श्वेता पुरोहित – एक सेठ की बात सुनी। वह सेठ बहुत धनी था। वह सुबह जल्दी उठकर नदी में स्नान करके घर आकर नित्य-नियम करता था। ऐसे वह रोजाना नहाने नदीपर आता था। एक बार एक अच्छे संत विचरते हुए वहाँ घाटपर आ गये। उन्होंने कहा ‘सेठ ! राम-राम !’ वह बोला नहीं तो फिर बोले- ‘सेठ ! राम-राम !’ ऐसे दो-तीन बार बोलने पर भी सेठ ‘राम-राम’ नहीं बोला। सेठ ने समझा कि कोई मँगता है। इसलिये कहने लगा- ‘हट! हट! चल, हट यहाँ से।’ संत ने देखा कि अभिमान बहुत बढ़ गया है, भगवान्का नाम भी नहीं लेता। मैं तो भगवान् का नाम लेता हूँ और यह हट कहता है।
इन धनी आदमियों के वहम रहता है कि हमारे से कोई कुछ माँग लेगा, कुछ ले लेगा। इसलिये धनी लोग सबसे डरते रहते हैं। वे गरीब से, साधु से, ब्राह्मण से, राज्य से, चोरों से, डाकुओं से डरते हैं। अपने बेटा-पोता ज्यादा हो जायँगे तो धन का बँटवारा हो जायगा – ऐसे भी डर लगता है उन्हें।
संत ने सोचा कि इसे ठीक करना है। तो वे वैसे ही सेठ बन गये और सेठ बनकर घर पर चले गये। दरबान ने कहा कि ‘आज आप जल्दी कैसे आ गये ?’ तो उन्होंने कहा कि ‘एक बहुरूपिया मेरा रूप धर के वहाँ आ गया था, मैंने समझा कि वह घरपर जाकर कोई गड़बड़ी नहीं कर दे। इसलिये मैं जल्दी आ गया। तुम सावधानी रखना, वह आ जाय तो उसे भीतर मत आने देना।’
सेठ घरपर जैसा नित्य-नियम करता था, वैसे ही वे सेठ बने हुए संत भजन-पाठ करने लग गये। अब वह सेठ सदाकी तरह धोती और लोटा लिये आया तो दरवानने रोक दिया। ‘कहाँ जाते हो ? हटो यहाँसे !’ सेठ बोला- ‘तूने भाँग पी ली है क्या? नशा आ गया है क्या? क्या बात है? तू नौकर है मेरा और मालिक बनता है।’ दरवानने कहा- ‘हट यहाँ से, नहीं जाने दूंगा भीतर।’ सेठने छोरों को आवाज दी – ‘आज इसको क्या हो गया?’ तो उन्होंने कहा- ‘बाहर जाओ, भीतर मत आना।’ बेटे भी ऐसे ही कहने लगे। जिसको पूछे, वे ही धक्का दें। सेठने देखा कि क्या तमाशा हुआ भाई? मुझे दरवाजेके भीतर भी नहीं जाने देते हैं। बेचारा इधर-उधर घूमने लगा।
अब क्या करें ? उसकी कहीं चली नहीं तो उसने राज्यमें जाकर रिपोर्ट दी कि इस तरह आफत आ गयी। वे सेठ राज्य के बड़े मान्य आदमी थे। राजाने उनको जब इस हालतमें देखा तो कहा ‘आज क्या बात है ? लोटा, धोती लिये कैसे आये हो ?’ तो वह बोला- ‘कैसे- कैसे क्या, महाराज ! मेरे घरमें कोई बहुरूपिया बनकर घुस गया और मुझे निकाल दिया बाहर।’ राजा ने कहा- ‘चार घोड़ोंकी बग्घीमें आया करते थे, आज आपकी यह दशा!’ राजाने अपने आदमियों से पूछा- ‘कौन है वह ? जाकर मालूम करो।’ घरपर खबर गयी तो घरवालोंने कहा कि ‘अच्छा! वह राज्यमें पहुँच गया! बिलकुल नकली आदमी है वह। हमारे सेठ तो भीतर विराजमान हैं। राजाको जाकर कहा कि वह तो घरमें अच्छी तरहसे विराजमान है। राजाने कहा-‘सेठको कहो कि राजा बुलाते हैं।’ अब सेठ चार घोड़ोंकी बग्घी लगाकर ठाट-बाटसे जैसे जाते थे, वैसे ही पहुँचे और बोले- ‘अन्नदाता ! क्यों याद फरमाया, क्या बात है?’
