शंकर शरण। सुभाष बाबू की ‘आजाद हिन्द फौज’ को जिस सेक्यूलर हिन्दू-मुस्लिम-सिख एकता का रूप बताया जाता है, वह मनगढ़ंत प्रचार अधिक है। द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी-जापान की पराजय के बाद जब अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज के कुछ कमांडरों का 1945-46 में कोर्ट मार्शल किया, तो उस में दी गई गवाहियों में इस के कई प्रमाण मिले।… सहगल के अनुसार मुस्लिम कमांडरों द्वारा आई.एन.ए. छोड़ने का आम मुस्लिम सैनिकों पर मनोवैज्ञानिक तथा देखा-देखी असर पड़ा। इस तरह, तुर्की द्वारा अंग्रेजों का साथ देते ही सुभाष बाबू की फौज ढहने लगी। propaganda Azad Hind Fauj
अतः सुभाष बाबू की ‘आजाद हिन्द फौज’ को जिस सेक्यूलर हिन्दू-मुस्लिम-सिख एकता का रूप बताया जाता है, वह मनगढ़ंत प्रचार अधिक है। द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी-जापान की पराजय के बाद जब अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज के कुछ कमांडरों का 1945-46 में कोर्ट मार्शल किया, तो उस में दी गई गवाहियों में इस के कई प्रमाण मिले। उदाहरण के लिए, ढिल्लों-सहगल के बराबर ओहदे के कैप्टेन अब्दुल राशिद अली ने कहा कि वह इस्लाम की सेवा करने और आजाद हिन्द फौज में हिन्दू-सिखों का वर्चस्व कमजोर करने, या भीतरघात करने के लिए जुड़ा थे। उस ने कहा कि आजाद हिन्द फौज में अधिकांश मुस्लिम उसी मकसद से आए थे। क्योंकि तब लग रहा था कि आजाद हिन्द फौज जीत कर भारत पर अधिकार कर लेगी।
उस कोर्ट मार्शल में खुद मेजर शाहनवाज खान ने यही कहा कि वे तो आई.एन.ए. में उसे भीतर से तोड़ने की मंशा से ही जुड़े थे। लेकिन सुभाष बाबू के आने के बाद उन की भावना बदली। एक फौजी मुहम्मद हयात ने गवाही में बताया कि बर्मा में आई.एन.ए. के मेजर अजीज अहमद ने भारतीय युद्धबंदियों की उस की टोली में आकर कहा कि आई.एन.ए. के कुछ हिन्दू और सिख सैनिक उन्हें मारने आ रहे हैं, क्योंकि उन्होंने गाय का कत्ल किया है। इसलिए वे जान बचाना चाहें तो आई.एन.ए. में आ जाएं, जिस से उन्हें भी हथियार मिल जाएंगे। जबकि वास्तव में ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी। अजीज अहमद ने उन्हें इस तरह आई.एन.ए. में शामिल कराया। इस से आई.एन.ए. के बड़े मुस्लिम कमांडरों की मानसिकता का पता चालता है।
आई.एन.ए. पर जापानियों द्वारा तैयार दस्तावेजों में भी कई तथ्य मिलते हैं। जैसे, एक बड़े आई.एन.ए. कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल गिलानी और उस के सहायक महमूद खान दुर्रानी को बाद में अंग्रेजों ने बाकायदा मेडल से सम्मानित किया। क्योंकि वे शुरू से ही ब्रिटिश एजेंट के रूप में उस में थे, जिस से अंग्रेजों को महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती रही थीं।
