श्वेता पुरोहित। आज चैत्र मास की शुक्ल पूर्णिमा को चंद्र चित्रा नक्षत्र में गोचर कर रहे हैं। चित्रा नक्षत्र के देवता त्वष्टा हैं जो एक आदित्य हैं और इसके ग्रह स्वामी मंगल हैं। मंगल साहस, ऊर्जा, महत्वाकांक्षा, उग्र स्वभाव का प्रतीक है।
चित्रा नक्षत्र आकर्षक व्यक्तित्व, कलात्मक, स्वतंत्र सोच, मिलनसार, बौधिक, अति-उत्साही, सुरुचिपूर्ण, वाक् पटुता में कुशल, प्रतिष्ठित, विवेकपूर्ण, व्यावसायिक कौशल, कार्य कुशल, मूर्तिकला, प्रिंट मेकिंग, सक्षम डिजाइनर जैसी कलाओं की अभिव्यक्तियों की ओर झुकाव रखता है। जैसा कि नाम है चित्रा – जिनका चंद्र, बुद्ध या लग्न नक्षत्र चित्रा है, चित्र या डिजाइन बनाने में या अच्छे फोटो खींचने में ऐसे लोग माहिर होते हैं। ये लोग बहुत कलात्मक होते हैं। क्योंकि ये नक्षत्र इतना कलात्मक है, IT या civil industry में ये architect भी हो सकते हैं। मोबाइल, गाड़ियां बनाने वाली इंडस्ट्री और interior designing में भी ये पाए जाते हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधाजी की साखियों में से एक, चित्रा का भी नाम आता। इस पर एक कथा प्रस्तुत है:
राधा बिना कृष्ण आधा
वह सुन्दर चित्रकार थी; किंतु उसने अपनी चित्रांकन-कलाका कभी अभिमान नहीं किया था। इसका नाम उसके गुणों के अनुकूल था। ‘चित्रा’ नाम था उसका। उसका धाम था कृष्ण की पवित्र क्रीडास्थली गोकुल’। चित्रांकन की कला में वह इतनी निपुण और सिद्धहस्त थी कि किसी भी वस्तु, पक्षी, पशु, ताल लैया या मानव का चित्र कल्पनामात्र पर बना लिया करती थी। बस, उसे हाथ में तूलिका उठा लेने भर की देर होती कि चित्र सर्वोत्कृष्ट एवं हृदयाकर्षी बन जाता। ‘चित्रा’ अपने कुशल-व्यवहार एवं मधुर स्वभाव था अद्भुत चित्रांकन-कला के कारण आस-पास के क्षेत्रों की तो बात ही क्या, दूर-दूर तक चर्चित हो गयी नी।
वह बचपन से ही ‘कृष्ण’- भक्ति में अनुरक्त थी। अपने आराध्य कृष्ण का सुन्दर-सा चित्र वह बना सके, सी प्रयास में आज वह एक महान् चित्रकार बन गयी पी। उसकी ख्याति इतनी विस्तृत हो गयी थी कि किसी को भी चित्र बनवाना होता तो उसे बस एक ही जाम सूझता ‘चित्रा’।
किंतु इतने पर भी चित्रा सन्तुष्ट नहीं थी। उसे अपनी चित्रांकन कलापर कभी-कभी सन्देह होने लगता था। वह सोचा करती यदि मैं इतनी प्रतिभा सम्पन्न चित्रकार हूँ तो क्यों नहीं अभीतक नन्दबाबा के नटखट श्यामसुन्दर कन्हैया मेरी ओर आकर्षित हुए? उन्होंने आजतक कभी भी मुझे अपना चित्र बनाने के लिये नन्दभवन में आमन्त्रित क्यों नहीं किया? निश्चय ही अभी मैं पूर्णरूप से चित्रांकन कला में निपुण हीं हो पायी हूँ। अचानक फिर उसे दूसरे ही क्षण याद आता-मथुरा-नरेश ने भी तो मुझसे अपना चित्र बनवाया ना और उस चित्र से इतने सन्तुष्ट हुए थे कि उन्होंने अपने दरबार में राज्यशिल्पी जैसा उच्चस्थान प्रदान करना चाहा था। मैंने ही तो उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।
