श्वेता पुरोहित। जिस प्रकार भगवद्भक्तों के तन, मन, प्राण और जीवन-सर्वस्व श्रीभगवान् ही होते हैं, भगवान्के अतिरिक्त उन्हें कहीं कुछ भी प्रिय नहीं लगता, वे अहर्निश अपने प्रभु के ही स्मरण, चिन्तन एवं भजन में लगे रहते हैं, उसी प्रकार भक्त वत्सल श्रीभगवान् भी अपने भक्तोंका शिशु-सरीखे निरन्तर ध्यान रखते हैं।
भक्तका सुख दुःख प्रभु अपना ही समझते हैं। वे दयामय सर्वेश्वर अपने भक्त को प्रत्येक रीति से अन्तर्बाह्य शुद्ध और पवित्र रखते हैं। समस्त दुःखों का मूल अभिमान होता है। अतएव भक्त के हृदय में तनिक भी अभिमानका अङ्कुर उत्पन्न हुआ कि करुणावरुणालय प्रभु उसे शीघ्र मिटाकर भक्त का अन्तःकरण निर्मल बना देते हैं। उस समय भक्त को कुछ कष्ट की भी अनुभूति होती है; किंतु वह पीछे श्रीभगवान् की अद्भुत करुणा एवं प्रीतिका दर्शन कर आनन्द-विभोर हो जाता है।
भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णके नाम और रूपमें ही अन्तर है, वस्तुतः वे दो नहीं, एक ही हैं। इसी प्रकार जनकनन्दिनी सीता और वृषभानुदुलारी राधा भी एक ही हैं। इनमें कोई भेद नहीं। ज्ञानमूर्ति पवननन्दन इस अभेद-तत्त्वसे अपरिचित हों, यह बात नहीं, किंतु उन्हें तो अवधविहारी नवजलधर-श्याम धनुर्धर श्रीराम एवं जनकदुलारी ही प्रिय लगती हैं। वे निरन्तर उन्हीं के ध्यानमें आनन्दमग्न रहते हैं। प्रभु भी यह जानते हैं और उनके साथ वैसी ही लीला करके उन्हें सुख देते रहते हैं। वैवस्वत मन्वन्तरके अट्ठाईसर्वे द्वापर में भगवान् श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे। उस समय उन्होंने अपने भक्तोंके गर्वापहरण के लिये पवनकुमारको निमित्त बनाया था।
द्वारकाधीश श्रीकृष्णने अपनी प्राणप्रिया सत्यभामाकी प्रसन्नताके लिये स्वर्गसे पारिजात लाकर उनके आँगनमें लगा दिया। बस, सत्यभामाजीके मनमें अभिमानका अङ्कुर उत्पन्न हो गया कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी और अपने स्वामीको सर्वाधिक प्रिय हूँ। इतना ही नहीं, एक दिन उन्होंने श्यामसुन्दरसे कह भी दिया – ‘क्या जनकदुलारी मुझसे अधिक सुन्दरी थीं, जो आप (श्रीरामावतारमें) उनके लिये वन-वन भटकते फिरे ?’ श्रीभगवान्ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे चुप हो गये। परम तेजस्वी चक्रने सुरेन्द्रके वज्रको भी पराजित कर दिया था। महामुनि दुर्वासा उनके भयसे सर्वत्र भागते फिरे। लोकालोक पर्वतका गहन तम भी उन्होंने नष्ट कर दिया था। थोड़ी-सी कठिनाई उपस्थित होते ही श्रीभगवान् उनका स्मरण करते हैं, इस कारण उनके मनमें भी अपने अमित बलशाली एवं अतुल पराक्रमी होनेका अभिमान हो गया था।
इसी प्रकार प्रभुके निजी वाहन गरुड़को भी अपनी शक्ति एवं वेगसे उड़नेका अभिमान हो गया था। उन्होंने एकाकी सुर-समुदायको परास्त कर अमृत-हरण किया था। सुरेन्द्रका वज्र भी उनका कुछ नहीं कर सका। देवताओं एवं दानवोंके युद्धमें उन्होंने अपनी चोंच, नखों एवं पंखोंके आघातसे अमितपराक्रमी राक्षसोंको मार डाला था। युद्धमें श्रीभगवान्को संतुष्ट कर उन्होंने प्रभुकी ध्वजामें स्थान प्राप्त कर लिया। वे श्रीभगवान्के आसन, वाहन, सेवक, सखा, ध्वजा और व्यजन आदि सब कुछ हो गये। अपने इन कार्योंकी स्मृतिसे एक दिन उनके मनमें भी अपने अप्रतिभट होनेका अहंकार उत्पन्न हो गया था।