राजाजी बड़े चकराये कि दोनों एक-से दीख रहे हैं। पता कैसे लगे? मंत्रियोंसे पूछा तो वे बोले- ‘साहब, असली सेठका कुछ पता नहीं लगता।’ तब राजाने पूछा, ‘आप दोनों में असली और नकली कौन हैं?’ तो कहा- ‘परीक्षा कर लो।’ जो सन्त सेठ बने हुए थे उन्होंने कहा-‘बही लाओ। बहीमें जो लिखा हुआ है, वह हम बता देंगे।’ बही मँगायी गयी। जो सेठ बने हुए संत थे, उन्होंने बिना देखे ही कह दिया कि अमुक अमुक वर्ष में अमुक मकानमें इतना खर्चा लगा, इतना घी लगा, अमुक के ब्याहमें इतना खर्चा हुआ। वह हिसाब अमुक बहीमें, अमुक जगह लिखा हुआ है।’ वह सबका – सब मिल गया। सेठ बेचारा देखता ही रह गया। उसको इतना याद नहीं था। इससे यह सिद्ध हो गया कि वह सेठ नकली है। तो कहा कि-‘इसे दण्ड दो।’ पर संतके कहनेसे छोड़ दिया।
दूसरे दिन फिर वह धोती और लोटा लेकर गया। वहाँ वही संत बैठे थे। उस सेठ को देखकर संत ने कहा- ‘राम-राम !’ तब उसकी आँख खुली कि यह सब इन संतका चमत्कार है। संतने कहा – ‘तुम भगवान् का नाम लिया करो, हर एक का तिरस्कार, अपमान मत किया करो। जाओ, अब तुम अपने घर जाओ।’ वह सेठ सदा की तरह चुपचाप अपने घर आ गये।
अभिमान में आकर लोग तिरस्कार कर देते हैं। धनका अभिमान बहुत खराब होता है। धनी आदमी के प्रायः भक्ति लगती नहीं। धनी आदमी भक्त होते ही नहीं, ऐसी बात भी नहीं है। राजा अम्बरीष भक्त हुए हैं और भी बहुत से धनी आदमी भगवान् के भक्त हुए हैं; परंतु धन का अभिमान उनके नहीं था। उन्हें धन की परवाह नहीं थी। भगवान् अभिमान को अच्छा नहीं समझते – अभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्व’।
नारदजी जैसे भक्त को भी अभिमान आ गया।
‘जिता काम अहमिति मन माहीं।’
(मानस, बालकाण्ड, दोहा १२७।५)
अभिमान की अधिकता आ गयी कि मैंने काम पर विजय कर ली तो क्या दशा हुई उनकी ? भगवान् अपने भक्त का अभिमान रहने ही नहीं देते।
ताते करहिं कृपानिधि दूरी।
सेवक पर ममता अति भूरी ॥
(मानस, उत्तरकाण्ड, दोहा ७४।७)
अभिमान से बहुत पतन होता है। उस अभिमान को भगवान् दूर करते हैं। आसुरीसम्पत्ति और जितने दुर्गुण-दुराचार हैं, सब- के-सब अभिमानकी छायामें रहते हैं।
महाभारत में आया है-बहेड़े की छाया में कलियुग
का निवास है, ऐसे ही सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्ति का निवास अभिमान की छाया में है। धनका, विद्या का भी अभिमान आ जाता है। हम साधु हो जाते हैं तो वेश-भूषाका भी अभिमान आ जाता है कि हम साधु हैं। हमें क्या समझते हो-यह भी एक फूँक भर जाती है। अरे भाई, फूँक भर जाय दरिद्रता की। धनवत्ता की भरे उसमें तो बात ही क्या है! धनी के यहाँ रहने वाले मामूली नौकर आपस में बात करते हैं- ‘कोई भाग्यके कारण पैसे मिल गये; परंतु सेठमें अक्ल नहीं है।’ उनको पूछा जाय, ‘तुम ऐसे अक्लमन्द होकर बेअक्लके यहाँ क्यों रहते हो? ऐसे ही पंडितों को अभिमानी लोग कहते हैं- ‘पढ़ गये तो क्या हुआ अक्ल है ही नहीं।’ मानो अक्ल तो सब-की-सब उनके पास ही है। दूसरे सब बेअक्ल हैं।
‘अकलका अधूरा और गाँठका पूरा’ मिलना बड़ा मुश्किल है। धन मेरे पास बहुत हो गया, अब धनकी मुझे जरूरत नहीं है और मेरेमें समझ की कमी है, थोड़ा और समझ लूँ-ऐसे सोचने वाले आदमी कम मिलते हैं। दोनों का अजीर्ण हुआ रहता है। दरिद्रता का भी अभिमान हो जाता है। साधारण लोग कहते हैं- ‘सेठ हैं, तो अपने घरकी सेठानी के हैं। हम क्या धरावें सेठ हैं तो?’ यह बहुत ही खराब है भगवान् ही बचायें तो आदमी बचता है, नहीं तो हरेक हालत में अभिमान आ जाता है। इसलिये अभिमान से सदा सावधान रहना चाहिये।