श्वेता पुरोहित। आज २५ अप्रैल २०२४ को वैशाख कृष्ण द्वितीया को चंद्र विशाखा नक्षत्र में गोचर कर रहे हैं। विशाखा नक्षत्र के अधिष्ठाता देव इंद्र और अग्नि देव हैं।
इंद्र देव और अग्नि देव के विषय में महाभारत में एक रोचक कथा मिलती है: एक बार राजा उशीनर के महत्त्व को समझने के लिये इन्द्र और अग्नि उनकी राजसभा में उनकी परीक्षा लेने गये।
वे दोनों उस समय उशीनर की परीक्षा लेना चाहते थे; अतः इन्द्र ने बाज पक्षी का रूप धारण किया और अग्नि ने कबूतर का। इस प्रकार वे राजा के यज्ञमण्डप में गये। अपनी रक्षा के लिये आश्रय चाहने वाला कबूतर बाज के भय से डरकर राजा की गोदी में जा छिपा।
तब बाज ने कहा – राजन् ! समस्त भूपाल केवल आपको ही धर्मात्मा बताते हैं। फिर आप यह सम्पूर्ण धर्मों से विरुद्ध कर्म कैसे करना चाहते हैं। महाराज ! मैं भूख से कष्ट पा रहा हूँ और कबूतर मेरा आहार नियत किया गया है। आप धर्म के लोभ से इसकी रक्षा न करें वास्तव में इसे आश्रय देकर आपने धर्म का परित्याग ही किया है।
राजा बोले – पक्षिराज ! यह कबूतर तुम से डरकर घबराया हुआ है और अपने प्राण बचाने की इच्छा से मेरे समीप आया है। यह अपनी रक्षा चाहता है। बाज ! इस प्रकार अभय चाहने वाले इस कबूतर को यदि मैं तुमको नहीं सौंप रहा हूँ, यह तो परम धर्म है। इसे तुम कैसे नहीं देख रहे हो ? बाज ! देखो तो यह बेचारा कबूतर किस प्रकार भय से व्याकुल हो थर-थर काँप रहा है। इसने अपने प्राणों की रक्षा के लिये ही मेरी शरण ली है। ऐसी दशा में इसे त्याग देना बड़ी ही निन्दा की बात है। जो मनुष्य ब्राह्मणों की हत्या करता है, जो जगन्माता गौका वध करता है तथा जो शरण में आये हुए को त्याग देता है, इन तीनों को समान पाप लगता है।
बाज ने कहा – महाराज ! सब प्राणी आहार से ही उत्पन्न होते हैं, आहार से ही उनकी वृद्धि होती है और आहार से ही जीवित रहते हैं। जिसको त्यागना बहुत कठिन है, उस अर्थ के बिना भी मनुष्य बहुत दिनों तक जीवित रह सकता है, परंतु भोजन छोड़ देने पर कोई भी अधिक समय तक जीवन धारण नहीं कर सकता।
प्रजानाथ! आज आपने मुझे भोजन से वंचित कर दिया है, इसलिये मेरे प्राण इस शरीर को छोड़कर अकुतो भय-पथ (मृत्यु) को प्राप्त हो जायँगे। धर्मात्मन् ! इस प्रकार मेरी मृत्यु हो जानेपर मेरे स्त्री-पुत्र आदि भी (असहाय होने के कारण) नष्ट हो जायँगे। इस तरह आप एक कबूतर की रक्षा करके बहुत-से प्राणियों की रक्षा नहीं कर रहे हैं।
सत्यपराक्रमी नरेश ! जो धर्म दूसरे धर्मका बाधक हो वह धर्म नहीं, कुधर्म है। जो दूसरे किसी धर्म का विरोध न करके प्रतिष्ठित होता है वही वास्तविक धर्म है। परस्परविरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मों में गौरव- लाघव का विचार करके, जिसमें दूसरों के लिये बाधा न हो उसी धर्म का आचरण करना चाहिये। राजन् ! धर्म और अधर्म का निर्णय करते समय पुण्य और पापके गौरव-लाघव पर ही दृष्टि रखकर विचार कीजिये तथा जिसमें अधिक पुण्य हो उसी को आचरण में लाने योग्य धर्म ठहराइये।
