श्वेता पुरोहित – वेदों में, उपनिषदों में दो सन्तों के नाम ऐसे आते हैं – जो जन्म से ही मुक्त हैं। ‘शुको मुक्तः, वामदेवो मुक्तः’। एक वामदेवऋषि का ऐसा नाम आता है। वामदेवऋषि संसार में आये, कभी माया का स्पर्श हुआ नहीं। जन्म से ही शुकदेवजी महाराज में ज्ञान, वैराग्य और भक्ति तीनों परिपूर्ण हैं।
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु-स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥
ज्ञान, वैराग्य और भक्ति – तीनों परिपूर्ण हैं। इसीलिये शुकदेवजी महाराज सात दिवसमें मुक्ति दे सकते हैं।
परीक्षित्का यह प्रश्न था – सात दिन में कौन मुझे मुक्ति दे सकता है, कौन मुझे परमात्मा का दर्शन करा सकता है? ज्ञान, वैराग्य और भक्ति जहाँ तीनों परिपूर्ण हैं, वही सात दिनों में मुक्ति दे सकता है। शुकदेवजी-जैसे अधिकारी सिद्ध सद्गुरु हों तो सात दिन तो बहुत हैं, केवल प्रेम से स्पर्श करें तो परमात्मा का दर्शन हो सकता है। गंगा-किनारे शुकदेवजी महाराजने राजा परीक्षित् को कथा सुनायी है।
घर छोड़ दिया है। अनेक जीवों का कल्याण करनेके लिये घर छोड़ा है। शुकदेवजी घर छोड़कर जाने लगे। माँ को दुःख हुआ। मेरा बेटा भले ही विवाह न करे, घर में रहे। उसको देखने से मन पवित्र हो जाता है, उसको देखने से भगवान् याद आते हैं- मेरा बालक ऐसा है। व्यासजी समझाते हैं- ‘जो अतिशय प्रिय लगता है, वह भगवान्को अर्पण करो। साधारण मानवका ऐसा स्वभाव होता है कि उसको जो अच्छा लगता है, वह अपने लिये रखता है। जो अच्छा नहीं लगता है, वह दूसरोंको दे देता है। अच्छा मेरे लिये – इसीका नाम ‘आसक्ति’ है। अच्छा दूसरेके लिये – उसीका नाम ‘भक्ति’ है। तेरा पुत्र अनेक जीवोंका कल्याण करनेके लिये गया है।
‘हे पुत्र ! हे पुत्र !!’ बोलते हुए व्यासजी दौड़ते हैं। शुकदेवजीने कहा है- ‘कौन पुत्र है और कौन पिता है- परमात्माके पीछे पड़ो।
पिता-पुत्रके सम्बन्धमें केवल वासना है। वासनासे जीव बाप होता है। वासनासे ही जीव बेटा होता है। जीवका ईश्वरसे सम्बन्ध सच्चा है। मेरे पीछे क्या पड़ते हो – अनेक बार आप पुत्र हुए हैं, अनेक बार मैं पिता हुआ हूँ। कौन पिता और कौन पुत्र है? पूर्वजन्मका आपका पुत्र इस समय कहाँ है? पूर्वजन्मके पति या पत्नी जो प्राणसे प्यारी लगती थी, इस समय कहाँ है ? ये सब वासनाका खेल है। जीव ईश्वरका है।’ बूढ़ेकी घरमें वासना रह जाय, उस बूढ़े का मरनेके बाद बालकका जन्म होता है। कितने
लोग बातें करते हैं – इसका मुख इसके दादाके जैसा लगता है। वह ‘दादा’ के जैसा क्या, दादा ही बेटा होकरके आया है। जो बाप था, वही बेटा हुआ है। उसकी घरमें आसक्ति थी।
‘पिताजी ! मेरे पीछे क्या पड़ते हो ? परमात्माके पीछे पड़ो। नर नारायण का अंश है। नारायणके पीछे पड़ो।’
महर्षि व्यासको बोध दिया है- ‘पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमान- तोऽस्मि ॥’
गंगा-किनारे सन्त-समाज में शुकदेव जी महाराज ने ये दिव्य कथा की है। शुकदेवजी महाराज जब कथा करते थे, उस कथामें महर्षि व्यास कथा सुननेके लिये आये थे। ‘मुझे ऐसा लगता है, मेरा पुत्र मुझसे भी श्रेष्ठ है। उसका ज्ञान-वैराग्य, उसकी प्रेम-लक्षणा भक्ति अलौकिक है।’ शुकदेवजीकी कथा सुननेमें व्यासजीको आनन्द आया।
कथा कीर्तन से सफल होती है। कथा का सोलह आना फल मिले, पुण्य मिले – ऐसी इच्छा हो तो कथामें प्रेमसे कीर्तन करो। कथामें वक्ता भगवद्-गुणगान करता है। भगवान्की मंगलमयी लीलाका वर्णन करता है। गुण- संकीर्तन, लीला-संकीर्तन, नाम-संकीर्तनसे कथा सफल होती है। वक्ता श्रोता बहुत प्रेम से भगवान्के नाम का जब कीर्तन करते हैं, तभी कथा सफल होती है। कथाका सोलह आना फल आपको मिले – ऐसी इच्छा हो तो प्रेमसे कीर्तन करो। कीर्तनमें संकोच रखना नहीं। कीर्तनमें जिसको संकोच होता है, वह समझे कि मेरा पाप बहुत है। कीर्तन में शर्म काहेकी रखते हो, वैष्णवको पाप करनेमें शर्म आती है। भगवान्के नाममें जिसको शर्म आये, वह वैष्णव नहीं है। आप प्रभुके प्यारे हैं, आप वैष्णव हैं, आप सब भगवान्के अंश हैं।
शुकदेव जी महाराज की जय 🙏
ऋषि वेदव्यास जी की जय 🙏
श्री डोंग्रेजी महाराज की जय 🙏