कोरोना काल में भारत के सभी फिल्म उद्योग ज़ीरो रेवेन्यू पर आ टिके हैं। ऐसे निराशाजनक समय में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फिल्म सिटी बनाने की घोषणा कर डाली। जब सारी भाषाओं के फिल्म उद्योग आर्थिक रूप से रसातल में पहुँच गए हो, तो ये एक साहसिक घोषणा मानी जाएगी। सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण के बाद कम से कम योगी आदित्यनाथ को ये समझ आ गया है कि ड्रग सिंडिकेट में भागीदार, आईएसआई की लिप्तता से संचालित होने वाले फिल्म उद्योग के दिन अब कम ही बचे हैं।
हिन्दी फिल्म उद्योग का भविष्य अब अनिश्चित दिखाई दे रहा है। यदि ऐसे समय में उत्तरप्रदेश की धरती से फिल्म निर्माण का स्वप्न सच हो जाए तो हिन्दी भाषा पर बॉलीवुड का आधिपत्य समाप्त होगा और उसे एक शक्तिशाली प्रतियोगी मिलेगा, जो बॉलीवुड को सुधारने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
अत्यंत प्रतिभाशाली निर्देशक की लोकप्रिय मराठी फिल्म हरिश्चन्द्राची फैक्टरी को सन 2010 में राष्ट्रीय पुरस्कार समेत ढेरों सम्मान प्राप्त हुए थे। ये फिल्म भारतीय सिनेमा के संस्थापक दादा साहेब फाल्के की पहली फिल्म के संघर्ष को लेकर है, जो उन्होंने सन 1913 में बनाई थी। राजा हरिश्चंद्र बनाकर फाल्के ने एक पौधा लगाया था, जो आज वटवृक्ष का रूप ले चुका है।
फिल्म के एक दृश्य में फाल्के अपने बेटे के साथ मेले में गए हैं। वहां अंग्रेज़ों द्वारा लाया गया प्रोजेक्टर सिनेमा भी है। कौतूहलवश फाल्के बेटे के साथ टिकट लेकर तंबूनुमा थियेटर में घुस जाते हैं। परदे पर चित्रों को चलायमान देख फाल्के ठगे से रहे गए हैं। उसके बाद वे बार-बार टिकट लेते हैं और सिनेमा देखते हैं। जब वे बाहर निकलते हैं तो जेब खाली है लेकिन मन में एक स्वप्न है कि ऐसी ही फिल्म भारत में बनानी है।
दादा साहेब फाल्के के इस स्वप्न पर ऐसे लोगों नियंत्रण है जो नशे के व्यापारी हैं, जो देश विरोधी है। आज दादा साहेब की आत्मा कितनी दुखती होगी कि उनके उगाए वटवृक्ष पर मांस नोंचने वाले गिद्ध आ बैठे हैं। बॉलीवुड को ये मालूम है कि भोजपुरी, मराठी और बंगाली सिनेमा की तरह उसे हिन्दी भाषा में चुनौती देने वाला कोई नहीं है, इसलिए वह कुछ विषयों को दर्शकों पर जबरन थोपता है।
इस एकाधिकार का लाभ लेकर वह पद्मावत जैसी फ़िल्में बनाता है। इसलिए ही करण जौहर गुंजन सक्सेना जैसी फ़िल्में बना लेते हैं, जिसमे भारतीय वायु सेना का विकृत चित्रण किया गया है। उत्तरप्रदेश में यदि हिन्दी भाषा आधारित फ़िल्में बनाई जाती हैं तो बॉलीवुड को भी सीधी राह पर आना होगा और उसका अहंकार भी ज़मीन पर आएगा। दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग इसलिए ही बॉलीवुड के आगे नहीं झुकता। वह निर्देशन से लेकर तकनीक में बॉलीवुड से बहुत आगे चल रहा है।
भोजपुरी फिल्म उद्योग का बाजार आज 2000 करोड़ से अधिक हो चुका है। मराठी फिल्म उद्योग भी तरक्की की राह पर है। नागराज मंजुले की सैराट की प्रचंड सफलता मराठी सिनेमा के लिए मील का पत्थर बन गई। मात्र 4 करोड़ की लागत से बनी सैराट पहली ऐसी मराठी फिल्म थी, जिसने सौ करोड़ क्लब में शान से प्रवेश किया।
मराठी फिल्मों का बजट अधिक नहीं होता। वैसे ही बंगाली फिल्म उद्योग ने सन 2011 में ऊंचाइयां देखना शुरू की। बंगाली फिल्मों का बजट महज 7 से 10 करोड़ के बीच होता है। बॉलीवुड से विलग इन भाषाई फिल्म उद्योगों की सफलता का मूलमंत्र यही है कि कम लागत में फिल्म बनाओ और अधिक मुनाफा कमाओ।
अब बॉलीवुड को देखे तो यहाँ बड़े सितारों की फिल्म का बजट सौ करोड़ के लगभग होता है। यहाँ सितारें महंगी फीस वसूल रहे हैं। सलमान खान, अक्षय कुमार, अजय देवगन जैसे सितारों की फीस करोड़ों में होती है, इसके कारण फिल्म ओवरबजट हो जाती है।
फिल्म न चले तो घाटा फिल्म उद्योग को झेलना होता है लेकिन सितारों का भाव जस की तस बना रहता है। वे अपनी फीस कम नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि उनका सिक्का बॉक्स ऑफिस पर चलता है। आपको आश्चर्य होगा कि 2017 से लेकर 2019 के बीच अधिकांश वे फ़िल्में हिट हुई, जिनमे बड़े सितारें नहीं थे। अंधाधुन, बधाई हो, सोनू के टीटू की स्वीटी, बरेली की बर्फी ने रिकॉर्ड तोड़ कमाई की।
इनकी सफलता का मूलमंत्र यही है कि कम पैसों में फिल्म बनाओ, बड़े सितारों के बजाय प्रतिभाशाली युवा कलाकारों को लो, विषयवस्तु में भारत हो, बैकड्रॉप में यहाँ की संस्कृति की झलक हो, स्विट्ज़रलैंड के सुहाने दृश्य न हो।
योगी आदित्य नाथ दृढ़ आत्मबल रखते हैं। उन्होंने घोषणा की है, तो उसका कार्यान्वित होना निश्चित है। उन्हें अपनी फिल्म सिटी को महाशक्तिशाली बॉलीवुड से लोहा लेने लायक बनाना है तो यही मूलमंत्र अपनाना होगा। क्षेत्रीय भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी भाषा की फ़िल्में बनानी होगी।
ऐसे हज़ारों प्रतिभावान युवा हैं, जिन्हे नेपोटिज़्म के चलते बॉलीवुड में जगह ही नहीं मिलती। उनकी प्रतिभाओं का उपयोग कीजिये योगी जी। वे भरे बैठे हैं, उनके मन में ये क्रोध अग्नि की तरह प्रज्ज्वलित है कि प्रतिभावान होने के बाद भी उन्हें उचित स्थान नहीं मिला। ये फिल्म सिटी बॉलीवुड को टक्कर दे सकती है, बशर्ते योगी आदित्यनाथ सही और सक्षम लोगों का चयन कर इस स्वप्न को साकार करे।