सुमंत विद्वांस। मुंबई को भारत की आर्थिक राजधानी बनाने में वहाँ की कपड़ा मिलों की बहुत बड़ी भूमिका थी। मुंबई में सैकड़ों मिलें थीं, जिनमें लाखों मजदूरों को रोजगार मिला हुआ था। लेकिन मजदूर यूनियनों पर वामपंथियों का कब्जा था, जिसका मतलब था कि यहाँ लगातार हड़तालें होती रहती थीं, जिससे मिल-मालिक परेशान रहते थे। मिल-मालिकों और मजदूरों के बीच लगातार चलने वाला संघर्ष आपने साठ और सत्तर के दशक की कई हिन्दी फ़िल्मों में भी देखा होगा।
ये मिल मालिक इन हड़तालों के लिए ज़िम्मेदार वामपंथी संगठनों से छुटकारा चाहते थे। दूसरी ओर काँग्रेस के मजदूर नेता भी इस क्षेत्र में वामपंथियों का चक्रव्यूह तोड़कर अपनी राजनीति आगे बढ़ाना चाहते थे।
१९५६ में संयुक्त महाराष्ट्र आन्दोलन और दूसरी तरफ महागुजरात आंदोलन की शुरुआत हुई और अंततः १९६० में मराठियों के लिए महाराष्ट्र व गुजरातियों के लिए गुजरात राज्य का गठन हुआ। मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी थी, लेकिन फिर भी यहाँ के उद्योग-व्यवसाय और रोजगार का बड़ा हिस्सा गैर-मराठियों के हाथ में था।
मराठियों के साथ हो रहे इस अन्याय को दूर करने के उद्देश्य से १९६६ में शिवसेना की स्थापना हुई। कृपया ध्यान रखिये कि शिवसेना की स्थापना ‘हिंदुत्व’ के मुद्दे पर नहीं, बल्कि ‘भूमिपुत्रों को न्याय दिलाने’ अर्थात मुंबई में मराठी-भाषियों को रोज़गार में प्राथमिकता दिए जाने की मांग को लेकर हुई थी। इसी कारण शिवसेना के प्रारंभिक आंदोलन अधिकांशतः दक्षिण भारतीयों के विरुद्ध थे, बाद में गुजरातियों विरुद्ध और उसके बाद उत्तर भारतीयों के विरुद्ध हुए। इनमें से अधिकांश ‘बाहरी’ लोग हिन्दू ही थे!
इस नए संगठन को आगे बढ़ाने और इसके आंदोलनों को सफल बनाने में कुछ मिल मालिकों, उद्योगपतियों और काँग्रेस के नेताओं से भी सहायता और प्रोत्साहन मिलता रहा। काँग्रेस ने अपने राजनैतिक लाभ के लिए इसका उपयोग किया। संभवतः इसी कारण शिवसेना के शुरुआती वर्षों में इसके कुछ हिंसक आंदोलनों के बावजूद भी काँग्रेस की सरकारों ने इस पर तब तक कार्यवाही नहीं की, जब तक कि काँग्रेस को इससे कोई खतरा महसूस नहीं हुआ।
१९७५ में जब इन्दिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा, तब शिवसेना ने खुलकर इस मुद्दे पर कांग्रेस का समर्थन किया था। १९८२ में मुंबई में मिल मजदूरों की एक बहुत बड़ी हड़ताल हुई, जो लगभग डेढ़ वर्ष तक चली। इसी हड़ताल के बाद ही मुंबई की अधिकतर कपड़ा मिलें एक-एक करके बन्द होती चली गईं और मजदूर आंदोलन भी कमज़ोर पड़ता गया।
१९८४ के बाद से शिवसेना ने धीरे-धीरे ‘भूमिपुत्रों को न्याय’ और ‘मराठी अस्मिता’ के मुद्दों के साथ-साथ ‘हिंदुत्व’ के मुद्दे को भी प्रमुखता देना शुरू किया। १९८९-९० में मंडल आंदोलन और राम मंदिर के आंदोलनों की शुरुआत हुई और इसी दौरान शिवसेना और भाजपा का गठबंधन भी अस्तित्व में आया।
१९९५ में पहली बार महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार बनी और शिवसेना के मनोहर जोशी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने।
इसके बाद १९९८-२००४ के दौरान भी शिवसेना अटल जी की एनडीए सरकार में शामिल रही।
लेकिन २००४ में एनडीए की हार हुई और केन्द्र में सोनिया सरकार बनी।
इसके बाद २००७ के राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना ने डॉ. कलाम को दोबारा राष्ट्रपति बनाने का विरोध किया। उसने एनडीए समर्थित प्रत्याशी भैरोंसिंह शेखावत जी का भी विरोध किया और काँग्रेस की प्रत्याशी प्रतिभा पाटिल को समर्थन दिया। इस तरह शिवसेना ने तब अपने ही एनडीए गठबंधन के प्रत्याशी को हराने में कांग्रेस की मदद की थी।
२००७ में तो शिवसेना ने मराठी उम्मीदवार के समर्थन के नाम पर प्रतिभा पाटिल की मदद की थी, लेकिन २०१२ में उसने फिर एक बार अपने ही एनडीए उम्मीदवार के खिलाफ काँग्रेस के प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिया, जबकि प्रणब मुखर्जी तो महाराष्ट्र के नहीं थे!
उन वर्षों के दौरान कई बार शिवसेना ने खुलकर यह भी यह कहा है कि कभी अगर शरद पवार को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला तो ज़रूरत पड़ने पर शिवसेना उनको भी समर्थन देगी क्योंकि वे मराठी हैं!
२०१४ में शिवसेना मोदी सरकार में भी शामिल हुई, लेकिन लगातार मोदी जी का अपमान और आलोचना भी करती रही। कभी मोदी को हिटलर बताया, तो कभी नोटबन्दी को आपातकाल से भी बड़ा कलंक ठहराया। उसी साल महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में शिवसेना गठबंधन तोड़कर भाजपा के खिलाफ ही चुनाव लड़ी थी और तब उसने मोदी-शाह की तुलना अफ़ज़ल खान से की थी।
पाकिस्तान और बांग्लादेश के धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित नागरिकता संशोधन विधेयक का भी शिवसेना ने विरोध किया, जबकि उन अल्पसंख्यकों में हिन्दुओं की संख्या ही सबसे बड़ी है। २०१७ में इसी शिवसेना ने ममता बनर्जी की तारीफ़ में भी कसीदे पढ़े थे और उद्धव ठाकरे ने कहा था कि ममता की विशाल रैली से मोदी घबरा गए हैं। उन दिनों ममता बनर्जी २०१९ चुनाव के लिए तीसरा मोर्चा बनाने और खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाने में लगी हुई थी। ममता बनर्जी का समर्थन और नरेन्द्र मोदी का विरोध करके शिवसेना किस हिंदुत्व को मज़बूत करने वाली थी, यह बात मेरी समझ के बाहर है।
ऐसे कई अवसरों पर शिवसेना ने बार-बार साबित किया है कि वह भाजपा के लिए भरोसे की पार्टी नहीं है। इसलिए आपको भी इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि हिंदुत्व शिवसेना का सिद्धांत या विचारधारा है। अब तो स्पष्ट रूप से ऐसा लगने लगा है कि हिंदुत्व शिवसेना के लिए केवल राजनैतिक लाभ पाने का एक साधन है।
किस पार्टी की विचारधारा क्या रहे और आपमें से कौन किस पार्टी का समर्थन करे, यह सबकी अपनी-अपनी पसंद पर निर्भर है। मैं यह सब किसी पार्टी या किसी विचारधारा के समर्थन अथवा विरोध में नहीं लिख रहा हूँ, बल्कि केवल वर्तमान घटनाओं के बारे में आपको कुछ जानकारी दे रहा हूँ। उसके आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना या किसी का समर्थन-विरोध करना मैं आपकी पसंद-नापसंद पर छोड़ता हूँ।
मुझे विभिन्न स्रोतों से जो जानकारी मिली, वह मैंने यहाँ लिख दी है। अगर इसमें कोई तथ्य गलत हों, तो मुझे कमेंट में बताएँ, ताकि मैं उसे सुधार लूँ। धन्यवाद! सादर!
संदीप जी आपने सटीक जानकारी दी है
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