वह गौरवशाली जीत अतीत के पन्नों में कहीं दबकर रह गई थी। 67 की विजय 62 की हार के घाव क्यों नहीं भर सकी। क्यों देश ने अपनी इस महान विजय पर गर्व नहीं किया। जल्द ही वह अवसर आ रहा है जब भारत उन गौरवशाली पलों को फिर से जी सकेगा। फ़िल्मकार जेपी दत्ता की आगामी फिल्म ‘पलटन’ भारत की इसी विजय पर आधारित है। 7 सितंबर को ये फिल्म प्रदर्शित होने जा रही है। गौरतलब है कि इसके ठीक चार दिन बाद 11 सितंबर है यानि वह दिन जब हमने चीन से अपनी हार का शानदार प्रतिशोध लिया था।
आज़ादी से पहले हिमालय पर्वत क्षेत्र से होकर जाने वाला ‘सिल्क रुट’ व्यापारियों से आबाद रहता था लेकिन पचास के दशक के बाद चीन यहाँ से अपनी दखलअंदाजी बढ़ाने लगा। 1962 में पड़ोसी ने पीठ में छूरा घोंपकर धोखे से हमला किया जबकि राजनीतिक नेतृत्व ‘हिन्दी-चीनी भाई भाई’ की माला जप रहा था। धोखे से मिली हार ने भारत को सिखाया कि सरहदों के पार कोई दोस्त नहीं होता। सन 1967 में चीन ने दोबारा ‘सिल्क रुट’ से देश की सीमाओं में घुसने का प्रयास किया लेकिन अबकी बार भारत अपनी सीमा की रक्षा के लिए पूरी तरह सजग था। चीन फिर आया लेकिन उसे मुंह की खानी पड़ी। 1967 का वह युद्ध और हमारे सैनिकों का अदम्य साहस प्रचारित नहीं हो सका या ये कह सकते हैं कि 62 की शर्मनाक हार के नीचे हमारी गौरवपूर्ण जीत दबा दी गई।
‘नाथू ला’ हिमालय पर्वत का एक महत्वपूर्ण दर्रा है। नाथू ला से ही प्राचीन ‘सिल्क रुट’ का मार्ग निकलता है। सिल्क रुट ने सदियों से पूर्व और पश्चिम को जोड़े रखा। सामरिक और व्यापारिक नजरिये से सिल्क रुट पर आधिपत्य ज़माने के लिए चीन ने 1962 से ही गतिविधियां शुरू कर दी थी। अदम्य साहस दिखाने के बावजूद भारत को हार के दंश की पीड़ा सहनी पड़ी। हमारे 1383 सैनिक शहीद हुए। 1700 सैनिक लापता हो गए और 3968 सैनिकों को चीन ने गिरफ्तार करके यातनाएं दी। एक तरफ चीन के अस्सी हज़ार सैनिक थे और दूसरी तरफ हमारे केवल बारह हज़ार सैनिक। हमारी सेना के पास ज़रूरी साज़ो-सामान बहुत कम था और चीन के सैनिक आधुनिक हथियारों से लैस थे। ये एक ऐसा युद्ध था जिसमे हम वायु सेना की मदद से पलटवार करने में सक्षम थे लेकिन नेहरू सरकार ने वायुसेना को आगे आने की इज़ाज़त ही नहीं दी।
युद्ध समाप्त हो चुका था। भारत जान गया था कि उसे ‘अच्छे पड़ोसी’ नहीं मिले हैं। सन 1965 में पाकिस्तान ने घात लगाकर हमला किया लेकिन अबकी बार देश की बागडोर निर्भीक प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में थी। भारतीय सेना ने पाकिस्तान को माकूल जवाब दिया। इसके बाद ये तय हो गया कि हमारी उपजाऊ जमीन और नदियों के पानी के लिए पड़ोसी कभी हमें चैन से बैठने नहीं देंगे। सेना को लगातार अपनी शक्ति बढ़ाने की जरूरत थी, साथ ही राजनीतिक नेतृत्व का समर्थन सबसे ज्यादा जरुरी हो गया था। चीन इस बात पर भृकुटि ताने बैठा था कि 62 के युद्ध में बढ़त के बावजूद वह ‘नाथू ला’ दर्रे को कब्जे में नहीं ले सका था। 65 के युद्ध में पाकिस्तान की सहायता करने के बाद वह लगातार नाथू ला दर्रे पर अपनी गतिविधि बढ़ा रहा था।
कहानी शुरू होती है