चित्रा ‘कृष्ण’ के नटखट स्वरूप को हृदय में बसा घण्टों गुमसुम बैठी रहती, सोचती रहती, कितना अच्छा होता यदि मैं चित्रकार न होकर ‘ग्वालिन’ होती। कृष्ण-कन्हैया को रोज माखन खिला पाती, रोज उसे देख पाती। उसके साथ धेनु चराने भी चली जाती, भले ही कोई कुछ भी कहता। मैं किसीकी परवा न करती। इस प्रकार मन-ही-मन कृष्ण का स्मरण करते हुए चित्रा राधाजी के भाग्य को सराहती तथा कभी-कभी उसे राधाजी से ईर्ष्या-सी होने लगती। चित्रा सोचती कहाँ चित्तचोर सुन्दर श्याम और कहाँ वह गाँव की राधा। उसके घाघरे में तो सदा गोबर लगा रहता है, पर भाग्य देखो, सदा श्यामसुन्दर का सामीप्य प्राप्त है उसे। धिक्कार है मुझे और मेरी कलाको जो कृष्णके सामीप्य से वंचित है।
इस प्रकार नित्य शुद्ध और पवित्र हृदयसे ‘चित्रा’ ‘कृष्ण’ का चिन्तन किया करती। श्रीकृष्ण तो सदासे ही भाव और भक्तिके भूखे, भक्तवत्सल और अन्तर्यामी हैं। वे चित्रा के विचित्र एवं निर्मल निभ्रम प्रेम से अन्ततः एक दिन द्रवित हो ही उठे और अचानक घर में रूठकर बैठ गये।
प्रातःकाल का समय है, यशोदा मैया सोच रही हैं क्या बात है आज लाला माखन माँगने नहीं आया ! दूसरे दिनों तो भले ही सूर्य उदय होना भूल जाय, किंतु वह माखन माँगना नहीं भूलता। माखन, माखन की रट लगा देता है। आज क्या बात है? माँ यशोदा की चिन्ता स्वाभाविक थी। वे विचलित-सी हुईं नन्दबाबा के पास गयीं। पूछा- आपने कन्हैयाको कहीं भेजा है? नहीं तो, भला वह कोई कार्य करता है जो मैं उसे कहीं भेजता ! कल रात चन्द्रावली की मटकी फोड़ आया था। इसलिये भयवश मेरे सामने तो आ ही नहीं सकता। नन्दबाबाके उत्तरसे यशोदा अधिक चिन्तित हो उठीं, बोलीं- ‘अरे तो फिर कहाँ गया?’ इतने में ही आवाज आयी कृष्ण की- ‘मैया, अरी ओ मैया! मैं यहाँ हूँ, किंतु मैं क्यों बताऊँ कि मैं कहाँ हूँ। मैं तो आज रूठा हुआ हूँ और रूठनेवाला चुप रहता है, इसलिये मैं नहीं बताता।’
नन्दबाबा और माँ यशोदा दोनों अपने कान्हा की ऐसी बातें सुनकर मुँह दबाकर हँसने लगे। मैयाने देखा आवाज पलंगके नीचेसे आ रही है। उन्होंने झुककर पलंग के नीचे देखा, कन्हैया मुँह फुलाये घुटने मोड़े चुपचाप बैठा है।
पसीनेसे तर हुआ श्यामल मुँह कुम्हला-सा गया है। यशोदा मैयाने प्रायः नीचे लेटते हुए पलंगके नीचेसे कन्हैयाको निकाला और वात्सल्यप्रेम के साथ अंक में भरकर चूमने लगीं। फिर गोद में बैठाकर प्रेमपूर्वक अपने आँचल से कृष्ण के शरीर का पसीना पोंछने लगीं। पुनः पंखा लहराते हुए पूछा- ‘क्यों रूठा है मेरा लाला ! कुछ पता तो चले।’ ‘मुझे अपना चित्र बनवाना है’ तुनककर बोले जगत्पिता बालरूप कृष्ण।
मैया यशोदा को जोरों की हँसी आ गयी। आज तुझे यह चित्र बनवाने की क्या सूझी ? रोज तो माखन के लिये रूठा करता था, फिर आज चित्र के लिये क्यों ?