अपने इन तीनों प्रीति-भाजनोंका गर्व दूर करनेके लिये लीलावपु प्रभुने हनुमानजीका स्मरण किया। भगवान्के मनमें संकल्प उदित होते ही हनुमानजी तत्काल द्वारका पहुँच गये। उन्होंने राजकीय उद्यानमें प्रवेश किया। प्रहरियोंने उन्हें रोकना चाहा, किंतु भूधराकार आञ्जनेयके आग्नेय नेत्रोंसे भयभीत होकर वे दुबक गये।
हनुमानजी उछलकर एक वृक्षपर चढ़ गये। वे उसके मधुर फल कुछ खाते, कुछ कुतरते, कुछ वैसे ही तोड़कर फेंक देते। फिर वे कच्चे फलोंको डालियोंसहित तोड़कर फेंकने लगे। इस प्रकार वे एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर कूदते, उसके फलों एवं डालियोंको तोड़-तोड़कर फेंकते हुए वाटिका ध्वंस करने लगे। कुछ ही देरमें समूची वाटिका तहस-नहस हो गयी। यह समाचार द्वारकाधीशके समीप पहुँचा।
वैनतेयको बुलाकर श्रीभगवान्ने कहा- ‘विनतानन्दन ! कोई बलवान् वानर द्वारावती के राजोद्यान में बलात् प्रवेश कर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है। तुम सशस्त्र सैन्य लेकर जाओ और उसे पकड़कर ले आओ।’
गरुड़को जैसे आघात लग गया। एक क्षुद्र वानरको पकड़नेके लिये प्रभु सेना साथ ले जानेके लिये कह रहे हैं? उन्होंने कह भी दिया- ‘प्रभो! एक बंदरके लिये तो मैं ही पर्याप्त हूँ, सेनाकी क्या आवश्यकता ?’ ‘जैसे भी हो, उस वानरको पकड़ लाओ।’
मुस्कुराते हुए प्रभुने आदेश दिया। परम शक्तिशाली गरुड़ राजोद्यानमें पहुँचे। उन्होंने देखा, हनुमानजी उनकी ओर पीठ किये कोई फल कुतर रहे हैं।
गरुड़जीने क्रोधपूर्वक कहा- ‘अरे धृष्ट वानर ! तू कौन है? तूने यह वाटिका क्यों नष्ट कर डाली ?’ हनुमानजीने उपेक्षासे उत्तर दिया- ‘तुम तो देख ही रहे हो कि मैं वानर हूँ और मैंने कोई नवीन काम तो किया नहीं। वानर जो कुछ करते हैं, वही मैंने भी किया है।’
‘अच्छा, तो तू चल महाराजके पास !’ गरुड़जीने अपने बलके अभिमानसे कहा।
‘मैं किसी महाराज के पास क्यों जाऊँ?’ हनुमानजीके इतना कहते ही विष्णुवाहनने कुपित होकर कहा-‘तू सीधे चल, नहीं तो सुन ले, मेरा नाम गरुड़ है।’
‘अरे ! चलो, तुम्हारी तरह कितनी चिड़ियाँ देखी हैं मैंने। तुममें कुछ बल हो तो वह भी दिखा दो।’ हनुमानजीके यों कहते ही बलाभिमानी वीर गरुड़ क्रोधाग्निमें जल उठे। उन्होंने हनुमानजीपर आक्रमण कर दिया। हनुमानजी पहले तो उनसे नन्हीं-नन्हीं चिड़ियोंकी तरह क्रीड़ा करते रहे, पर गरुड़जीका दुराग्रह देखकर उन्होंने उन्हें अपनी पूँछमें लपेट लिया। गरुड़जी छटपटाने लगे। वे अपनी पूँछ थोड़ी और कस देते तो गरुड़जी सहन भी नहीं कर पाते। विनम्रतापूर्वक उन्होंने कहा- ‘मुझे द्वारकाधीश श्रीकृष्णचन्द्रजीने भेजा है। मैं तुम्हें बुलाने आया हूँ।’
हनुमानजीने अपनी पूँछ ढीली कर उत्तर दिया – ‘मैं तो कोसलेश श्रीरामचन्द्रजीका भक्त हूँ। श्रीकृष्णचन्द्रके पास क्यों जाऊँ?’
