फिल्म समीक्षा: ओमेर्टा
निर्देशक: हंसल मेहता
कॉस्ट: राजकुमार राव, राजेश तेलंग, रुपिंदर नागरा
साल 2002। अमेरिकन पत्रकार डेनियल पर्ल कराची के एक मोहल्ले के दड़बे में कैद है। एक रात वह अपने बंधन खोलने में कामयाब हो जाता है। कोठरी की खिड़की से कूद कर डेनियल खेतों की ओर भागता है। तभी एक फायर की आवाज सन्नाटे को चीरती निकल जाती है। गोली डेनियल की पीठ में लगी है लेकिन वह भागता जा रहा है। दूसरा फायर होता है और डेनियल जमीन पर लुढ़क जाता है। डेनियल जमीन पर पड़ा तड़प रहा है। अभी उसकी जान नहीं गई है। ओमर ब्रिटिश लहजे में अपने साथी से कहता है ‘गिव मी द नाइफ’। ओमर बेसुध पड़े डेनियल के पास बैठ गया है। अब वातावरण में ख़ामोशी है। ओमर डेनियल की गर्दन पर छुरी रखकर रेत रहा है। नसों के कटने और खून बहने का धीमा शोर वातावरण को और भयानक बना रहा है। डेनियल एक तगड़ा इंसान है इसलिए छुरी से उसकी गर्दन अलग करने में ओमर को बड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। अब ओमर झुंझला गया है और छुरी के चलने की आवाज़ तेज़ हो गई है, खून के फव्वारों से ओमर का चेहरा लाल हो गया है। डेनियल की गर्दन उसके धड़ से अलग पड़ी है, ओमर के चेहरे पर एक पाशविक मुस्कान उतर आई है। इस मुस्कान को हम अलाउद्दीन खिलजी से लेकर कसाब तक के चेहरे में बदस्तूर देखते आ रहे हैं।
‘ओमेर्टा’ को फिल्म कहना गलत होगा, ये तो एक सांस लेता दस्तावेज है, तलवार की धार पर लिखा गया दस्तावेज। ओमेर्टा’ का मतलब होता है, ‘कोड ऑफ साइलेंस। ऐसी चुप्पी जो विश्वव्यापी है। सरकारें इसका समय-समय पर बेजा इस्तेमाल करती रही हैं। ओमेर्टा’ एक इटालियन शब्द है और इसका भारत के एक पूर्व प्रधान और उनकी अघोषित मालकिन से भी गहरा सम्बन्ध है। इस शब्द का पाकिस्तान के हुक्मरानों से भी गहरा सम्बन्ध है। ‘ओमेर्टा’ इसी चुप्पी पर सवाल उठाती है जो अहमद ओमर सईद शेख जैसे खूंखार आतंकी पर धर ली गई थी।
‘ओमेर्टा’ उस आतंकी की जिंदगी की पड़ताल करती है, जिसके लिए 1999 में भारत से यात्रियों से भरा विमान हाईजैक कर कंधार ले जाया गया था। ओमर के अलावा मसूद अजहर और मुश्ताक अहमद जरगर को मजबूरन रिहा करना पड़ा था। फिल्म बेहद सच्चाई से दुर्दांत आतंकी ओमर के बारे में बताती है कि एक पढ़ा लिखा नौजवान जिहाद की गिरफ्त में आकर घिनौना दरिंदा बन गया । निर्देशक हंसल मेहता ओमर के उन दिनों से शुरुआत करते हैं जब वह जिहादियों के संपर्क में आया था। उसके बाद वह 1994 में भारत आया और यहाँ रोहित शर्मा नाम से गतिविधियों को अंजाम दिया। यहाँ चार विदेशियों के अपहरण के बाद पकड़ा गया और 1999 में कंधार हाइजैकिंग में भारतीय यात्रियों के बदले रिहा किया गया।
