किंगफ़िशर को नीलकंठ भी कहते है। ये बात जीवन के लगभग डेढ़ दशक के बाद पता चली उसके पहले वो मेरे लिए भगवान शंकर थे, जो रूप बदल कर अपनी बनाई दुनिया में ये देखने आते थे कि उनके बनाये इंसान क्या कर रहे हैं? और अगर वो दिख जाएं तो ज़रूर कुछ अच्छा होता था। वो मन की बात जान लेते थे इसीलिए मिलने आते थे, ये धारणा विकसित करने में मेरी माँ की माँ यानि- मेरी बड़ी मम्मी (नानी) का बहुत योगदान था।
मैं लगभग 5 साल की, मेरी परवरिश नानी के घर पर ही हुई 5 साल की उम्र से कुछ एक साल पहले ही मुझे नानी ये कह कर अपने पास रख लिया कि उनको बच्चे का साथ मिल जायेगा और मेरे दो भाई-बहनो की जिम्मेदारी को निभाते हुए मेरी माँ को कुछ आराम! और ऐसा ही हुआ भी, मैं नानी की जिज्ञासा का केंद्र होने के साथ उनकी धुरी कब हो गयी ये उनको भी पता नहीं चला! उन्होंने ही एक शाम छत के पास से गुज़रती नीलकंठ को देख कर मेरे ये कहने पर कि ‘कितनी सुन्दर चिड़िया है!’ उन्होंने कहा कि यह चिड़िया नहीं है शंकर भगवान हैं! इनसे जो माँगो वो मिल जाता है और मैंने भोलेपन से पुछा था कि ‘आपने कुछ माँगा क्या बड़ी मम्मी?’ तो हंस कर बोली ‘मन्नत’ बताई नहीं जाती! तू अपनी मन्नत कह, मैं अपनी कहूँगी।’ कुछ देर बाद नानी काम करने नीचे चली गयी और मैं वही छत पर रही, जब तक नीलकंठ मुझे चकमा दे कर उड़ नहीं गया।
अब ये रोज़ का ही सिलसिला बन गया। मैं छत पर शाम को जा कर नीलकंठ का इंतज़ार करती और हफ्ते के सात में से 5-6 दिन वो भी नियम से आता, कुछ बोलता नहीं, बस बैठा रहता! मैंने उसकी आवाज़ कभी नहीं सुनी?
मैंने बड़ी मम्मी को जब ये कहा, नीलकंठ रोज़ मुझे मिलने आता है। ये बात उनके लिए मुस्कुराने का विषय होती। मेरे लिए वो मेरा बेस्ट फ्रेंड बन गया था! जब तक वो तारों पर बैठा रहता मैं उससे अपने मन की सारी बातें कहती। जब कभी नाना जी से डांट पड़ती, तब शिकायत सीधे नीलकंठ से होती। क्लास वन में ये सब करने की बात आज सोच कर हैरानी होती है! मेरी शिकायतों के अंत में एक ही प्रार्थना होती थी की मेरी मम्मी मुझे नानी के पास से अपने पास ले जाए जैसे वो मेरे भाई-बहनो को अपने पास रखती हैं।
कुछ महीने बीते और मेरे क्लास के रिजल्ट आ गए थे और उसके बाद छुट्टिया! मगर मेरा घर में मन नहीं लगता, न कोई दोस्त न कोई रिश्तेदार न कोई हम-उम्र भाई बहन। नाना जी का स्वभाव काफी कठोर था उनका भी कोई दोष नहीं, वो मिलेट्री में जो रहे थे। उनको मेरा घर पर रहना और घर में ही खेलना पसंद था। ऐसे मैं नीलकंठ मेरे साथ खेलता तो नहीं था पर तकरीबन रोज़ मेरी मन की सारी बात सुनने आता।