‘अरे ! श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीरामचन्द्र दो तो हैं नहीं। ये दोनों एक ही हैं। अतएव तुम्हें उनकी सेवामें उपस्थित होना ही चाहिये।’ गरुड़जीका बलाभिमान दूर नहीं हुआ था। उन्होंने सोचा- ‘यदि मैं इस वानरकी पूँछकी पकड़में न आता तो यह मेरा कुछ भी नहीं कर सकता था।’
‘तुम्हारा यह कथन सर्वथा सत्य है कि श्रीकृष्ण और श्रीराम एक ही हैं, किंतु मेरा मन तो धनुर्धर श्रीरामका चरणानुरागी है। इस कारण मैं अन्य किसीकी सेवामें नहीं जा सकता।’ हनुमानजीने स्पष्ट उत्तर दे दिया। गरुड़जी अत्यन्त क्रुद्ध हुए। बोले-‘ श्रीकृष्णचन्द्रकी सेवामें तो तुम्हें चलना ही पड़ेगा।’
‘देखो भैया गरुड़ ! मुझसे झगड़ो मत। मुझे शान्तिपूर्वक फल खाने दो। तुम यहाँसे चले जाओ।’ हनुमानजीका उत्तर सुनते ही गरुड़जी उन्हें पकड़नेका प्रयत्न करने लगे।
‘तुम नहीं मानोगे।’ हनुमानजीने प्रभुके वाहनपर तीव्र आघात करना उचित नहीं समझा। उन्होंने गरुड़जी को पकड़कर धीरेसे समुद्रकी ओर फेंक दिया और स्वयं मलयगिरिपर चले गये।
गरुड़ सीधे मुँहके बल समुद्रमें गिरे। वे क्षणभरके लिये मूच्छित हो गये। समुद्रका कुछ पानी भी पी गये। मूर्च्छानिवृत्तिके उपरान्त उन्हें दिग्भ्रम भी हो गया। उन्होंने मन-ही-मन प्रभुका स्मरण किया, तब उनकी बुद्धि स्थिर हो सकी।
भीगे पंख लज्जित गरुड़ प्रभुके समीप पहुँचे। व्यंग्यपूर्वक श्रीकृष्णने पूछा- ‘समुद्रमें स्नान करके आ रहे हैं क्या, गरुड़जी ?’
