Sc/st एक्ट पर गैर अनुसूचित जातियों के भारत बंद को सवर्णो का बंद साबित कर जातिवादी राजनीतिक दलों से साबित कर दिया की देश को जातियों में बांटने से ही उनकी राजनीति चमक सकती है। हिंदुस्तान का विभाजन तो मजहब के आधार पर हुआ लेकिन सात दशक से आजाद भारत की पूरी राजनीति देश को जातियों में बांटने और सेकुलरिज्म के नाम पर हुई। सेकुलरिज्म के नाम पर हिंदु मुस्लिम एकता की बात करने वालों ने कभी हिंदु जातियों की एकता की बात नहीं की। 30 मार्च के एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जब 2 अप्रैल को देश भर में दलितों ने आंदोलन किया तो आंदोलनकारियों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सच बताने के बदले उन्हें गुमराह किया गया। जाति पर राजनीति करने वाले क्षेत्रिए दलों से लेकर सेकुलरिज्म की बात करने वाले कांग्रेस और वाम दलों ने भी यह भ्रम फैलाया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार की नीयत का पता चलता है जो दलितों से उसका आरक्षण छीन लेना चाहती है। भ्रम ऐसा फैला कि सरकार के दलित मंत्रियों ने भी बगावत के सुर लगाने शुरु कर दिए। परिणाम यह हुआ कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट जाकर पूनर्विचार याचिका दाखिल करना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने वह याचिका भी यह कह कर खारिज कर दिया कि हमारे फैसले को पढ़े बिना लोग सड़क पर आ गए। हमने दलित एक्ट में कोई बदलाव नहीं किया है बस निर्दोषों के साथ कोई अन्याय न हो इसीलिए थोड़ा बदलाव किया। इस देश में शायद पहली बार हुआ कि अपने फैसले पर सुप्रीम कोर्ट को सफाई देनी पड़ी।
Sc/st सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 2 अप्रैल 2018 को जब देश भर में दलितों के बंद के कारण आगजनी में अरबो की संपत्ति नष्ट हुई, आठ लोगों की जान गई तो सुप्रीम कोर्ट अपने उस आदेश पर मौन हो गई जिसमें कहा गया है कि किसी भी प्रकार के आंदोलन में सरकारी संपत्ति को नष्ट करने संगठनों को ही जुर्माना लगाया जाएगा। सरकार के पुनर्विचार याचिका पर शीर्ष अदालत ने मानो सफाई देते हुए हमने एक्ट को कमजोर नहीं किया है बल्कि गिरफ्तारी और सीआरपीसी के प्रावधान को परिभाषित किया है। शीर्ष अदालत ने तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान को लेकर कहा कि हमारा मकसद निर्दोष लोगों को फंसाने से बचाना है। निर्दोषों के मौलिक अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। जब सरकार ने दलील दी कि देश भर में आंदोलन से अरबों की संपत्ति नष्ट हुई तो माननीय न्यायाधीश से कहा कि कोर्ट के बाहर क्या हो रहा है हमें उससे मतलब नहीं। हमारा काम कानूनी बिंदुओं पर बात करना और संविधान के तहत कानून का आकलन करना है। जबकि इसी सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी तरह के बंद में सरकारी संपत्ति नष्ट किए जाने वालों पर उसके भुगतान करने का कानून बनाया था। लेकिन 2 अप्रैल 2018 को जो अरबों की संपत्ति नष्ट हुई उसके भूगतान की जिम्मेदारी किसी संगठन पर नहीं सौंपी गई। 6 सितंबर को भी एक बंद हुआ लेकिन उसमे जानमाल के नुकसान न होने से साबित हुआ कि आंदोलन जब राजनीति रंग में रंगा होता है तभी सरकारी संपत्ति नष्ट किए जाते हैं। जानमाल की हानि होती है।
उधर अनुसूचित जातियों के बंद से हुई तबाही के बाद सरकार के पुनर्विचार याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एससी-एसटी एक्ट में पीड़ित को मुआवाजा देने में देरी नहीं होगी। उसके लिए एफआईआर के इंतजार की जरूरत नहीं है। केंद्र सरकार की ओर से बार-बार 20 मार्च के फैसले पर स्टे लगाने के आदेश को कोर्ट ने ठुकरा दिया। सुप्रीम कोर्ट ने प्रदर्शनकारियों पर तंज कसते हुए यह तो कहा है कि जो लोग सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं उन्होंने हमारा जजमेंट पढ़ा भी नहीं है। लेकिन अरबो की संपत्ति नष्ट करने वालों पर कानूनी कार्रवाई का कोई आदेश नहीं दिया। बस इतना जरुर कहा कि हमें उन निर्दोष लोगों की चिंता है जो जेलों में बंद हैं। सुप्रीम कोर्ट कि इस सफाईपूर्ण टिप्पणी के बावजूद भी देश में यह भ्रम फैला दिया गया कि दलित एक्ट को कमजोर किया जा रहा। यह सुप्रीम कोर्ट को यह फैसला इसलिए लेना पड़ा था क्योंकि महाराष्ट्र के एक सरकारी अधिकारी सुभाष काशीनाथ के खिलाफ उनके जुनियर ने शिकायत दर्ज की थी काशीनाथ के वरिष्ठ अधिकारियों ने डिपार्टमेंटल जांच में उनके खिलाफ आरोप को गलत मानने के बाद कारवाई नहीं की थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि उसे जातिसूचक शब्द से अपमानित किया गया था। सच यह था कि गैर अनुसूचित जाति के अधिकारी ने उस व्यक्ति के खिलाफ वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट पर टिप्पणी की थी। बचाव पक्ष का कहना थी कि अगर किसी अनुसूचित जाति के खिलाफ ईमानदार टिप्पणी करना अपराध हो जाएगा तो सरकारी काम करना मुश्किल हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की गंभीरता को समझते हुए ही दलित एक्ट तत्काल गिरफ्तार करने के प्रावधान में रोक लगा दिया। लेकिन शिकायत पर तुरंत मामला दर्ज करने और जांच किए जाने के बाद किसी भी प्रकार के संदेश पर गिरफ्तारी के बुनियादी कानून में कोई बदलाव नहीं किया ।
अब सरकार जो कानून ला रही है उसमें मामला दर्ज करने के लिए किसी भी प्रारंभिक जांच की जरुरत नहीं है। साथ ही इस कानून के तहत गिरफ्तारी के लिए किसी प्रकार के मंजूरी की जरुरत नहीं है। सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट जिसे अमानवीय मान रहा उस पर राजनीति क्यों हो रही है! उस अमानवीय कानून पर भारत सरकार बैकफूट पर आने को मजबूर क्यों हुई! जब सरकार ने अध्यादेश लाया तो कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष ने अपने शुर क्यों बदलने शुरु कर दिए। यह पुरा कानून जो देश के पूरे गैर अनुसूचित जाति जनजाति के खिलाफ अमानवीय है उसे सिर्फ सवर्णों के साथ क्यों चस्पा कर दिया गया! 6 सितंबर को जब सवर्णों के साथ पिछड़ी जातियों को भी सड़को पर देखा गया बावजूद इसके इसे सवर्णो का बंद साबित किया गया। सिर्फ इसलिए ताकि पूरे समाज को जाति में बांट राजनीति करते हुए देश कमजोर किया जा सके।
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