हंसल मेहता वास्तविकता के धरातल पर दृश्यों को रचते हैं। भारत में विदेशियों के अपहरण वाला सीक्वेंस देखते ऐसा लगता है कि हम सच्चाई में ये सब घटते देख रहे हैं। कैमरा संचालन हंसल द्वारा बनाए गए लज़ीज केक की सजावट है। अनुज राकेश धवन का कैमरा वर्क उन बातों को कह देता है, जिन्हे हंसल मेहता मौखिक रूप से नहीं कह पाते। उनके ‘मिड और लॉन्ग शॉट’ बहुत कसी हुई फ्रेम में अत्यंत प्रभावशाली लगते हैं। लंबे समय बाद किसी फिल्म में इतना प्रभावोत्पादक कैमरा वर्क देखने को मिला है। अनुज के लिए विलक्षण एंगल राजकुमार राव के किरदार की भयावहता को विस्तार देते हैं।
कहने में गुरेज नहीं है कि इस वर्ष का श्रेष्ठ अभिनेता हमें राजकुमार राव के रूप में मिल गया है। कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार में राजकुमार ने कहा था कि ओमर के किरदार को निभाने के बाद वे मानसिक अवसाद का शिकार हो गए थे। जब राजकुमार ओमर के किरदार में उतरे तो उसकी पाशविकता ने उनके अन्तस को परेशान किया था। 44 साल का असली ओमर पाकिस्तान में आजीवन कारावास की सजा भोग रहा है लेकिन आप इस फिल्म में उसे ‘राजकुमार राव’ के रूप में चलते-फिरते देख सकते हैं और यहीं इस किरदार के लिए उनकी सबसे बड़ी प्रशंसा होगी।
फिल्म को वास्तविक जामा पहनाने के लिए पुराने टीवी दृश्यों का इस्तेमाल किया गया है। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, मोहम्मद रफीक तरार और ओमर के सच्चे फुटेज डाले गए हैं। ओमर के वर्तमान और अतीत साथ-साथ चलते हैं। कुल मिलाकर फिल्म अंतरराष्ट्रीय स्तर को न केवल छूती है बल्कि कई विदेशी पुरस्कारों के लिए भी दम से दावा ठोंकती है। जो मुस्लिम बच्चे कच्ची उम्र में जेहाद की ओर आकर्षित होकर आतंक का रास्ता अपना लेते हैं, उन्हें और उनके अभिभावकों को ये फिल्म देखनी चाहिए। उन्हें जानना चाहिए कि दुनिया के बाकी धर्मों के लिए ज़हर भरी शिक्षा देने वाले दरवाज़ों के भीतर ही आतंकी तराशे जाते हैं।
ओमर जितना शिक्षित था, उतना ही बड़ा हैवान। ‘काफिर’ को देखते ही हैवानियत उसकी आँखों में उतर आती थी। हंसल मेहता की ये विलक्षण फिल्म कई सेकुलरों को हजम नहीं हो रही है। कई समीक्षक इसे औसत फिल्म बता रहे हैं तो कई का कहना है ये एक वृत्तचित्र है। एक मोहतरमा लिखती हैं ‘फिल्म देखने से पहले मन में यही ख्याल था कि ओमेर्टा भी आम हिंदी कमर्शियल फिल्मों की तरह होगी जिसमें ‘भारत माता की जय!’ के कानों को चुभने वाले नारे और शोर होगा।’ जिनको भारत माता की जय के नारे चुभने वाले लगे हैं, उन्हें और भी बातें चुभ गई हैं। उनके मुताबिक बोस्निया में मुस्लिमों की हत्या से बेचैन होकर उसने ये कदम उठाया। दुनिया में और भी मजहब के लोग मारे जाते हैं तो क्या वे भी बंदूक उठा लेते हैं।
हंसल मेहता की ‘ओमेर्टा को देखने के लिए कलेजा चाहिए। ओमर की दरिंदगी को देख सकने की ताकत हो और आतंकवाद पर एक सच्चा सिनेमा देखना चाहते हैं तो इस वीकेंड इस फिल्म का टिकट कटाइये। इसमें कोई मनोरंजन नहीं है, वास्तविकता ही इसका सबसे बड़ा मनोरंजन है।
URL: Omertà Film Review-the-true-story-of-terrorism
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