श्वेता पुरोहित। विवाहिता स्त्री के लिये पाति व्रत धर्म के समान कुछ भी नहीं है, इसलिये मनसा-वाचा-कर्मणा पति के सेवापरायण होना चाहिये। स्त्री के लिये पतिपरायणता ही मुख्य धर्म है। इसके सिवा सब धर्म गौण हैं। महर्षि मनु ने साफ लिखा है कि स्त्रियों को पति की आज्ञा के बिना यज्ञ, व्रत, उपवास आदि कुछ भी न करने चाहिये। स्त्री केवल पति की सेवा- शुश्रूषासे ही उत्तम गति पाती है एवं स्वर्ग- लोकमें देवतालोग भी उसकी महिमा गाते हैं।
नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम्।
पतिं शुश्रूषते येन तेन स्वर्गे महीयते ॥
(मनु० ५। १५५)
अर्थात्:
स्त्रियों को पति से अलग यज्ञ, व्रत और उपवास का अधिकार नहीं है; क्योंकि वह जो पति की सेवा करती है उसी से स्वर्ग में आदर पाती है।
जो स्त्री पतिकी आज्ञा बिना व्रत, उपवास आदि करती है वह अपने पति की आयु को हरती है और स्वयं नरकमें जाती है।
पत्यौ जीवति या तु स्त्री उपवासं व्रतं चरेत्।
आयुष्यं हरते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति ॥
अर्थात्:
जो स्त्री पति के जीवित रहते उपवास-व्रत का आचरण करती है वह पति की आयु क्षीण करती है और अन्त में नरक में पड़ती है
इसलिये पति की आज्ञा बिना यज्ञ, दान, तीर्थ, व्रत आदि भी नहीं करने चाहिये, दूसरे लौकिक कर्मों की तो बात ही क्या है। स्त्री के लिये पति ही तीर्थ है, पति ही व्रत है, पति ही देवता एवं परम पूजनीय गुरु भी पति ही है। ऐसा होते हुए भी जो स्त्रियाँ दूसरे को गुरु बनाती हैं, वे घोर नरक को प्राप्त होती हैं। जो लोग पर-स्त्रियों के गुरु बनते हैं, यानी पर-स्त्रियों को अपनी चेली बनाते हैं वे ठग हैं। वे इस पापके कारण घोर दुर्गति को प्राप्त होते हैं। आजकल बहुत-से लोग साधु-महन्त और भक्तों के वेष में बिना गुरुके मुक्ति नहीं होती ऐसा भ्रम फैलाकर भोली-भाली स्त्रियों को मुक्ति का झूठा प्रलोभन देकर उनके धन और सतीत्व का हरण करते हैं और घोर नरकके भागी बनते हैं। उन चेली बनानेवाले गुरुओंसे माताओं और बहिनों को खूब सावधान रहना चाहिये। ऐसे पुरुषों का मुख देखना भी धर्म नहीं है। मनु आदि शास्त्रकारों ने स्त्रियों की मुक्ति तो केवल पातिव्रत से ही बतलायी है। गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं-
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा।
कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥
मन बच कर्म पतिहि सेवकाई।
तियहि न यहि सम आन उपाई ॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई।
पतिव्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥
वही स्त्री पतिव्रता है जो अपने मन से पति का हित-चिन्तन करती है, वाणी से सत्य, प्रिय और हित के वचन बोलती है, शरीर से उसकी सेवा एवं आज्ञा-पालन करती है। जो पतिव्रता होती है वह अपने पति की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी आचरण नहीं करती। वह स्त्री पतिसहित उत्तम गति को प्राप्त होती है और उसी को लोग साध्वी कहते हैं।
पतिं या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयता ।
सा भर्तृलोकमाप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते ॥
(मनु० ५।१६५)
अर्थात्:
जो स्त्री मन, वाणी और शरीर को वश में रखती हुई पति के अनुकूल आचरण करती है, प्रतिकूल आचरण कभी नहीं करती वह मृत्यु के पश्चात् पतिलोक को प्राप्त होती है और सज्जन पुरुष उसे साध्वी (पतिव्रता) कहते हैं।
स्त्रियों के लिये इस लोक और परलोक में पति ही नित्य सुख का देनेवाला है।
अनृतावृतुकाले च मन्त्रसंस्कारकृत्पतिः ।
सुखस्य नित्यं दातेह परलोके च योषितः ॥
(मनु० ५। १५३)
अर्थात्:
मन्त्रोंद्वारा संस्कार करनेवाला पति स्त्री को ऋतुकाल में या अन्य समय एवं इस लोक और परलोकमें सदा ही सुख देता है।
इसलिये स्त्रियों को किंचिन्मात्र भी पति के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिये। जो नारी ऐसा करती है यानी पतिकी इच्छा और आज्ञाके विरुद्ध चलती है उसको इस लोकमें निन्दा और मरनेपर नीच गतिकी प्राप्ति होती है।
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई।
बिधवा होइ पाइ तरुनाई ॥
इस प्रकार पतिकी इच्छा के विरुद्ध चलने वाली की ही यह गति लिखी है, फिर जो नारी दूसरे पुरुषों के साथ रमण करती है उसकी घोर दुर्गति होती है इसमें तो बात ही क्या है?
पति बंचक परपति रति करई।
रौरव नरक कल्प सत परई ॥
अतः स्त्रियों को जाग्रत्की तो बात ही क्या स्वप्न में भी परपुरुष का चिन्तन नहीं करना चाहिये। वही उत्तम पतिव्रता है जिसके दिल में ऐसा भाव है-
उत्तम के अस बस मन माहीं।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥
पति यदि कामी हो, शील एवं गुणों से रहित हो तो भी साध्वी यानी पतिव्रता को ईश्वर के समान मानकर उसकी सदा सेवा-शुश्रुषा करनी चाहिये।
विशीलः कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः ।
उपचर्यः स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पतिः ॥
(मनु० ५। १५४)
अपमान तो अपने पतिका कभी नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो नारी अपने पतिका अपमान करती है वह परलोकमें जाकर महान् दुःखोंको भोगती है।
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना।
अंध बधिर क्रोधी अति दीना ॥
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना।
नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
साध्वी स्त्रियों को पुरुषों और स्त्रियों के जो सामान्य धर्म बतलाये हैं उनका भी पालन करना चाहिये। पातिव्रतधर्म के रहस्य को जानने वाली स्त्रियों को अपने पति से बड़ों-सास, ससुरादि की पति के समान ही सेवा-पूजा और आज्ञापालन करनी चाहिये; क्योंकि वे पति के भी पति हैं। पातिव्रत धर्म के आदर्श स्वरूप सीता-सावित्री आदि ने ऐसा ही किया है। जब सावित्री अपने पति के साथ वनमें गयी तब पतिकी आज्ञा होनेपर भी सास-ससुर की आज्ञा लेकर ही गयी थी। श्रीसीताजी भी श्रीरामचन्द्रजीके साथ माता कौसल्यासे आज्ञा, शिक्षा और आशीर्वाद लेकर ही गयी थीं।
इस प्रकार पातिव्रत धर्म को स्वार्थ छोड़कर पालन करनेवाली साध्वी स्त्री इस लोक में परमशान्ति एवं परम आनन्द को प्राप्त होती है और मरने के बाद परम गतिको प्राप्त होती है।