नीरज सिन्हा। ये बड़े आश्चर्य की बात है कि जो लोग अयोध्या के आंदोलन से केवल राजनीति कमाना चाहते थे वो ढांचा तोड़ने के विरोधी तो थे ही साथ ही वो इस मुद्दे का लंबे समय तक समाधान भी नहीं चाहते थे आज वही लोग हिन्दू समाज के कथित अगुवा बन ना सिर्फ देश पर अपनी सेक्यूलरी राज चला रहे हैं बल्कि श्रीरामलला के मंदिर निर्माण से लेकर विधिवत प्राण प्रतिष्ठा, पूजन इत्यादि में अपनी संघिस्टी मनमानी कर पूरी व्यवस्था एवं प्रक्रिया को दूषित कर रहे हैं।
६ दिसंबर १९९२ को बाबरी ढांचे का विध्वंस की एक रोचक एवं आश्चर्यजनक कहानी है जिसके बारे में सामान्य रामभक्त हिन्दू समाज को जानना आवश्यक है। ढांचा के टूटने में संघ परिवार, भाजपा, विहिप की बेहद नाकारात्मक भूमिका रही थी। साध्वी ऋतंभरा , उमा भारती को छोड़कर ६ दिसंबर १९९२ को ढांचा टूटने के समय वहां मंच पर उपस्थित लालकृष्ण आडवाणी, विजयाराजे सिंधिया, अशोक सिंघल इत्यादि बड़े नेता ढांचा तोड़ रहे जांबाजों को ना सिर्फ गुंडे मवाली, फ्रिंज एलिमेंट की संज्ञा दे रहे थे बल्कि उन्हें गालियां और लानत भी दे रहे थे।
ऐसे ही २ नवंबर १९९० को जब अयोध्या की गलियों में रामभक्तों का भीषण नरसंहार हुआ था तो इस घटना के कुछ मिनट पहले आंदोलन का नेतृत्व करने वाले विहिप, संघ के सारे नेता हनुमानगढ़ी के अंदर छुप कर बैठ गये थे जबकि संतोष दुबे, रविशंकर तिवारी जैसे युवाओं ने रामभक्तों का अंत तक साथ नहीं छोड़ा और देखते ही देखते पूरी गली रामभक्तों की लाशों से पट गई, नरसंहार समाप्त होते गिद्धों का पूरा समूह पुनः बाहर निकल आया।
ढांचा टूटने के पूरे प्रकरण में इसके भूला दिये गये नायकों की अविस्मरणीय भूमिका की चर्चा करना अनिवार्य होगा। आज का कृतघ्न हिन्दू समाज यह जान लें कि अगर ६ दिसंबर १९९२ को ढांचा ना टूटा होता तो आज जिस भव्य मंदिर के निर्माण पर हम फूले नहीं समा रहे हैं, वो इतना आसान भी नहीं होता।
तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिंहा राव ने ना सिर्फ प्रशासनिक बल्कि जमीनी स्तर पर आर्थिक सहायता कर ढांचा तोड़ने में अहम भूमिका निभाई। परमपूज्य शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद सरस्वती, ब्रह्मदत्त द्विवेदी, बाला साहब ठाकरे, स्थानीय स्तर पर संतोष दुबे और उनकी सेना की भूमिका पर पर्दा डाल दिया गया पर सच्चाई ये है कि आज जो भव्य मंदिर का निर्माण संभव हो पाया है वो इनके बलिदान के बिना असंभव था।