1945 में मणिपुर और बर्मा में आई.एन.ए. के दस्तों में आपसी धोखा-धड़ी, भीतरघात, तथा दस्ते छोड़ने की घटनाएं हुई। स्वयं कर्नल प्रेम कुमार सहगल की डायरी से इस के कारणों का पता चलता है। वे उन घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे। उन्हें सुभाष बाबू ने उन भीतरघात और बगावत की जाँच करने कहा था। सहगल ने पाया कि फरवरी 1945 में तुर्की द्वारा ब्रिटेन के पक्ष में युद्ध में जुड़ने की घोषणा का आई.एन.ए. के कई मुस्लिम कमांडरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। तुर्की इस्लामी खलीफा का केंद्र रहा था, इसलिए जब वह अंग्रेजों की ओर हो गया तो मुसलमानों ने आई.एन.ए. छोड़ना ठीक समझा। (जैसे भारतीय कम्युनिस्ट भी हिटलर द्वारा जून 1941 में सोवियत संघ पर हमला करते ही अंग्रेजों के वफादार बन गए, क्योंकि अंग्रेज हिटलर के विरुद्ध लड़ रहे थे।)
सहगल के अनुसार मुस्लिम कमांडरों द्वारा आई.एन.ए. छोड़ने का आम मुस्लिम सैनिकों पर मनोवैज्ञानिक तथा देखा-देखी असर पड़ा। इस तरह, तुर्की द्वारा अंग्रेजों का साथ देते ही सुभाष बाबू की फौज ढहने लगी। यह लगभग चार सदी पहले टालीकोटा की लड़ाई में विजयनगर के महाराजा के साथ हुए धोखे जैसा दुहराव था, जब उन के विश्वासपात्र मुस्लिम कमांडर ‘अल्लाहो-अकबर’ कहते हुए हमलावर सुलतान से जा मिले थे। (यह 1915 में ब्रिटिश सेना में भी हुआ, जब सिंगापुर और यूरोप में भी मुस्लिम सैनिकों ने बगावत कर अपने कई अफसरों को मार डाला और भाग गए, क्योंकि उन्हें तुर्की के खिलाफ लड़ने भेजे जाने का आशंका हुई।)
जब द्वितीय विश्व-युद्ध खत्म हो गया, आई.एन.ए. बिखर गया, और अगस्त 1945 में सुभाष भी मारे गए या गुम हो गए। तब आई.एन.ए. फौजियों का क्या हुआ? अधिकांश मुस्लिम कमांडरों को मुस्लिम लीग ने अपने कार्यकर्ताओं को ‘ट्रेनिंग’ देने के लिए जोड़ लिया। लीग ने 1945-47 के बीच क्या किया था, यह जगजाहिर है। फिर देश-बँटवारे बाद आई.एन.ए. वाले अधिकांश मुस्लिम फौजी पाकिस्तान चले गए। उन में ब्रिगेडियर हबीबुर्रहमान भी थे, जो 18 अगस्त 1945 को उस जापानी विमान में थे जिस दुर्घटना में सुभाष बाबू की मृत्यु हुई मानी जाती है। उस विमान में सुभाष के साथ दूसरे साथी केवल हबीबुर्रहमान थे। पर हबीबुर्रहमान घायल होकर बच गए। वे सुभाष के बाद आई.एन.ए. के सर्वोच्च कमांडर थे। उसी हबीबुर्हमान ने पाकिस्तान की ओर से कश्मीर पर 1947 में पहले हमले का नेतृत्व किया। हबीबुर्रहमान ने ही कश्मीर में घुसपैठ करके हमला करने वाले कबाइलियों को प्रशिक्षित भी किया था।
इस तरह, आजाद हिन्द फौज की ‘सेक्यूलर’ छवि भारी तौर पर अतिरंजित और झूठी बनाई गई है। परन्तु यह मुस्लिमों ने नहीं, हर तरह के हिन्दू नेताओं, लेखकों, इतिहासकारों ने किया है।
