श्वेता पुरोहित। पाण्डवों के वनवास और अज्ञातवास की अवधि पूरी होने पर भी दुर्योधन ने जब युद्ध के बिना सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने से इनकार कर दिया तो युद्ध निश्चित हो गया, पर युद्ध में भीषण संहार होगा – यह विचारकर महाभारत युद्ध को टालने के अन्तिम प्रयास के रूपमें भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर दुर्योधनको समझानेके उद्देश्यसे हस्तिनापुर गये। वहाँ उन्होंने दुर्योधनको बहुत समझाया कि वह पाण्डवों को पाँच गाँव ही देकर सन्धि कर ले किंतु हठधर्मी दुर्योधन ने उनकी सब बातें अस्वीकार कर दीं। उलटे वह कर्ण आदि अपने मित्रों से सलाह करने लगा कि श्रीकृष्ण को पकड़कर कारागार में डाल दिया जाय। इस बात को जानकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपना भयानक विराट्-रूप प्रकट किया।
उन्होंने दुर्योधन से कहा- दुर्बुद्धि दुर्योधन ! तू मोहवश जो मुझे अकेला मान रहा है और इसलिये मेरा तिरस्कार करके जो मुझे पकड़ना चाहता है, यह तेरा अज्ञान है। देख, सब पाण्डव यहीं हैं। अन्धक और वृष्णिवंशके वीर भी यहीं मौजूद हैं। आदित्यगण, रुद्रगण तथा महर्षियोंसहित वसुगण भी यही हैं। ऐसा कहकर वे उच्च स्वरसे अट्टहास करने लगे।
हँसते समय उन महात्मा श्रीकृष्ण के श्री अंगों में स्थित विद्युत्के समान कान्तिवाले तथा अँगूठेके बराबर छोटे शरीरवाले देवता आगकी लपटें छोड़ने लगे। उनके ललाट में ब्रह्मा और वक्षःस्थल में रुद्रदेव विद्यमान थे। समस्त लोकपाल उनकी भुजाओंमें स्थित थे। उनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं। आदित्य, साध्य, वसु, अश्विनीकुमार, इन्द्रसहित मरुद्गण, विश्वेदेव, यक्ष, गन्धर्व, नाग और राक्षस भी उनके विभिन्न अंगों में प्रकट हो गये। उनकी दोनों भुजाओं से बलराम और अर्जुन प्रकट हो गये।
उनकी दाहिनी भुजा में अर्जुन और बायीं में हलधर बलराम विद्यमान थे। भीमसेन, युधिष्ठिर तथा नकुल-सहदेव भगवान्के पृष्ठ भाग में स्थित थे। प्रद्युम्न आदि वृष्णिवंशी तथा अन्धकवंशी योद्धा हाथों में विशाल आयुध लिये भगवान्के अग्रभागमें प्रकट हुए। शंख, चक्र, गदा, शक्ति, शार्ङ्ग धनुष, हल तथा नन्दक नामक खड्ग-ये ऊपर उठे हुए समस्त आयुध श्रीकृष्ण की अनेक भुजाओंमें देदीप्यमान दिखायी देते थे। उनके नेत्रोंसे, नासिका के छिद्रों से और दोनों कानोंसे सब ओर अत्यन्त भयंकर धूमयुक्त आग की लपटें प्रकट हो रही थीं। समस्त रोमकूपों से सूर्य के समान दिव्य किरणें छिटक रही थीं।
महात्मा श्रीकृष्ण के उस भयंकर स्वरूपको देखकर समस्त राजाओंके मनमें भय समा गया और उन्होंने अपने नेत्र बन्द कर लिये। द्रोणाचार्य, भीष्म, परम बुद्धिमान् विदुर, महाभाग संजय तथा तपस्या के धनी महर्षियोंको भगवान् जनार्दनने स्वयं ही दिव्य दृष्टि प्रदान की थी, जिससे वे उनका दर्शन करने में समर्थ हो सके थे।
धृतराष्ट्र ने प्रार्थना कि भगवन्! मेरे नेत्रोंका तिरोधान हो चुका है; परंतु आज मैं आपसे पुनः दोनों नेत्र माँगता हूँ। केवल आपका दर्शन करना चाहता हूँ; आपके सिवा और किसीको मैं नहीं देखना चाहता। तब महाबाहु जनार्दनने धृतराष्ट्रसे कहा-‘कुरुनन्दन ! आपको दो अदृश्य नेत्र प्राप्त हो जायँ।’ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे उनके विश्वरूपका दर्शन करनेके लिये धृतराष्ट्रको भी नेत्र प्राप्त हो गये।
उस समय भगवान् श्रीकृष्ण के विराट्-रूप धारण करने से सारी पृथ्वी डगमगाने लगी, समुद्र में खलबली मच गयी और समस्त भूपाल अत्यन्त विस्मित हो गये। उस समय सभा भवन में भगवान् श्रीकृष्ण का वह परम आश्चर्यमय रूप देखकर देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं और उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा होने लगी। तदनन्तर शत्रुओंका दमन करनेवाले पुरुषसिंह श्रीकृष्णने अपने इस स्वरूपको उस दिव्य, अद्भुत एवं विचित्र ऐश्वर्यको समेट लिया।
- महाभारत, उद्योगपर्व