आर्त होकर गरुड़जी प्रभुके चरणोंमें गिर पड़े। बोले- ‘प्रभो ! वह वानर असाधारण है। उसीने मुझे पकड़कर समुद्रमें फेंक दिया था।’ इतना कहते हुए भी उनके मनमें अपने वेगसे उड़नेका अहंकार अवशिष्ट ही था।
भगवान् मन-ही-मन मुस्कुरा उठे। उन्होंने कहा- ‘वे श्रीरामके अनन्य भक्त हनुमानजी हैं। वे मलयगिरिपर चले गये हैं। अब तुम उनसे जाकर कहो कि ‘तुम्हें श्रीरामचन्द्रजी बुला रहे हैं।’
गरुड़ने श्रीभगवान्के चरणोंमें मस्तक रखा और मलयगिरिके लिये प्रस्थित हुए। श्रीभगवान्ने सत्यभामाजीसे कहा- ‘तुम सीताका रूप धारणकर मेरे समीप बैठो; क्योंकि हनुमानको श्रीसीतारामका ही रूप प्रिय है।’ फिर प्रभुने चक्रको बुलाकर आदेश दिया- ‘तुम द्वारपर अत्यन्त सावधान रहना। मेरी अनुमतिके बिना कोई राजसदनमें प्रविष्ट न होने पाये।’
सुदर्शनके चले जानेपर प्रभु स्वयं धनुर्वाणधर श्रीरामरूपमें सिंहासनासीन हो गये।
गरुड़जी अत्यन्त वेगपूर्वक उड़े, किंतु वे हनुमानजी के समीप जाने में मन-ही-मन डर रहे थे। प्रभु की आज्ञा से वे मलयगिरि पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने हनुमानजी से विनयपूर्वक कहा-‘द्वारका में तुम्हें भगवान् श्रीरामचन्द्रजी बुला रहे हैं।’
‘मेरे करुणामय प्रभुने मुझे बुलाया है, यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।’ हनुमानजीने हर्षपूर्वक कहा- ‘तुम चलो, मैं आता हूँ।’
वेगशाली वैनतेय को मारुतात्मज का उत्तर प्रिय नहीं लगा। ‘यह शाखामृग मुझसे बलवान् अवश्य है, किंतु गति में मुझ खेचर से इसकी क्या तुलना ? पता नहीं, यह द्वारावती कब तक पहुँचे ?’ किंतु भयवश उन्होंने हनुमानजी को कोई उत्तर नहीं दिया और प्रभु के सम्मुख अपनी तीव्रतम गतिके प्रदर्शनार्थ वेगपूर्वक उड़ चले।
पवनात्मज द्वारका पहुँचे। वे राजसदनमें प्रविष्ट होना ही चाहते थे कि सुदर्शनने उन्हें रोक दिया।
प्राणनाथके दर्शनमें व्यर्थ विलम्ब होते देख हनुमानजीने सुदर्शनको पकड़कर अपने मुखमें रख लिया और भीतर चले गये। वे भगवान् श्रीरामके चरणोंमें गिर पड़े। फिर हाथ जोड़े प्रभुके मुखारविन्दकी ओर अपलक दृष्टिसे देखते हुए उन्होंने विनयपूर्वक पूछा- ‘नाथ! माताजी कहाँ हैं ? आज आप किसी दासीको गौरव प्रदान कर रहे हैं?’
सत्यभामाजी लज्जित हो गयीं। उनका सौन्दर्याभिमान नष्ट हो गया। उसी समय अत्यन्त वेगपूर्वक उड़नेके कारण हाँफते-काँपते गरुड़जी प्रभुके समीप पहुँचे तो वहाँ पहलेसे ही हनुमानजीको विद्यमान देखकर उनका मुख नीचा हो गया। उनका वेगपूर्वक उड़नेका अभिमान भी गल गया।
मुस्कुराते हुए भगवान् श्रीराम-रूपधारी द्वारकेशने हनुमानजीसे पूछा- ‘तुम्हें राज-सदनमें प्रविष्ट होते समय किसीने रोका तो नहीं ?’
हनुमानजीने विनयपूर्वक उत्तर दिया – ‘प्रभो! द्वारपर सहस्त्रार मुझे आपके चरणोंमें उपस्थित होनेमें व्यवधान उत्पन्न कर रहा था। व्यर्थ विलम्ब होते देखकर मैंने उसे अपने मुँहमें रख लिया।’
हनुमानजीने चक्रको मुँहसे निकालकर प्रभुके सामने रख दिया। चक्र श्रीहत हो गये थे।
तीनोंका गर्व चूर्णकर हनुमानजीने अपने परम प्रभुके चरणोंमें प्रणाम किया और उनकी अनुमतिसे मलयाचलके लिये प्रस्थित हो गये।
इसी प्रकार एक बार हनुमानजीने महाधनुर्धर अर्जुनका भी गर्व-हरण किया था। वह कथा अत्यन्त संक्षेपमें इस प्रकार है-
बात है द्वापरके अन्तकी। एक दिन अर्जुन एकाकी ही सारथिके स्थानपर स्वयं बैठकर अपना रथ हाँकते अरण्यमें घूमते हुए दक्षिण दिशामें चले गये। मध्याह्नकाल हो जानेपर उन्होंने रामेश्वरके धनुष्कोटि-तीर्थमें स्नान किया और फिर कुछ गर्वपूर्वक इधर-उधर घूमने लगे। उसी समय उन्होंने एक पर्वतके ऊपर सामान्य वानरके
रूपमें महावीर हनुमानजीको देखा। उनका शरीर सुन्दर पीले रंगके रोएँसे सुशोभित था और वे राम-नामका जप कर रहे थे।
उन्हें देखकर अर्जुनने पूछा- ‘अरे वानर ! तुम कौन हो और तुम्हारा नाम क्या है?’
