
Movie Review: राजा और जंगलों के देव की कहानी तीन कालखंडों में घूमती है
विपुल रेगे। कांतारा एक घना जंगल है। जितना घना ये जंगल है, उतना ही घना इसका रहस्य है। कांतारा के वनवासी एक देव को पूजते हैं। ये देव उनकी रक्षा करता है। इस कथा को फिल्म के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। ये कथा न काल्पनिक है और न पूरी तरह सच। जंगल के कोहरे की तरह इसकी हकीकत कुछ धुंधली है, लेकिन हकीकत है ज़रुर। इस फिल्म की कथा वनवासियों के मुंह से निकली है। कहते हैं दंतकथाएं वास्तविकता का पुट लिए हुए रहती है। इन दंतकथाओं की वास्तविकता कर्नाटक के तुलु नाडु, मेलांडू और केरल के कासरगोड़ के जंगलों में बिखरी पड़ी है। कांतारा के देव सिल्वर स्क्रीन पर प्रकट हुए हैं।
फिल्म के निर्देशक ऋषभ शेट्टी ने कांतारा के माध्यम से मानव और प्रकृति के चिरंतन युद्ध को प्रस्तुत किया है। इस कथा के माध्यम से ऋषभ एक संदेश देते हैं कि वनभूमि और मानवों को एक दूसरे का सम्मान करना सीखना चाहिए। निर्देशक के जीवन का एक हिस्सा जिस जंगल के आसपास बीता, वहां तीस वर्ष पूर्व कुछ रहस्यमयी घटनाएं हुई थी। शेट्टी की कहानी के बीज उन्ही घटनाओं की देन है।
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निर्देशक ने कहानी को तीन विभिन्न कालखंडों में बाँट दिया है। इसके चलते फिल्म रोचक बन जाती है। पहले कालखंड से कांतारा की कहानी शुरु होती है। सन 1870 में एक राजा शांति की खोज में जंगल-जंगल भटक रहा है। उसे जंगल के बीच एक देव मिलते हैं। देव को देखते ही राजा का मन सुख-शांति से भर जाता है। राजा वनवासियों से कहता है कि इन देव की मूर्ति उसे दे दे, बदले में कुछ भी मांग ले।
तब देव एक वनवासी के शरीर में आते हैं और राजा से बात करते हैं। देव राजा के महल में जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। बदले में वे कहते हैं उनकी दहाड़ जहाँ तक जाएगी, उतनी भूमि राजा को वनवासियों को देनी होगी। राजा इस प्रस्ताव को स्वीकार करता है। दूसरा कालखंड सन 1970 का और तीसरा 1990 का है। देव इन तीन वर्षों में तीन बार प्रकट होते हैं। देव का तीसरी बार का प्रकटीकरण अत्यंत विकराल दिखाया गया है।
इस देव कथा के बैकग्राउंड में कर्नाटक की प्राचीन उपासना परंपराएं दिखाई गई है। इनमे एक बुता कोला भी है। बुता कोला की परंपरा को फिल्म में विस्तार से दिखाया गया है। इस प्रकार के स्थानीय देवी-देवता भारत के हर ग्राम में विद्यमान है। कई बार ये देवता पशु का रुप लिए भी रहते हैं। जैसे कासरगोड़ में हाल ही में मंदिर के कुंड में रहने वाले मगरमच्छ बाबिया के मरने पर विधि विधान से उसका अंतिम संस्कार किया गया।
फिल्म में पशु-प्रकृति-मानव का संबंध सुंदरता से दिखाया गया है। कहानी में एक जुझारु बलशाली युवा है, एक कुटिल धनिक गैंगस्टर है, एक निष्ठावान रेंजर है। एक अच्छा कंट्रास्ट बनता है। फिल्म का क्लाइमैक्स इसकी जान है। इसका संपूर्ण निचोड़ इसके अंतिम एक्शन सीक्वेंस में है। फिल्म को मूल कन्नड़ भाषा में बनाया गया है। ऋषभ शेट्टी ही केंद्रीय भूमिका में दिखाई दिए हैं। उन्होंने अपने पात्र को सुंदर ढंग से पेश किया है।
शेट्टी के साथ सप्तमी गौड़ा, किशोर कुमार जी., अच्युत कुमार, प्रमोद शेट्टी ने स्वाभाविक अभिनय किया है। सिनेमेटोग्राफी बहुत अच्छी है और एक्शन सीक्वेंस भी आकर्षक है। इसका कलेक्शन देखकर ट्रेड पंडितों के होश उड़ जाएंगे। अब तक फिल्म सौ करोड़ का कलेक्शन कर चुकी है। हिन्दी बेल्ट में भी इसे अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है। यदि आप सस्पेंस/एक्शन/हॉरर श्रेणी की फ़िल्में देखना पसंद करते हैं तो कांतारा देख सकते हैं। ये फिल्म अपनी विषयवस्तु के कारण बच्चों को दिखाई नहीं जा सकती। ये वयस्क दर्शकों की फिल्म है।
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