राजा ने कहा- पक्षिश्रेष्ठ ! तुम्हारी बातें अत्यन्त कल्याणमय गुणों से युक्त हैं। तुम साक्षात् पक्षिराज गरुड़ तो नहीं हो ? इसमें संदेह नहीं कि तुम धर्म के ज्ञाता हो। तुम जो बातें कह रहे हो वे बड़ी ही विचित्र और धर्मसंगत हैं। मुझे लक्षणों से ऐसा जान पड़ता है कि ऐसी कोई बात नहीं है जो तुम्हें ज्ञात न हो। तो भी तुम शरणागतके त्यागको कैसे अच्छा मानते हो ? यह मेरी समझ में नहीं आता। विहंगम ! वास्तव में तुम्हारा यह उद्योग केवल भोजन प्राप्त करनेके लिये है। परंतु तुम्हारे लिये आहार का प्रबन्ध तो दूसरे प्रकार से भी किया जा सकता है और वह इस कबूतर की अपेक्षा अधिक हो सकता है। सूअर, हिरन, भैंसा या कोई उत्तम पशु अथवा अन्य जो कोई भी वस्तु तुम्हें अभीष्ट हो वह तुम्हारे लिये प्रस्तुत की जा सकती है।
बाज बोला – महाराज ! मैं न सूअर खाऊँगा, न कोई उत्तम पशु और न भाँति-भाँति के मृगों का ही आहार करूँगा। दूसरी किसी वस्तु से भी मुझे क्या लेना है? क्षत्रियशिरोमणे ! विधाता ने मेरे लिये जो भोजन नियत किया है वह तो यह कबूतर ही है; अतः भूपाल ! इसी को मेरे लिये छोड़ दीजिये। यह सनातन काल से चला आ रहा है कि बाज कबूतरों को खाता है। राजन् ! धर्म के सारभूत तत्त्व को न जानकर आप केले के खम्भे (जैसे सारहीन धर्म) का आश्रय न लीजिये।
राजाने कहा – विहंगम ! मैं शिबि देश का समृद्धिशाली राज्य तुम्हें सौंप दूँगा, और भी जिस वस्तु की तुम्हें इच्छा होगी वह सब दे सकता हूँ। किंतु शरण लेने की इच्छा से आये हुए इस पक्षी को नहीं त्याग सकता। पक्षिश्रेष्ठ श्येन ! जिस काम के करने से तुम इसे छोड़ सको, वह मुझे बताओ; मैं वही करूँगा, किंतु इस कबूतर को तो नहीं दूँगा।
बाज बोला – महाराज उशीनर ! यदि आपका इस कबूतर पर स्नेह है तो इसी के बराबर अपना मांस
काटकर तराजू में रखिये। नृपश्रेष्ठ ! जब वह तौल में इस कबूतर के बराबर हो जाय तब वहीं मुझे दे दीजियेगा, उससे मेरी तृप्ति हो जायगी।
राजा ने कहा- बाज ! तुम जो मेरा मांस माँग रहे
हो इसे मैं अपने ऊपर तुम्हारी बहुत बड़ी कृपा मानता हूँ, अतः मैं अभी अपना मांस तराजूपर रखकर तुम्हें दिये देता हूँ।
तत्पश्चात् परम धर्मज्ञ राजा उशीनर ने स्वयं अपना मांस काटकर उस कबूतर के साथ तौलना आरम्भ किया। किंतु दूसरे पलड़े में रखा हुआ कबूतर उस मांस की अपेक्षा अधिक भारी निकला, तब महाराज उशीनर ने पुनः अपना मांस काटकर चढ़ाया। इस प्रकार बार-बार करने पर भी जब वह मांस कबूतर के बराबर न हुआ, तब सारा मांस काट लेने के पश्चात् वे स्वयं ही तराजू पर चढ़ गये।
बाज बोला – धर्मज्ञ नरेश ! मैं इन्द्र हूँ और यह कबूतर साक्षात् अग्निदेव हैं। हम दोनों आपके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये इस यज्ञशालामें आपके निकट आये थे। प्रजानाथ! आपने अपने अंगों से जो मांस काटकर चढ़ाये हैं, उससे फैली हुई आपकी प्रकाशमान कीर्ति सम्पूर्ण लोगों से बढ़कर होगी। राजासे ऐसा कहकर इन्द्र फिर देवलोकमें चले गये तथा धर्मात्मा राजा उशीनर भी अपने धर्मसे पृथ्वी और आकाशको व्याप्त कर देदीप्यमान शरीर धारण करके स्वर्गलोकमें चले गये।