सभी के चित्र हैं हमारे भवन में; केवल मेरा ही नहीं है, मेरे साथ यह अन्याय क्यों? मेरा भी चित्र तत्काल बनवाया जाय, सभी चित्रों के ऊपर लगाया जाय, तभी मैं मानूँगा। अन्यथा रूठा ही रहूँगा। मचलते हुए कहा कृष्ण ने ।
नरोत्तम कृष्ण जानते थे, मेरा रूठना न तो मैया सह सकती हैं और न नन्दबाबा। मेरे रूठे रहनेपर अवश्य ही मेरा चित्र बनवाया जायगा और चित्र बनानेके लिये मेरी प्रिय भक्ता चित्रा को ही बुलाया जायगा। इस प्रकार चित्रा की मनःकामना पूर्ण की जा सकेगी। वही हुआ जो कृष्ण चाहते थे। चित्रा को बुलवाया गया, वस्तुतः इसी बहाने श्रीकृष्ण चित्राको कुछ शिक्षा भी देना चाहते थे।
आज चित्राकी प्रसन्नताका ठिकाना नहीं था। वह हर्षोत्फुल्ल हो रही थी, आज वह दिन आ गया था, जिसकी वर्षोंसे उसे प्रतीक्षा थी तथा जिस उद्देश्यसे उसने चित्रांकन-कला को अपने जीवनयापन का माध्यम बनाया था। वह बेसुध-सी हुई नन्दभवन जाने की तैयारी में जुट गयी।
नन्दभवन में बैठी हुई चित्रा कृष्ण के स्वरूपणका चिन्तन कर ही रही थी कि इतनेणमें ही अचानक उसके जीवनाधार कृष्ण वहाँ आ पहुँचे। वे तुरंत एक छोटी- सी चौकीपर खड़े होते हुए चित्रा से बोले- ‘चित्र सुन्दर बनाना, मेरी तरह ही।’ चित्रा भावविभोर हो अपलक कुछ क्षण कृष्ण को निहारती रही। सुधि लौटने पर एक हाथ में तूलिका पकड़ी और दूसरे में चित्रपट और चाहा कि कृष्ण का चित्र बनाना आरम्भ करूँ, पर यह क्या उसके हाथ शिथिल क्यों हो गये ? तूलिका को क्या हो गया, वह क्यों नहीं चलती ? उसने अपने-आपको संयत किया और चित्र क्यों अंकित नहीं हो रहा है, इसका अनुसन्धान करने लगी।
ओह! उसे ध्यान आया, कृष्ण तो टेढ़ा खड़ा है, कदाचित् यही कारण है जो चित्र नहीं बन पा रहा है। उसने कृष्ण को आदेश दिया- ‘सीधे खड़े रहो।’ कृष्ण ने शरारती लहजे में कहा- ‘सखी! यह कैसे सम्भव है? मैं तो हमेशा से ही नटखट और टेढ़ा हूँ, मैं क्या-क्या चीजें सीधी करूँ? मेरा मुकुट टेढ़ा, मेरी बाँसुरी टेढ़ी, मेरा नाम टेढ़ा। क्या तुम नहीं जानती मेरा एक नाम बाँकेबिहारी भी है और बाँके का अर्थ तो टेढ़ा ही होता है न ? तुम एक काम करो, मेरा टेढ़ा ही एक चित्र बना दो।’ चित्रा मन्त्रमुग्ध-सी हुई कृष्णणके वचनों को सुन रही थी।
उसे ऐसा लगने लगा जैसे वह चित्रांकन करना ही भूल गयी है। जिस चित्रा के हाथ में तूलिका आने मात्र से ही चित्र स्वयं ही बन जाया करते थे, वह आज हस्तविहीन-सी हो गयी थी। उसका शरीर रोमांचित हो थर-थर काँप रहा था। उससे कृष्णका चित्र नहीं बन रहा था। चित्रा किंकर्तव्यविमूढ हुई चुपचाप बैठ गयी। वह चित्र नहीं बना पाने के कारण लज्जा का अनुभव कर रही थी। उसकी आँखों से आँसू निकलना ही चाहते थे कि कृष्ण उसकी मनःस्थिति भाँप कर बोले- ‘अच्छा, ठहरो जरा मैं माखन खाकर आता हूँ, तब बनाना मेरा चित्र। उस समय मेरा चित्र हृष्ट-पुष्ट बनेगा, अन्यथा मैं चित्र में कमजोर-सा दीखूँगा।’ कृष्ण चले गये बहाना बनाकर।
