग्य है, जो आपने उनके दर्शन पाये।’ यह सुनते ही सखूके सास-ससुर और स्वामीको बड़ा ही पश्चात्ताप हुआ।
वे कहने लगे कि ‘निश्चय ही वे साक्षात् लक्ष्मीपति थे; हम बड़े ही नीच और भक्तिहीन हैं, हमने उनको न पहचानकर व्यर्थ ही बाँध रखा और उन्हें न मालूम कितने क्लेश दिये।’ तीनों का हृदय शुद्ध हो ही चुका था। अब वे भगवान्के भजनमें लग गये और सखूका बड़ा ही उपकार मानने लगे। भगवान् भक्तोंके लिये क्या नहीं करते ! सच्चा प्रेम होना चाहिये, फिर भगवान्के वश होते देर नहीं लगती। वे न जाति-कुल देखते हैं और न ऊँच-नीच कार्य का विचार करते हैं। वास्तव में भगवान् और भक्त में कोई भेद नहीं है। वह विश्वव्यापक सच्चिदानन्द जगदीश्वर ही भक्तरूपमें विचरते हैं और असंख्य अज्ञानीजनोंको भक्तिके सुखमय मार्गपर लाकर उनका उद्धार कर देते हैं। धन्य!
बोलो भक्त और उनके भगवान्की जय !
- भक्त-चन्द्रिका