अजय शर्मा, वाराणसी। सचैलमादौ संस्नाय चक्रपुष्करिणीजले।
सन्तर्प्य देवान् सपितृन् ब्रह्माणाश्च तथार्थिनः।।
आदित्यं द्रौपदीं विष्णुं दण्डपाणिं महेश्वरम्।
नमस्कृत्य ततो गच्छेद्द्रष्टुं ढुण्ढिविनायकम्।।
ज्ञानवापीमुपस्पृश्य नन्दिकेशं ततो अर्चयेत्।
तारकेशं ततोभ्यर्च्य महाकालेश्वरं ततः।।
ततः पुनर्दण्डपाणिमित्येषा पंचयतीर्थिका।
दैनन्दिना विधातव्या महाफलमभीप्सुभिः।।
मणिकर्णिका में स्नान , सन्ध्या तर्पण से निवृत्त होकर ,मुक्तिमण्डप के पांचों देवताओं ( द्रौपदी , द्रुपदादित्य , विष्णु जिन्हें आजकल सत्यनारायण कहा जाता है , दण्डपाणि और महेश्वर) को प्रणाम करते हुए ढुण्ढिराज का पूजन ,तदुपरांत ज्ञानवापी के जल से स्नान अथवा स्पर्श , नन्दिकेश्वर , तारकेश्वर महाकालेश्वर और पुनः दण्डपाणि का पूजन करें तदुपरान्त विश्वेश्वर का पूजन करें। (काशी खण्ड , त्रिस्थलीसेतु पृष्ठ संख्या २१४)
यह क्रम शास्त्रीय है जो अब महान विकास पुरुष प्रातः स्मरणीय पराक्रमी प्रधान सेवक जी ( काशी को क्योटो बनाने का स्वप्न देखने वाले) कृपा से खण्डित हो गया है। इस महान कृपा के कारण दानव , राक्षस , असुर , अंधभक्त आदि परम आह्लादित हो कर राग श्री में गायन करते हुए रूद्र ताल में नृत्य कर रहे हैं।