विपुल रेगे। वरुण धवन की ‘भेड़िया’ देखते हुए अहसास होता है कि ये दूसरी ‘कांतारा’ सिद्ध हो सकती थी। ‘भेड़िया’ भी कांतारा की तरह जंगल से जुड़ी कहानी है लेकिन भारतीय मन वाले दर्शक को नहीं भाती। 60 करोड़ की लागत से बनी भेड़िया को औसत ओपनिंग प्राप्त हुई है। दर्शकों की प्रतिक्रियाएं बता रही है कि वरुण धवन और कृति सेनन की भेड़िया को अच्छे कलेक्शन के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।
बॉलीवुड के पास हमेशा अच्छी कथाएं होती हैं लेकिन वह उन कथाओं का सत्यानाश कर देता है। भेड़िया की कथा एक सुंदर मोड़ ले सकती थी लेकिन निर्देशक की थिंकिंग प्रोसेस उस दिशा में गई ही नहीं। फिल्म की कहानी अरुणाचल प्रदेश के जंगलों से शुरु होती है। यहाँ के लोग किसी ‘विषाणु’ पर विश्वास करते हैं। जब कोई व्यक्ति जंगल को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता है तो विषाणु सक्रिय हो जाता है।
ये विषाणु नामक शक्ति एक भेड़िये के रुप में जंगल में घूमती है। भास्कर अरुणाचल प्रदेश में एक सड़क बनवाने के लिए आया है। लागत बचाने के लिए वह जंगल के बीच से सड़क बनाना चाहता है। विषाणु को ये बात पसंद नहीं आती। एक रात भास्कर को भेड़िया काट लेता है और भास्कर स्वयं एक आदमखोर भेड़िये के रुप में परिवर्तित हो जाता है। पूर्णिमा की रात भास्कर भेड़िया बनकर किसी न किसी की हत्या कर देता है।
गांव में बात फ़ैल जाती है कि विषाणु फिर से सक्रिय हो गया है। ‘भेड़िया’ की कथा में वह तत्व गायब है, जिस तत्व के कारण ‘कांतारा’ मूवी ऑफ़ द नेशन बन गई। वह तत्व था धर्म। धर्म इस फिल्म की यूएसपी हो सकता था। कांतारा में जंगली सूअरों को बचाने के लिए कांतारा देव का पुनरागमन होता है। ऐसी ही कहानी भेड़िया की भी है लेकिन जंगल को बचाने वाली शक्ति का नाम ही ‘विषाणु’ रख दिया गया।
जंगल और उसके लोगों को बचाने वाली शक्ति ‘विषाणु’ कैसे हो सकती है। निर्देशक अमर कौशिक को हॉरर-कॉमेडी ‘स्त्री’ के लिए जाना जाता है। भेड़िया में वे ‘स्त्री’ वाला परफॉर्मेंस नहीं दे सके हैं। कहानी को ‘धर्म’ से जोड़ने वाले वॉव मूमेंट से निर्देशक चूक गए। कॉमेडी के साथ हॉरर को जोड़ने का प्रयोग बहुत खतरनाक सिद्ध होता है, यदि ये प्रयोग दिमाग से न किया जाए। कॉमेडी यहाँ बेअसर रही है।
पहले तो कथा में दैवीय शक्ति को ‘विषाणु’ बताया गया और कॉमेडी के नाम पर कोई हास्य कलाकार न रखकर फिल्म का बैलेंस और बिगाड़ दिया गया। भारत में हॉरर फिल्मों की सफलता का प्रतिशत बहुत कम आंका गया है। भारत में अधिकांश हॉरर फ़िल्में पिट जाती हैं। सफल वही होती है, जिनमे अंत सुखद हो और बुराई को पराजित करने हेतु दैवीय शक्ति का सहारा लिया गया हो।
हॉरर में निराशाजनक अंत भारतीय पट्टी में नहीं चलता। फिल्म न मनोरंजन कर सकी और न ही भयभीत कर सकी। ये हॉरर और कॉमेडी के बीच में झूलती रह गई है। वरुण धवन का अच्छा अभिनय फिल्म को कोई व्यावसायिक लाभ नहीं देगा। कृति सेनन का किरदार बेअसर रहा है। दीपक डोबरियाल और अभिषेक बनर्जी जैसे अच्छे कलाकारों से निर्देशक सही काम नहीं ले सके।
सवाल ये है कि इस बेजान फिल्म से दर्शक को क्या मिला ?आखिरकार दर्शकों तक क्या डिलीवर हुआ ? बॉलीवुड भारत की जड़ों से कटा हुआ है, ये ‘भेड़िया’ से फिर सिद्ध हुआ है। ‘भेड़िया’ से एक लोक देवता बॉलीवुड के लिए भी जन्म ले सकते थे और उसे उबार सकते थे लेकिन बॉलीवुड एक दैवीय शक्ति को ‘विषाणु’ के रुप में देखे तो कुछ नहीं किया जा सकता। बस यही वह कमज़ोर कड़ी थी, जिस पर ध्यान दिया जाता तो ‘भेड़िया’ की सबसे बड़ी शक्ति बन जाती।