हँसते हुए हनुमानजीने उत्तर दिया- ‘मैं समुद्रपर शिलाओंका सौ योजन विस्तृत सेतु निर्माण करानेवाले प्रभु श्रीरामका सेवक हनुमान हूँ।’
अर्जुनने गर्वमें भरकर कहा- ‘समुद्रपर सेतु तो कोई भी महाधनुर्धर अपने वाणोंसे बना लेता। श्रीरामने व्यर्थ ही प्रयास किया।’
हनुमानजीने तुरंत कहा- ‘वाणका सेतु हमारे-जैसे वानरोंका भार नहीं सह सकता था, इसी कारण प्रभुने शर-सेतु-निर्माणका विचार नहीं किया।’
पाण्डुनन्दन अर्जुन बोले- ‘यदि वानर-भालुओंके आवागमनसे ही सेतु टूट जाय, तब तो धनुर्विद्या ही कैसी ? तुम अभी मेरी धनुर्विद्याका चमत्कार देखो। मैं अपने वाणोंसे समुद्रपर शत योजन लंबा सेतु निर्माण कर देता हूँ। तुम उसपर आनन्दपूर्वक उछल-कूद करो।’
हनुमानजी हँस पड़े। बोले- ‘यदि तुम्हारा बनाया हुआ शर-सेतु मेरे अँगूठेके भारसे ही टूट जाय, तब तुम क्या करोगे ?’
गर्वपूरित अर्जुन प्रतिज्ञा कर बैठे- ‘यदि तुम्हारे भारसे सेतु टूट गया तो मैं जीवित ही चिताकी अग्निमें जल मरूँगा। अब तुम भी कोई प्रण करो।’
हनुमानजीने कहा- ‘यदि तुम्हारे वाणोंसे निर्मित सेतु
मेरे अङ्गुष्ठ-चापसे नहीं टूटा तो मैं जीवनभर तुम्हारे रथकी ध्वजाके समीप बैठकर तुम्हारी सहायता करता रहूँगा।’ ‘अच्छी बात है।’ कहते हुए पार्थने अपना विशाल गाण्डीव धनुष हाथमें लिया और कुछ ही क्षणोंमें महान् नीलोदधिके ऊपर अपने वाणोंसे सौ योजन विस्तृत सुदृढ़ सेतु तैयार कर दिया। तब उन्होंने महावीर हनुमानसे कहा- ‘वानरराज ! अब तुम इच्छानुसार इसपर उछल-कूदकर देख लो।’
हनुमानजीने हँसते हुए उस सेतुपर अपना अँगूठा रखा ही था कि वह विस्तृत शर-सेतु तड़तड़ाकर टूटा और समुद्रमें डूब गया।
महाधनुर्धरका मुख मलिन हो गया, किंतु हनुमानजीपर गन्धर्वों और देवताओंका समुदाय स्वर्गीय सुमनोंकी वृष्टि करने लगा।
दुःखी और उदास अर्जुनने वहीं समुद्र तटपर चिता तैयार की और हनुमानजीके मना करनेपर भी वे उसमें कूदनेके लिये तैयार हो गये।
उसी समय वहाँ एक ब्रह्मचारीने आकर अर्जुनसे चितामें कूदनेका कारण पूछा। अर्जुनने उन्हें शर-सेतुके सम्बन्धमें अपनी प्रतिज्ञाके साथ पूरी घटना सुना दी।
ब्रह्मचारी बोले- ‘प्रतिज्ञा-पालन तो अनिवार्य ही है, किंतु साक्षीके बिना तुमलोगोंकी बाजीका कोई अर्थ नहीं। अब मैं यहाँ साक्षीके रूपमें उपस्थित हूँ। तुम अपने वाणोंसे सेतु निर्माण करो और ये कपिराज उसे अपने अङ्गुष्ठ-भारसे डुबा दें, तब मैं उचित निर्णय दूँगा।’
