अमेरिका-यूरोप में लोग कंटेंट को सम्मान देते हैं, जबकि हमारे यहां बड़ी संख्या कंटेंट को मुफ्त का माल समझने वालों की है। इस कारण इतनी बड़ी भाषा होते हुए भी हिंदी पुस्तकों का बाजार बड़ा नहीं बन पाया। आज भी पुस्तक, उसका PDF मुफ्त मांगने वालों की बड़ी संख्या है। कंटेंट के लिए मूल्य चुकाना लोग कृतज्ञता नहीं, कंटेट क्रियेटर पर उपकार समझते हैं।
देखिए न, बड़ी संख्या में लोग #TheKashmirFiles जैसी क्रांतिकारी फिल्म को भी मुफ्त डाउनलोड कर देख रहे हैं।
याद रखिए इसी मुफ्तखोरी ने हमें विदेशी गुलाम बनाया, धर्मांतरण के कई कारणों में एक कारण मुफ्तखोरी भी है और आज भी कई राज्यों में मुफ्तखोरी के लालच में लोग सरकार बनवा कर कुल्हाड़ी पर अपना पैर मारने से नहीं हिचक रहे हैं।
जो समर्थ नहीं है, उसकी विवशता समझ सकते हैं, उनके लिए नि:शुल्क व्यवस्था उचित भी है, परंतु जो समर्थ हैं वह भी ‘मुफ्त के तालाब’ में डुबकी मार लेने को आतुर दिखते हैं। यही लालच कहलाता है।
मुफ्तखोरी एक कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट अवधारणा है। सनातन में ज्ञान के लिए गुरुदक्षिणा और धन के लिए माता लक्ष्मी की पूजा कर कृतज्ञता ज्ञापित करना धर्म रहा है।
कहने से कोई हिंदू या सनातनी नहीं बनता, बल्कि आचरण में उसे उतारना पड़ता है। और सच यह है कि आज भी हिंदुओं की बड़ी आबादी का अवचेतन सनातन से नहीं, समाजवाद से आकर्षित है।
समाजवाद एक आरी है, जो भारत के हिंदू समाज को उसकी सनातन जड़ से काटने के लिए सदियों से काम में लिया जा रहा है!