चित्रा अकेली रह गयी भवनमें, अब वह अपने आँसुओं के वेग को रोक नहीं पायी। सुबकते-सुबकते न जाने कब वह बेसुध-सी हो गयी या उसकी आँख लग गयी। उसने देखा कि कृष्ण उसके सामने खड़े हैं और उससे कह रहे हैं- ‘सखी चित्रे ! मैं तुम्हारी भक्ति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। यह सच है कि तुमने हमेशा मुझे अपना आराध्य माना, किंतु साथ ही तुम मेरी प्रियतमा, मेरी सर्वेश्वरी, मेरी शक्ति राधा से ईर्ष्या करती रही।
किंतु भद्रे ! कदाचित् तुम्हें ज्ञान नहीं कि मैं और राधारानी एक-दूसरे के अभिन्न अंग और पूरक हैं। राधा के बिना, हे चित्रे ! मैं अधूरा हूँ, इसलिये ज्ञानी भक्त प्रायः यह कहा करते हैं कि ‘राधा बिना कृष्ण आधा’ अर्थात् भद्रे ! राधा के बिना मेरी भक्तिका कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता है और इसी कारण तुम मेरी छवि नहीं बना पा रही हो।
चित्रा, यदि तुम्हें मेरा चित्र अंकित करना है तो मेरे इस स्वरूप को अपने हृदय में स्थान दो।’ ऐसा कहकर कृष्ण ने चित्रा को अपने पूर्णस्वरूप का दर्शन कराया। चित्रा ने देखा कृष्ण के शरीर का आधा भाग राधा का है और आधा भाग कृष्ण का। चित्रा ने देखा कृष्ण का सम्पूर्ण स्वरूप कभी राधा के स्वरूप में परिवर्तित हो जाता और कभी कृष्ण के स्वरूप में तथा कभी आधे अंग में कृष्ण होते और आधे में राधा।
चित्रा कृष्ण की इस अद्भुत लीला को देखकर तथा उनके पूर्णरूप को देखकर आश्चर्यचकित रह गयी। उसने स्वयं को धिक्कारा- ‘अरे, वह जिसे गाँव की एक साधारण- सी बालिका, ग्वालिन, छोरी समझे बैठी थी, वह तो पराशक्ति है। वह तो कृष्ण की लीला-सहचरी है।’
अचानक उसकी चेतना वापस आयी। उसने सच्चे हृदय से राधा का आह्वान किया, तुरंत ही उसने देखा चतुर्भुज-रूप में तेजपुंज लिये राधा उसके सामने खड़ी मुसकरा रही हैं, साथ में खड़े हैं नटखट कन्हैया।
कहना न होगा उसके बाद चित्रा ने जो कृष्णञका चित्र बनाया वह अतिललित, सुन्दर तथा भक्तवत्सलता से परिपूर्ण था। आज चित्रा की चित्रांकन-साधना पूर्ण हो गयी थी, आज उसके जीवन में माधुर्य-रसकी अजस्र धारा प्रवाहित हो उठी थी।
भक्तिमती चित्रा के इस वृत्तान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि निरन्तर के ध्यानाभ्यास से और साधनादार्य से भगवान्का मिलन सबके लिये सम्भव है। कहा भी है—
यद् यद्धिया त उरुगाय विभावयन्ति
तत्तद्वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