‘ठीक है’- दोनोंने कहा और अर्जुनने अपने वाणोंसे तुरंत शत योजन विस्तृत सेतु निर्माण कर दिया। हनुमानजीने उसे अँगूठेसे दबाया, किंतु सेतुका कुछ नहीं बिगड़ा। हनुमानजी चकित हो गये। उन्होंने अपने पैरों, हाथों और घुटनोंके बलसे भी उसे दबाया, पर वह सुदृढ़ सेतु तिलभर भी टस से मस नहीं हुआ। हनुमानजी सोचने लगे – ‘जो शर-सेतु मेरे अङ्गुष्ठका
सामान्य भार भी नहीं सह सका था, वही अब मेरा सम्पूर्ण भार सह ले रहा है। निश्चय ही इसमें कोई- न-कोई हेतु है।’ भगवान् श्रीरामके अनन्य सेवक ज्ञानिनामग्रगण्य हनुमानजीने अर्जुनसे कहा- ‘पाण्डुनन्दन ! इन ब्रह्मचारीजीकी सहायतासे मैं आपसे पराजित हो गया। ब्रह्मचारीके वेषमें स्वयं श्रीभगवान्ने ही पधारकर तुम्हारी रक्षा की है। इन्होंने सेतुके नीचे अपना चक्र लगा दिया है। त्रेतामें इसी वेषमें मेरे स्वामी श्रीरामचन्द्रजीने द्वापरके अन्तमें मुझे श्रीकृष्णके रूपमें दर्शन देनेका वरदान दिया था। आपके शर-सेतुके मिससे इन्होंने वरदान भी पूरा कर दिया।’
अपना सहसा वटुके स्थानपर वंशीविभूषित पीताम्बरधारी नवनीरदवपु श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन होने लगा। हनुमानजीने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और मयूरमुकुटीने उन्हें आलिङ्गन-बद्ध कर लिया।
अर्जुन चकित होकर अपने रक्षक प्राणप्रिय सखाकी लीला देख रहे थे। उनके सम्मुख ही श्रीकृष्णके आज्ञानुसार चक्र शर-सेतुसे बाहर निकलकर अपने स्थानके लिये चला गया और अर्जुनके द्वारा निर्मित सेतु विशाल जलधिकी तरंगोंमें विलीन हो गया।
अर्जुनका गर्व नष्ट हो गया और अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार हनुमानजी अर्जुनके रथपर ध्वजाके समीप रहने लगे। इसी कारण अर्जुन ‘कपिध्वज’ के नामसे प्रसिद्ध हुए।
महाभारतके युद्धमें महाधनुर्धर अर्जुनके वाणोंके आघातसे विपक्षी वीरोंके रथ अत्यधिक दूर जा गिरते थे, किंतु अर्जुनके रथको पीछे फेंकनेकी सामर्थ्य किसी योद्धाके वाणमें नहीं थी। एक बार वीरवर कर्णके शराघातसे अर्जुनका रथ थोड़ा ही पीछे खिसका था कि श्रीकृष्ण बोल उठे- ‘वाह ! निश्चय ही कर्ण शूर वीर और महाधनुर्धर है।’
अर्जुन खिन्न हो गये। उन्होंने मधुसूदनसे पूछ भी लिया – ‘प्रभो! मेरे वाणके आघातसे शत्रुओंके रथ कितनी दूर चले जाते हैं, तब तो आप कुछ नहीं बोलते; किंतु कर्णके द्वारा मेरा रथ तनिक-सा पीछे सरका तो आप उसकी प्रशंसा करने लगे।’
जनार्दनने तुरंत उत्तर दिया – ‘पार्थ ! तुम्हारे रथपर महावीर हनुमान बैठे हैं। उनके रहते हुए भी तुम्हारे रथका पीछे हट जाना कर्णकी वीरताका ही द्योतक है। यदि आञ्जनेय आसीन न होते तो तुम्हारा रथ कभीका भस्म हो गया होता।