वामपंथियों और सेकुलवादियों को सामाजिक न्याय का बोध होता तो इस प्रकार देश में नफरत फैलाने का कुचक्र नहीं रचते । झूठ आधारित कहानियों का संजाल नहीं फैलाते। आज सांप्रदायिक हिंसा की एकतरफा झूठी कहानी गढ़ने की पहली पंक्ति में कोई खड़ा है तो वह है दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर अपूर्वानंद। उन्होंने हाल ही में the wire की वेबसाइट पर एक आलेख ‘The Betrayal of Imroz and the Question We Have No Answer For’ लिखा है। कहानी के पात्र सच हो सकते हैं लेकिन कहानी का प्लॉट मनगढंत है । उन्होंने अपने आलेख में गोरैया के घोंसले का उदाहरण देकर न्याय का ही मजाक उड़ाया है। अपवाद कभी सिद्धांत नहीं होता। घोंसला न तो कभी तोड़ा जा सकता न ही उसका पुनर्वास ही हो सकता क्योंकि वह किसी मानवीय वश की बात ही नहीं।
उन्होंने अपने आलेख ‘The Betrayal of Imroz and the Question We Have No Answer For’ में हाल ही में रामनवमी के अवसर पर बिहार के औरंगाबाद में हुई सांप्रदायिक हिंसा के एक पीड़ित पात्र इमरोज का जिक्र किया है। उसकी दारुण कहानी के जरिए एक पूरे समुदाय की कहानी कह डाली। अब सवाल उठता है कि क्या किसी हिंसा की कोई शक्ल होती है, अगर शक्ल, रंग और समुदाय होता है तो फिर आतंकवाद के मामले में वे अपनी आंखे क्यों मूंद लेते हैं? आतंकवाद के जगजाहिर रंग के सामने कोई दूसरा रंग क्यों दिखाते हैं झूठी कहानी कहने का उनका पूरा इतिहास रहा है। इसी के जरिये शुरू से समाज में जहर फैलाने का काम किया है। उन्होंने अपनी कहानी के माध्यम से मुस्लिम समुदाय को पीडि़त और हिंदू समुदाय को उन्मादी साबित किया है। जबकि औरंगाबाद में हुई सांप्रदायिक हिंसा की सच्चाई कुछ और है। इस हिंसा को लेकर पुलिस स्टेशन में दर्ज आधिकारिक मामले के मुताबिक हिंसा मुस्लिम समुदाय ने भड़काई थी।
बिहार में धार्मिक आयोजन के तहत जुलूस और विसर्जन के लिए हिंदुओं को कितनी पीड़ा सहनी पड़ती है इसे जानने के लिए संसद में बिहार के मधुबनी के सांसद हुकुमदेव नारायण यादव का भाषण सुन लिया होता। किस कदर मुस्लिम समुदाय किसी प्रतिमाओं की शोभायात्रा या विसर्जन के समय अड़ंगा लगाते हैं। कई बार तो बात मारपीट और फिर दोनों समुदायों के बीच तनाव तक पहुंच जाती है। क्या आपका यही मत है कि अगर मुस्लिम इलाका है तो फिर शोभायात्रा निकाली क्यों जानी चाहिए? आप अपने ही देश में दो देश बनाने का पाप नहीं कर रहे हैं? क्या अपने ही देश में मुस्लिमों को समाज से अलग-थलग नहीं कर रहे हैं? ऐसा करने के बावजूद आप सामुदायिक ध्रुवीकरण करने का आरोप दूसरों पर लगाते हैं।
जहां भी सांप्रदायिक हिंसा होती है नुकसान दोनों समुदायों का होता है। अगर हिंदुओं पर मुसलमानों के अत्याचार देखना चाहते हैं तो बिहार के सीमांचल जीलों में जाएं या फिर बंगाल के आसनसोल, मूर्शीदाबाद या फिर मालदा चले जाएं। जहां सुनियोजित तरीके से हिंदुओं को पलायन करने पर मजबूर किया जा रहा है। वहां एक समुदाय की बढ़ती और दूसरे समुदाय की घटती आबादी इसका साक्ष्य है। जो पीडा़ इमरोज की दर्शाई है वही पीड़ा वहां हजारों हिंदू प्रत्येक दिन झेल रहे हैं। लेकिन दुख की बात है कि मुसलमान देश से पलायन कर कहीं और जाने की बात भी कर सकते हैं लेकिन तो पलायन की बात सोच भी नहीं सकते। इस तरह की झूठी कहानी से न तो देश का भला होग न ही समाज का और न ही उस समुदाय का जिसके गुणगान में आप लगे हैं ।
खालिद को अपना बेटा मानने वाले अपूर्वानंद के क्या कहने
जो व्यक्ति देश के टुकड़े-टुकड़े करने का मंसूबा रखने वाले उमर खालिद को अपना बेटा मानने की औपचारिक घोषण करता हो उस व्यक्ति की देश के प्रति प्रतिबद्धता का आकलन सहज लगाया जा सकता है। देश और हिंदू समाज के खिलाफ जहर उगलने वालों में शुमार प्रोफेसर अपूर्वानंद दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि अगर उनके सामने मुस्लिम समुदाय अपनी नई मस्जिद बनाने के लिए पुरानी मस्जिद को गिराए तो भी वे उन मुसलमानों को हिंदू बना देंगे और बनने वाली मस्जिद को मंदिर ठहरा देंगे। वे इस हद तक सेकुलर पोषक वामपंथी हैं जिन्हें सच नहीं झूठ चाहिए।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में अभिव्यक्ति की आजादी पर मचा बवाल हो या जेएनयू में देश के खिलाफ लगे नारे या फिर कोई और मामला, उन्होंने देश विरोधियों का ही पक्ष लिया है। सरकार की आलोचना तो समझी जा सकती है लेकिन अपूर्वानंद सरकार की आलोचना करते-करते देश और देश की सेना तक की आलोचना से भी परहेज नहीं करते। तभी तो जब जेएनयू का मामला सामने आया और उस मामले में कन्हैया कुमार और उमर खालिद समेत कइयों पर देशद्रोह का आरोप लगा। तो अपूर्वानंद ने उस समय खुलेआम खालिद को अपना बेटा मानने की घोषणा कर दी। इतना ही नहीं उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि काश भारत के हर माता-पिता का बेटा खालिद जैसा हो।
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