यह पूरा प्रसंग पिछले सौ साल से बड़े-बड़े हिन्दू नेताओं द्वारा एक ही भूल दुहराए जाने का त्रासद उदाहरण है। वे मुस्लिम राजनीति, इस्लामी मतवाद तथा अपनी योग्यता का गलत आकलन करते हैं। वे इस्लामी अपीलें कर-करके मुस्लिमों को जिहादी खुराक देते हैं, किन्तु सोचते हैं कि उन का उपयोग हिन्दू-मुस्लिम एकता बनाने में कर सकेंगे। ऐसा कभी नहीं होता, परन्तु नए-नए सेक्यूलरवादी हिन्दू नेता अज्ञान और घमंड में वही दुहराते हैं। जबकि मुस्लिम नेता अपनी सदियों पुरानी, सहज इस्लामी टेक दुहराते हैं।
अतः इस प्रवंचना में मुसलमानों का दोष नहीं है। उन के नेता, संगठन, और संस्थान अपनी भावनाएं कभी नहीं छिपाते। वे साफ-साफ इस्लामी वफादारी को सर्वोपरि रखते हैं। ये हिन्दू नेता हैं जो हिन्दू हितों की बात न करके, किसी व्यावहारिक, बराबरी के समझौते के बजाए एकतरफा इस्लामी तुष्टीकरण की झोंक में चलते जाते हैं। मानो हिन्दू-हित जैसी कोई चीज नहीं हो! यह भूल चित्तरंजन दास, गाँधी, सुभाष, शरत से लेकर आज तक हिन्दू नेताओं में एक जैसी चली आ रही है। इस का दुष्परिणाम कभी उस से भिन्न नहीं होगा, जो पहले हो चुका है। हालाँकि हर नया हिन्दू नेता अपने को पिछले धोखा खाए हिन्दू नेताओं से बड़ा तीसमार खाँ समझता है! पर वस्तुतः उस की भूल पहले वाले से अधिक बड़ी होती है।
आज के नेता जो ‘राष्ट्रवाद’, ‘देशभक्ति’, अथवा ‘पूर्वज, डीएनए समानता’ की बातें कर अपनी लफ्फाजी पर खुद मोहित हैं, वे सौ साल पहले की दुनिया में जी रहे हैं। वे इतिहास ही नहीं, वर्तमान से भी सूरदास प्रतीत होते हैं। आज दुनिया में राष्ट्रवाद नहीं, सभ्यताओं की लड़ाई चल रही है। यूरोप, उत्तर अमेरिका, उत्तर अफ्रीका, तुर्की या पाकिस्तान में कोई राष्ट्रवादी विवाद/ विमर्श नहीं है। हर कहीं मुसलमान अपने को इस्लामी सभ्यता का अंग मान कर सोचते हैं। यह मुसलमानों ने बार-बार खुल कर दर्शाया है। यहाँ तक कि पाकिस्तान या सऊदी अरब में भी इस्लाम के लिए अनेकानेक मुस्लिम अपने ही देश पर चोट करते हैं। वे राष्ट्रवाद, परिवार, नस्ल की सीमाएं नहीं मानते। क्योंकि इस्लाम की एक मात्र सीख पूरी दुनिया को इस्लामी बनाना है। उस में राष्ट्रवाद, देश, या परिवार-प्रेम जैसी कोई चीज ही नहीं।
अतः हिन्दुओं को सचाई से आँख मिलाकर अपनी सभ्यता की चिंता करनी चाहिए। राष्ट्रवादी, भौगोलिक, या आडंबरी शब्दावली के अपने ही बनाए जाल में फँसकर वे अपनी बची-खुची सभ्यता भी खो देंगे। हिन्दू नेता ऐसे मुहावरे बोलते हैं जिन्हें दूसरा पक्ष नहीं मानता। सो, उस से हिन्दू जनता ही भ्रमित होती है।
यह सब बातें आसानी से परखी जाने वाली हैं। मुस्लिम नेता व संगठन बेलाग अपनी इस्लामी वफादारी लहराते हैं। जबकि हिन्दू नेता और संगठन चार दिन भी किसी नारे, प्रतीक, कार्यक्रम, या अपने प्रेरणा-पुरुषों पर भी टिके नहीं मिलते। संघ-भाजपा द्वारा वीर सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हिन्दू विरासत को ताक पर रख इस्लाम-परस्त गाँधीजी और सुभाष बाबू का नए सिरे से महिमामंडन वैसी ही नई तिकड़म है। इस से केवल हिन्दू भटकाए जा रहे हैं।