उस नीलकंठ का शंकर जी होना सच लगा। छुट्टियों में बड़ी मम्मी ने कहा की वो मुझे लेकर लखनऊ जा रही हैं और अब से मैं वही रहूंगी, अपने भाई बहनो के साथ। ‘अपनी मम्मी के साथ’ ये सुन कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा और मैं तैयार हो गयी। बचपन में व्यवहारिक बातों का इतना भान कहाँ होता है मुझे वहां जाने कि ख़ुशी इतनी थी कि मैंने ये सोचा ही नहीं कि मेरे बिना बड़ी मम्मी कैसे रहेगी? पर शायद उनके मन बस यही एक बात थी लगातार जो उनको परेशान कर रही थी उन्होंने मुझसे पूछा था, ‘तू तो वहां जाकर मुझे भूल जाएगी, वहां जाकर नए स्कूल, नए दोस्त, नया घर और नयी मम्मी (मेरी मम्मी) तो मैं बूढी कहाँ याद आउंगी’ तब एक क्षण को मैं दुखी हुई और मैंने कहा ‘नहीं मैं आपको कैसे भूलूँगी’ मैं अपनी सारी बातें नीलकंठ से कह दूंगी और वो यहाँ रोज़ आता है वो आपको बता देगा ।
बड़ी मम्मी बोली पर तेरा घर तो दूर है वो कैसे आएगा यहाँ से? मैंने भोलेपन से कहा था-पर आप तो कहती है कि वो नीलकंठ शंकर भगवान है और भगवान हमें देखने नीलकंठ का रूप बना कर आते हैं, तो वो क्यों नहीं आ पाएंगे? इस पर में नानी ने मुझे प्यार से चूमते हुए कहा था हाँ सच कह रही है, मैं तो मज़ाक कर रही थी, भूल गयी थी तूने याद दिला दिया और फिर वो दिन भी आ गया जब मैं और बड़ी मम्मी लखनऊ चले गए, मम्मी पापा के पास! मैं नए माहौल में नए लोगो में नीलकंठ को लगभग भूल ही गयी थी और एक दिन अचानक बड़ी मम्मी ने कहा कि वो कल वापस बरेली जा रही है तब मैं दुखी हो गयी और रोने लगी, मुझे बचपन से बड़ी मम्मी और डैडी (नाना जी) के साथ रहने कि आदत जो थी ।
तब मुझे नीलकंठ का ख्याल आया सोच रही थी काश! उसको पहले बता देती कि बड़ी मम्मी भी यही रहें हमारे साथ तो ये विश भी वो पूरी कर देता। बहुत रोना धोना हुआ, मेरी बड़ी बहन मुझे रोता देख अब हंस रहे थे। मैं उनके लिए एक पागल जैसी थी क्योंकि मैं अपनी मम्मी को छोड़ नानी के पास जाने के लिए रो रही थी।
इस वादे के साथ मैंने बड़ी मम्मी को जाने दिया कि नीलकंठ को अपना हाल-चाल बता कर रोज़ मेरे पास भेजेंगी, मैंने नानी को वापस बरेली जाने दिया। तब फ़ोन नहीं के बराबर थे और पीसीओ भी घर से तक़रीबन दूर होते थे। ऐसे मैं एक मात्र सहारा चिट्ठियां ही थी लेकिन चिट्ठियों को आने में काफी दिन लगते थे! तब मुझे लगता इससे अच्छा तो नीलकंठ ही था जो मन कि बात सुन लेता था रोज़! मगर यहां नए शहर के कच्चे आँगन के पेड़ों पर भी नीलकंठ का कोई पता नहीं था। मैं उससे नाराज़ थी कि वो आया नहीं। कितनी सारी बातें कहनी थी मुझे! नए स्कूल में फिर से क्लास वन में ही एड्मिशन पास कोई अपना नहीं मिल रहा था जिससे मैं अपना दुःख बांटती।
इन्हीं विचारों में दो-तीन महीने बीते और इस बीच बड़ी मम्मी कि चिठ्ठी भी आ गयी। सब धीमा सा लगता था मगर चल रहा था कि अचानक एक शाम मैं घर पर अकेले थी छोटे भाई को लेकर मम्मी दूध लेने गयी थी और बड़ी बहिन अपने दोस्तों के साथ बाहर खेल रही थी। मैं पेड़ों के झरमुट में फूल तलाश रही थी कि अचानक मेरी नज़र कनेर के गुलाबी पेड़ कि बड़ी टहनी पर गयी वहां नीलकंठ बैठा था। उसे देख मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। उस दिन उससे बहुत सी बातें कही! बाल