एक वैरागी बाबा थे। वे एक छाते के नीचे रहते थे और वहीं शालिग्राम का पूजन किया करते थे। जो लोग मूर्तिपूजा को नहीं मानते थे, उनको बाबाजीकी यह क्रिया ( मूर्तिपूजा) बुरी लगती थी। उन दिनों वहाँ हुक साहब नामक एक अंग्रेज अफसर आया हुआ था। उस अफसरके सामने उन लोगोंने बाबाजीकी शिकायत कर दी कि यह मूर्तिकी पूजा करके सर्वव्यापक परमात्माका तिरस्कार करता है आदि-आदि। हुक साहबने कुपित होकर बाबाजीको बुलाया और उनको वहाँसे चले जानेका हुक्म दे दिया।
दूसरे दिन बाबाजी ने हुक साहब का एक पुतला बनाया और उसको लेकर वे शहरमें घूमने लगे। वे लोगोंको दिखा-दिखाकर उस पुतलेको जूता मारते और कहते कि यह हुक साहब बिलकुल बेअक्ल हैं, इसमें कुछ भी समझ नहीं है आदि-आदि।
लोगोंने पुनः हुक साहब से शिकायत कर दी कि यह बाबा आपका तिरस्कार करता है, आपका पुतला बनाकर उसको जूता मारता है। हुक साहबने बाबाजीको बुलाकर पूछा कि तुम मेरा अपमान क्यों करते हो ? बाबाजी ने कहा कि मैं आपका बिलकुल अपमान नहीं करता। मैं तो आपके इस पुतलेका अपमान करता हूँ क्योंकि यह बड़ा ही मूर्ख है। ऐसा कहकर बाबाजी ने पुतले को जूता मारा। हुक साहब बोले कि मेरे पुतलेका अपमान करना मेरा ही अपमान करना है।
बाबाजी ने कहा कि आप इस पुतले में अर्थात् मूर्ति में हैं ही नहीं, फिर भी केवल नाममात्र से आप पर इतना असर पड़ता है। हमारे भगवान् तो सब देश, काल, वस्तु आदिमें हैं; अतः जो श्रद्धापूर्वक मूर्ति में भगवान् का पूजन करता है, उससे क्या भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे? मैं मूर्तिमें भगवान्का पूजन करता हूँ तो यह भगवान्का आदर हुआ या निरादर ? हुक साहब बोले कि जाओ, अब तुम स्वतन्त्रतापूर्वक मूर्तिपूजा कर सकते हो। बाबाजी अपने स्थानपर चले गये ।