65 के युद्ध में चीन भले ही जीता था लेकिन घाव उसे भी लगे थे। युद्ध के बाद चीन ने भारत से ‘जेलेप ला दर्रा’ और नाथू ला दर्रा खाली करने के लिए कहा। ये दोनों ही ‘ऑब्जर्वेशन पोस्ट’ थी। सेना की 17 माऊंट डिवीजन ने जेलेप ला खाली कर दिया लेकिन नाथू ला को नहीं छोड़ा। 1967 में नाथू ला दर्रा पोस्ट मेजर जनरल सगत राय देख रहे थे। उन्होंने चीन की हरकतों को रोकने के लिए फेंसिंग लगाने की तैयारी शुरू कर दी। सगत राय ये महत्वपूर्ण पोस्ट नहीं छोड़ सकते थे क्योंकि नाथू ला दर्रा एक ‘जल विभाजन’ से गुजरता है। यहीं पर ‘मेकमोहन लाइन’ भी है जो सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। जलविभाजन के अंतरराष्ट्रीय नियम कहते थे कि भारत ये पोस्ट नहीं छोड़े और सगत राय ने ठीक यहीं किया।
11 सितंबर 1967 को चीन की सेना नाथू ला दर्रे पर आ खड़ी हुई। लाउडस्पीकर से धमकी दी गई कि पीछे हट जाओ नहीं तो 1962 की तरह कुचल दिए जाओगे। सगत राय ने गीदड़ भभकी में न आते हुए सीमा पर कंटीले तार की फेंसिंग लगवाना जारी रखा। भारतीय सेना का दुःसाहस देखकर चीनी और चिढ गए। हमेशा कायरों की तरह हमला करने वाले चीनियों ने फिर से यही किया। फेंसिंग लगा रहे सैनिकों पर जानलेवा हमला किया गया। चीनियों ने मेडियम मशीन गनों से गोलियां बरसानी शुरू कीं। अचानक हुए इस हमले में हमारी सेना के 67 सैनिक शहीद हो गए। इसके बाद भारतीय सेना ने पलटवार करते हुए चीनी सैनिकों की लाशें बिछा दी। सेबू ला एवं कैमल्स बैक से अपनी मजबूत रणनीतिक स्थिति का लाभ उठाते हुए भारत ने जमकर आर्टिलरी पावर का प्रदर्शन किया। कई चीनी बंकर ध्वस्त हो गए और भारतीय सैनिकों के हाथों उनके 400 से अधिक सैनिक मारे गए। भारत की ओर से लगातार तीन दिनों तक दिन-रात फायरिंग जारी रही।
चीन को लग रहा था कि वह एक रात में नाथू ला दर्रे को अपने कब्जे में ले लेगा। लेकिन भारत का दमदार जवाब देखकर उसने अपने कदम पीछे खींच लिए।रातो रात चीन ने अपने सैनिकों की लाशें उठवा ली ताकि सुबह के उजाले में तथाकथित महाशक्ति के दावों की पोल न खुल जाए। अगले दिन चीन ने अपना असली चेहरा दिखाते हुए सीमा उल्लंघन का आरोप भारत पर लगा दिया। इसके बाद 15 सितंबर को लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत अरोरा और लेफ्टिनेंट जनरल सैम मानेकशॉ की मौजूदगी में दोनों सेनाओं के शवों की अदला-बदली की गई।
1967 के जीत के नायक
लेफ्टिनेंट कर्नल महातम सिंह– जम्मू-कश्मीर राइफल्स का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। 1 अक्टूबर को जब चीन ने हमला किया तो महातम सिंह ने चो ला पहुंचकर न केवल चीनी सेना की गोलीबारी का सामना किया बल्कि चौकियों को भी हाथ से नहीं जाने दिया।
लेफ्टिनेंट जनरल सगट सिंह– 1965 में नाथुला से 17 माउंटेन डिवीजन में तैनात थे। इन्होंने चीनी चेतावनी को खारिज कर भारतीय जवानों को सीमा से हटाने से मना कर दिया।
लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह– युद्ध की धमकी के बाद भी नाथुला पर तारों से सीमा निर्धारण का काम जारी रखा। चीन की तरफ से गोलीबारी में घायल भी हुए थे।
लेफ्टिनेंट अतर सिंह– लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह के घायल होने के बाद इन्होंने कमान संभाली। इनके नेतृत्व में भारतीय जवानों ने चीनी बंकरों और चौकियों को बर्बाद कर दिया।
1967 का वह सितंबर चीनी कभी नहीं भूलते। उनके 400 सैनिकों के क्षत-विक्षत शव उनकी स्मृतियों में आज भी ताज़ा है। 67 में मिले सबक के बाद चीन ने कभी भारत पर हमला करने की जुर्रत नहीं की। वह जान गया था कि भारत कोई कमज़ोर पड़ोसी नहीं है। आज चीन के सैनिक सीमा पार करके हमारी सीमा में आ जाते हैं। धक्का-मुक्की करते हैं, धमकी देते हैं लेकिन गोली चलाने की हिम्मत उनकी अब भी नहीं होती।
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