मन के सुख दुःख, शिकायतें सभी कुछ और जैसे वो भी तस्सली में था। सब सुना उसने फिर काफी देर बाद किसी कि दस्तक से उड़ गया मुझसे आँख बचाकर! उस के बाद मैंने पूरे घर मैं कहना कर दिया कि नीलकंठ मुझसे मिलने आया था! ये सुनकर सबने मेरा मज़ाक बनाना शुरू कर दिया! बहन और भाई हंसने लगे मैं चुप रही अगले दिन भी यही हुआ। मैंने घर में बताया तो किसी ने बात न मानी, मम्मी बोली कि ऐसा नहीं होता वो एक चिड़िया है वो कही भी बैठ सकती है कल आएगी तो मानेगे ।
अगले दिन संडे था। मैं शाम होने का इंतज़ार कर रही थी और मैंने अपने घर मैं सबको बता दिया कि आज फिर नीलकंठ आएगा। मगर वो नहीं आया। घर में मेरा मज़ाक बना, मैं झूठी साबित हो चुकी थी। मगर इन सबसे ज़्यादा मुझे दुःख था कि मेरी सत्यता के साक्षी नीलकंठ और बड़ी मम्मी दोनों मेरे पास नहीं थे। अगले दिन स्कूल कि दौड़ भाग में ये घटना मैं भी भूल गयी थी मगर वहां इंटरवेल में लंच के वक़्त एक अमरुद के पेड़ पर नीलकंठ ऐसे बैठा था जैसे मुझसे माफ़ी मांग रहा हो मैंने भी मन ही मन उससे सारी शिकायतें कर डाली।
उस दिन उससे ये शर्त भी लगा डाली कि वो मुझे मिलने आएगा चाहे कुछ भी हो जाए। आज आश्चर्य होता है कि अगले कुछ दिन वो मुझे स्कूल के उसी अमरुद के पेड़ पर इंटरवेल में दिखता था! मैंने अपनी ये बात अपने नए स्कूल कि अपनी बेस्ट फ्रेंड माधुरी को बताई और उसने यकीन भी कर लिया, इस बार मैंने पिछली बार जैसे गलती नहीं की! माधुरी को ये पहले ही बता दिया कि नीलकंठ मुझसे मिलने आता तो है पर ये ज़रूरी नहीं कि जब मैं उसे तुमसे मिलने को मना भी कर सकता है। उसके बाद माधुरी ने भी एक-दो बार नीलकंठ से मुलाकात की, अब वो कभी एक जगह नहीं आता था। कभी उड़ते हुए, कभी घर की छत पर, कभी किसी और की छत पर दिख जाता।
अब नीलकण्ठ इतनी जल्दी तो नहीं लेकिन हाँ कभी कभी मेट्रो सफर के बीच बाहर किसी पेड़ पर या अपाटर्मेंट की किसी छत पर कभी कभी दिख जाता है। हाल ही में अपाटर्मेंट के पीछे एक छोटे से अमरुद के पेड़ पर मैंने उसे देर तक बैठे हुए देखा! बालमन कि सारी यादें ताज़ा हो गयी, देर तक दूर से उससे बात की, धन्यवाद किया कि बालमन में आने वाले सभी विचारों को उसने हमेशा ध्यान से सुना, और मन ही मन सलाह भी दी! उसके आसमानी रंग, नीले-भूरे गर्दन के पर और मोती भूरी चोंच की सुंदरता में आज भी मेरे लिए बचपन का भोला प्रेम छिपा है जो आज भी भोले बाबा और शंकर जी के रूप में मेरा हाल लेने आता है, ये यकीन हैं।
काश! मैंने नील कंठ से ही पूछ लिया होता की जब मैं अपनी मम्मी –पापा और भाई बहन का साथ माँगा करती थी तब बड़ी मम्मी क्या मांगती थी?
काश! ये बात मैं अपनी बड़ी मम्मी को बता पाती, वो तो मुझे लखनऊ छोड़ने के 4-5 सालों में ही भगवान के पास चली गयी थी।
काश ! मैं उनको बता पाती आज भी नीलकंठ मेरे उतना ही अज़ीज़ है जितना वो थी।
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