Pushker Awasthi| कल भारत माता के सर्वोत्तम पुत्रो में से एक वीर विनायक दामोदर सावरकर जी का जन्म दिवस (28 May 1883 – 26 February 1966) था, जिनको आज लोग, ‘वीर सावरकर’ के नाम से उद्बोधित करते है। सावरकर जी उन स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों में से है, जिनके योगदान को, कांग्रेस की सरकारों और वामपंथी इतिहासकारो द्वारा स्वतंत्रता के बाद से ही नकारा है और उनको इतिहास में वह सम्मान कभी नही दिया गया, जिसके वह वास्तविक अधिकारी थे।
वीर सावरकर एक ऐसे क्रन्तिकारी थे, जिन्होंने ने अपनी लेखनी से क्रांति का न सिर्फ बिगुल बजाया था बल्कि 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के सभी क्रांतिकारियों में अलख जगाई थी। आज का सत्य यही है की उस काल में भारत में क्रांति की मशाल को सावरकर की लेखनी ने ज्वाला दी थी।
यह सावरकर जी ही थे जिन्होंने 1857 में अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह को ‘सिपोय म्यूटिनी’ कहे जाने को पूर्णता अस्वीकार करते हुए इसे भारत का ‘स्वंत्रता संग्राम’ कहा था और सर्वप्रथम एक प्रमाणिक इतिहास,’द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस 1857′ लिखा था। यह मूलतः मराठी में लिखी गयी थी लेकिन छपने से पहले ही इसकी मूल प्रति जब्त कर, अंगेजों ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसको बाद में अंग्रेजी में लिखा गया लेकिन इसके प्रकाशन में आती हुयी दिक्कत को देखते हुए वह हॉलॅंड में छापी गयी और फिर फ्रांस के रास्ते उसकी प्रतियां भारत पहुंची थी। प्रतिबंधित होने के कारण यह किताब एक छद्म नाम, ‘ऐन इन्डियन नेशनलिस्ट(एक भरतीय राष्ट्रवादी)’ से छापी गयी थी।
वीर सावरकर के पुरे क्रन्तिकारी दर्शन पर इटली के प्रख्यात राजिनैतिक विचारक गुइसेप्पे मज़्ज़नि का बहुत प्रभाव था जिसको उनकी जीवनी में कई बार स्वीकार किया गया है। वीर सावरकर ने भारत में क्रांति की अलख जगाने और लोगों को क्रांति के लिए प्रेरित करने के लिए, क्रांतिकारियों और क्रांतियों पर लेखन करने का मार्ग चुना था। क्रन्तिकारी की जो व्याख्या सावरकर जी ने अपने लेखन के द्वारा की है उसका अर्थ समझने में कुछ लोगो को दिक्कत आती थी क्यूंकि उनका लेखन उनके विचारो को कोई व्यवस्थित आलोचनात्मक स्वरूप नही देता है और इसी लिए, बाद के, वाद में बंधे इतिहासकारों ने सावरकर और उनके लेखन की उपेक्षा की है। भारत के वामपंथी इतिहासकार, सावरकर की अवधारणा की ‘एक क्रांति के युद्ध के संभव होने में, क्रन्तिकारी की महत्ता होती है’ को निरर्थक मानते है।
उनका लेखन किसी भी वाद से नही बंधा था। 1910 के दशक में वो राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ जो भी लिख रहे थे, उसको भिन्न भिन्न विचारो के लोग पढ़ने लगे थे। उनके इंग्लॅण्ड और भारत में सरकारी कर्मियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने के समर्थन ने उनके लेखों की पहुँच दूर तक पहुंच गयी थी और अंतराष्ट्रीय स्तर पर एक क्रन्तिकारी विचारक के रूप में प्रतिष्टित हो गए थे। उनके लेखो का स्वागत जहाँ राष्ट्रवादियों, क्रांतिकारियों, साम्राज्यवाद के विरोधियों, सोशलिस्टों द्वारा किया जाता था वहीं उसका स्वागत अनार्चिस्ट,नाज़ी और फासिस्ट भी करते थे।
जब 1910 में वीर सावरकर को अंतोगत्वा ब्रिटिश राज के खिलाफ काम करने के लिए इंग्लैंड में गिरफ्तार कर लिया गया और उनको भारत मुकदमे के लिए वापस भेजा गया तब उनके जीवन का एक नए अध्याय का आरंभ हुआ था।
सावकार जी को जब 1910 में इंग्लैंड में गिरफ्तार करके भारत भेजा जारहा था तब वह रास्ते में पानी की जहाज से कूद गए और तैर कर फ़्रांस पहुंच गए थे। वहां बदकिस्मती से फ्रेंच पुलिस उनकी बात समझ पायी और उन्हें इंग्लैंड के हाथो फिर से सौपा दिया गया। भारत आकर उन पर मुकदमा चला और उनको 1911 में दो बार जीवन कारावास की सज़ा सूना कर कालापानी की सज़ा काटने के लिए अंडमान के सैल्यूलर जेल भेज दिया गया, जहाँ भी उन्होंने जेल की दीवारो पर अपना लिखने का काम जारी रक्खा था। 1921 में उनको अंडमान से भारत की जेल में भेज दिया गया और वहां नजरबन्दी का जीवन व्यतीत करते रहे।
उसी वक्त 1926 में सावरकर जी की जीवनी, चित्रगुप्त लिखित ‘लाइफ ऑफ़ बेरिस्टर सावरकर’, प्रकाशित हुयी लेकिन वह तुरन्त ही अंग्रेज शासको द्वारा प्रतिबंधित कर दी गयी थी। इस जीवनी में, सावरकर की 1883 से जन्म लेकर 1911 तक की जीवन यात्रा थी। यह उनका वह काल था जिसमे उन्होंने अपने विचारो को समृद्ध किया था और क्रांति की सार्थकता को प्रमाणिक किया था। सावरकर जी का लेखन जहाँ अंतराष्ट्रीय स्तर पर लोगो को प्रभावित कर रहा था वही उनकी प्रतिबंधित पुस्तके चोरी छिपे भारत के नवजवानों को क्रन्तिकारी बनने और क्रांति करने के लिए प्रेरणा दे रही थी।
भारत के क्रांतिकारियों में सावरकर जी का क्या महत्व है यह इस बात से समझा जासकता है की जब 1928 में भगत सिंह और सुखदेव उत्तर भारत के नवजवानों को अपने संघठन HSRA में शामिल करते थे तो पहले साक्षत्कार में हर नवजवान से यह पूछा जाता था की उन्होंने निकोलाई बुखरीन की ‘एबीसी ऑफ़ कोम्युनिस्म’, डेनियल ब्रीन की ‘द फाइट फॉर आयरिश फ्रीडम’ और चित्रगुप्त की ‘लाइफ ऑफ़ बेरिस्टर सावरकर’ पढ़ी है की नही। यदि नही पढ़ी होती तो पहले उसको पढ़ने की आज्ञा दी जाती थी। सावरकर जी की यह जीवनी 1936 में उनके जेल से निकलने के बाद, 1939 में संशोधित संस्करण में फिर प्रकाशित हुयी थीं। इसका ओरिजिनल संस्करण उनकी 1966 में मृत्यु के बहुत बाद, उनके भाई ने 1987 में प्रकाशित करवाया था और तब पहली बार यह सत्य उजागर हुआ था की चित्रगुप्त, एक छद्म नाम था और उसके मूल लेखक स्वयं सावरकर जी ही थे। सावरकर जी की ‘इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस 1857’ तो क्रांतिकारियों के लिए एक अनिवार्य पुस्तक थी और इस पुस्तक को HSRA चोरी से छपवा कर बांटने का भी काम करती थी।
सावरकर जी की इस किताब का असर, क्रांतिकारियों के प्रयास विफल होने के बाद भी बराबर बना रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध में जब रासबिहारी बोस ने ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज़’ का गठन किया था तब ‘इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस’ की प्रतियां फौजियों के बीच पढ़ने के लिए बांटी थी। जब सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फ़ौज़ की कमान संभाली तब फ़ौज़ में उसका तमिल में अनुवाद भी देखा गया था, यह शायद सैनिको में दक्षिण भारतियों की संख्या को देखते हुए किया गया था।
यह भारत का दुर्भाग्य रहा है की भारत के इस महान क्रन्तिकारी दार्शनिक बुद्धजीवी को स्वतन्त्रता के बाद से ही कांग्रेसियों और वामपंथियों ने नेपथ्य में धकेलने के लिए लगातार उनके नाम पर कीचड़ उछालते रहे है। वीर विनायक दामोदर सावरकर के महत्व को भारतीय जनमानस की स्मृतियों से ओझल करने के लिए, कांग्रेस और उनके सहयोगी वामपंथी इतिहासकारों और बुद्धजीवियों ने, अंतराष्ट्रीय स्तर पर उनके पड़े प्रभाव और भारत की स्वतंत्रता संग्राम में उनके अभूतपूर्व योगदानो को शिक्षा के पाठ्यक्रमों और इतिहास के पन्नों से हटाते रहे है।
मैं समझता हूँ जी भारत के हर राष्ट्रवादी को इनकी यह दो पुस्तके ‘इंडियन वार ऑफ़ इंडिपेंडेंस 1857’ और ‘लाइफ ऑफ़ बैरिस्टर सावरकर’ अवश्य पढ़नी चाहिए और उनके दर्शन को आज के सन्दर्भों में मनन करना चाहिए।
साभार:
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सावरकरजी का नाम ही काफ़ी है. अपने मे जोश और देशभक्ति का भावना एक ज्वाला जैसी उभरके आतीहै वोही सावरकर है.