श्वेता पुरोहित-
दंडक वन में घूमते हए आगे-आगे श्रीराम चले, बीच में परम सुन्दरी सीता चल रही थीं और उनके पीछे हाथ में धनुष लिये लक्ष्मण चलने लगे।
सीता के साथ वे दोनों भाई भाँति-भाँति के पर्वतीय शिखरों, वनों तथा नाना प्रकार की रमणीय नदियों को देखते हुए अग्रसर होने लगे। उन्होंने देखा, कहीं नदियों के तटों पर सारस और चक्रवाक विचर रहे हैं और कहीं खिले हुए कमलों और जलचर पक्षियों से युक्त सरोवर शोभा पाते हैं।
कहीं चितकबरे मृग यूथ बाँधे चले जा रहे थे, कहीं बड़े-बड़े सींगवाले मदमत्त भैंसे तथा बढ़े हुए दाँतवाले जंगली सूअर और वृक्षों के वैरी दन्तार हाथी दिखायी देते थे।
दूर तक यात्रा तै करने के बाद जब सूर्य अस्ताचल को जाने लगे, तब उन तीनों ने एक साथ देखा कि सामने एक बड़ा ही सुन्दर तालाब है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक योजन की जान पड़ती है।
वह सरोवर लाल और श्वेत कमलों से भरा हुआ था। उसमें क्रीड़ा करते हुए झुंड-के-झुंड हाथी उसकी शोभा बढ़ाते थे। तथा सारस, राजहंस और कलहंस आदि पक्षियों एवं जल में उत्पन्न होनेवाले मत्स्य आदि जन्तुओं से वह व्याप्त दिखायी देता था । स्वच्छ जल से भरे हुए उस रमणीय सरोवर में गाने-बजाने का शब्द सुनायी देता था, किंतु कोई दिखायी नहीं दे रहा था।
तब श्रीराम और महारथी लक्ष्मण ने कौतूहलवश अपने साथ आये हुए धर्मभृत् नामक मुनि से पूछना आरम्भ किया – ‘महामुने! यह अत्यन्त अद्भुत संगीत की ध्वनि सुनकर हम सब लोगों को बड़ा कौतूहल हो रहा है। यह क्या है, इसे अच्छी तरह बताइये ‘।
श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर धर्मात्मा धर्मभृत् नामक मुनि ने तुरंत ही उस सरोवर के प्रभाव का वर्णन आरम्भ किया – ‘श्रीराम ! यह पञ्चाप्सर नामक सरोवर है, जो सर्वदा अगाध जल से भरा रहता है। माण्डकर्णि नामक मुनि ने अपने तप के द्वारा इसका निर्माण किया था।
‘महामुनि माण्डकर्णि ने एक जलाशय में रहकर केवल वायु का आहार करते हुए दस सहस्र वर्षों (१०,००० वर्ष) तक तीव्र तपस्या की थी ।
‘उस समय अग्नि आदि सब देवता उनके तप से अत्यन्त व्यथित हो उठे और आपस में मिलकर वे सब-के-सब इस प्रकार कहने लगे।
‘जान पड़ता है, ये मुनि हम लोगों में से किसी के स्थान को लेना चाहते हैं, ऐसा सोचकर वे सब देवता वहाँ मन-ही-मन उद्विग्न हो उठे।
‘तब उनकी तपस्या में विघ्न डाल ने के लिये सम्पूर्ण देवताओं ने पाँच प्रधान अप्सराओं को नियुक्त किया, जिनकी अङ्गकान्ति विद्युत्के समान चञ्चल थी।
‘तदनन्तर जिन्होंने लौकिक एवं पारलौकिक धर्माधर्म का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उन मुनि को उन पाँच अप्सराओं ने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये काम के अधीन कर दिया।
‘मुनि की पत्नी बनी हुई वे ही पाँच अप्सराएँ यहाँ रहती हैं। उनके रहने के लिये इस तालाब के भीतर घर बना हुआ है, जो जल के अंदर छिपा हुआ है।
‘उसी घर में सुखपूर्वक रहती हुई पाँचों अप्सराएँ तपस्या के प्रभाव से युवावस्था को प्राप्त हुए मुनि को अपनी सेवाओं से संतुष्ट करती हैं।
‘क्रीड़ा-विहार में लगी हुई उन अप्सराओं के ही वाद्यों की यह ध्वनि सुनायी देती है, जो भूषणों की झनकार के साथ मिली हुई है। साथ ही उनके गीत का भी मनोहर शब्द सुन पड़ता है’।
अपने भाई के साथ महायशस्वी श्रीरघुनाथ जी ने उन भावितात्मा महर्षि के इस कथन को ‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है’ यों कहकर स्वीकार किया।
इस प्रकार कहते हुए श्रीरामचन्द्रजी को एक आश्रममण्डल दिखायी दिया, जहाँ सब ओर कुश और वल्कल वस्त्र फैले हुए थे। वह आश्रम ब्राह्मी लक्ष्मी (ब्रह्मतेज) से प्रकाशित होता था।
विदेहनन्दिनी सीता तथा लक्ष्मण के साथ उस तेजस्वी आश्रममण्डल में प्रवेश करके ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने उस समय सुखपूर्वक निवास किया। वहाँ के महर्षियों ने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया।