जिन गिरफ्तार नक्सल समर्थकों के समर्थन में लिबरल ब्रिगेड और वामपंथी आज गला फाड़ रहे हैं उन्हें जानकारी होनी चाहिए कि इनमें से तीन लोग पहले भी सालों जेल काट जुके हैं। खास बात है कि जिन तीन लोगों को सालों जेल काटने का अनुभव है उनमें वरवरा राव, अरुण फरेरा तथा वरनोन गोंजालवेस शामिल हैं। इनकी गिरफ्तारी में खास बात ये है कि सभी की गिरफ्तारी और जेल जाने की घटना कांग्रेस सरकार के दौरान हुई थी। वरवरा राव तो जेल जाने के आदी रह चुके हैं। उन्हें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी तथा मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल में गिरफ्तार किया गया था।
मालूम हो कि भीमा कोरेगांव हिंसा तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश के मामले में पुणे पुलिस ने देश के कई शहरों में छापेमारी कर पांच नक्सली समर्थकों गौतम नवलखा, वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा और वरनोन गोंजाल्विस को गिरफ्तार किया है। इसी गिरफ्तारी को लेकर कांग्रेस पार्टी से लेकर वामपंथी पार्टी और उनके समर्थक हो-हल्ला मचा रहे हैं। इनकी गिरफ्तारी के बाद ये लोग प्रशासनिक कार्रवाई से लेकर न्यायिक कार्रवाई तक को प्रभावित करने की कोशिश में जुटे हैं। लेकिन सवाल है कि क्या इन लोगों को ये नहीं पता है कि इनकी पृष्ठभूमि कानून तोड़ने और उसके खिलाफ काम करने की रही है? क्या इन्हें पता है कि गिरफ्तार पांच लोगों में से तीन लोग सालों जेल में बिता चुके हैं। आइये हम आपको बताते हैं कि ये लोग कौन हैं?
1. वरवरा राव
जिस वरवरा राव को कवि और लेखक बताने के साथ 70 वर्ष की उम्र का हवाला देकर निर्दोष बताने की कोशिश की जा रही है, थोड़ा इनके इतिहास और पृष्ठभूमि के बारे में तो जान लीजिए। वरवरा राव एक कवि और लेखक हैं. वो 1957 से कविताएं लिख रहे हैं। इसके साथ ही वे 1975 से लेकर 1986 तक वे कई बार जेल भी होकर आ चुके हैं। इन्हें न केवल आपातकाल के दौरान गिरफ्तार किया गया बलिक रामनगर साजिश के मामले में गिरफ्तार किया जा चुके हैं। इसके अलावा कई बार कानून तोड़ने और स्थापित कानून के खिलाफ काम करने के आरोप में उन्हें कई बार गिरफ्तार किया जा चुका है। रामनगर साजिश कांड के मामले में तो उन्हें सालों जेल की हवा खानी पड़ी थी। इसके अलावा आंध्र प्रदेश लोक सुरक्षा कानून के तहत 19 अगस्त 2005 को गिरफ्तार कर हैदराबाद के चंचलगुडा केन्द्र जेल में भेजा गया था। इससे साफ हो जाता है कि वरवर राव की जितनी लंबी उम्र है उस अनुपात में जेल जाने का अनुभव भी लंबा है। इसलिए नक्सली समर्थकों की गिरफ्तारी के खिलाफ आवाज उठाकर मोदी सरकार को बदनाम करने वालों को अपनी गिरेबां में पहले झांकना चाहिए।
2. अरुण फेरेरा
मुंबई सेशंस कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले गिरफ्तार नक्सल समर्थक अरुण फरेरा के पास चार साल तक जेल में रहने का अनुभव है। अदालत में न्याया की रक्षा करने की भूमिका निभाने वाले फरेरा को कानून के उल्लंघन के आरोप में जेल जाना पड़ा था। मालूम हो कि इनपर देश द्रोह तक का आरोप लग चुका है। इसलिए कोर्ट से पहले इन जैसे को निर्दोष साबित कर कोर्ट की अवमानना करने से लिबरल ब्रिगेड और वामियों को बचना चाहिए। अरुण फरेरा साल 2007 में प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) की प्रचार एवं प्रसार शाखा के नेता बनते हैं, लेकिन इससे ठीक पहले अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट और देशद्रोह के अभियोग में उन्हें चार साल जेल में रहना पड़ा था। वे भीमा-कोरेगांव हिंसा को लेकर गिरफ्तार सुधीर धवले के पक्ष में भी अपनी आवाज उठाते रहे हैं। अगर ऐसे में इन्हें नक्सल समर्थक न कहा जाए तो और क्या कहा जाए? जो व्यक्ति देश द्रोह के आरोप में जेल जा चुका हो वही व्यक्ति 1993 में मुंबई दंगों के बाद देशभक्ति युवा मंच के नाम से एक संस्था शुरू कर लेता है। कितनी विडंबना की बात है। मालूम हो कि सरकार उनकी संस्था को माओवादियों का अग्रिम फ्रंट बता चुकी है।
3. वर्नोन गोंजाल्विस
वर्नोन भले ही पढ़ाई में गोल्ड मेडलिस्ट हो, लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं होता है कि वे कानून को ही अपने हाथ में ले लेंगे। उन्हें 2007 में गैरकानूनी गतिविधियों में शामिल होने पर गिरफ्तार कर जेल भेजा गया था। मालूम हो कि जिस साल वर्नोन गोंजाल्विस को गिरफ्तार किया गया था उस साल न केंद्र में न ही महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार थी न ही उस समय मोदी देश के प्रधानमंत्री थे। मुंबई विश्वविद्यालय से गोल्ड मेडलिस्ट और रूपारेल कॉलेज एंड एचआर कॉलेज के पूर्व लेक्चरर वर्नोन के बारे में सुरक्षा एजेंसियों का आरोप है कि वह नक्सलियों की महाराष्ट्र राज्य समिति के पूर्व सचिव और केंद्रीय कमेटी के पूर्व सदस्य हैं। अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट के तहत साल 2007 में वर्नोन को पुलिस ने गिरफ्तार किया था। इतना ही नहीं पुलिस ने उस समय वर्नोन को 20 अलग-अलग मामलों में आरोपी बनाया गया था। गैरकानूनी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार वर्नोन को छह साल तक जेल में रहना पड़ा था।
क्या इस तथ्य के सामने आने के बाद भी इन लोगों को नक्सल समर्थक कहने में कोई आपत्ति है। इन लोगों को बुद्धिजीवी नहीं बल्कि बुद्धिहंता कहना उपयुक्त होगा। क्योंकि ये लोग भोले-भाले आदिवासियों और गरीबों को अपनी बौद्धिकता में फांसकर स्थापित व्यवस्था के खिलाफ गैरकानूनी कार्य कराते हैं और उकसाते हैं।
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