श्वेता पुरोहित। श्रीराम जय राम जय जय राम
- पूज्य स्वामी श्रीशिवानन्दजी
लंका-विजय के उपरान्त अयोध्या में एक बार भगवान् श्रीराम अपने राज-दरबार में विराजमान थे। उस समय राजा श्रीराम को कुछ आवश्यक परामर्श देनेके लिये देवर्षि नारद, विश्वामित्र, वसिष्ठ और अन्य अनेक ऋषिगण पधारे हुए थे।
जबकि एक धार्मिक विषयपर विचार-विनिमय चल रहा था, देवर्षि नारदने कहा- ‘सभी उपस्थित ऋषियोंसे एक प्रार्थना है। आपलोग अपने-अपने विचारसे यह बतायें कि ‘नाम’ (भगवान्का नाम) और ‘नामी’ (स्वयं भगवान्)-में कौन श्रेष्ठ है ?’ इस विषयपर बड़ा वाद-विवाद हुआ; किंतु राज-सभामें उपस्थित ऋषिगण किसी निर्णयपर नहीं पहुँच सके। अन्तमें देवर्षि नारदने अपना अन्तिम निर्णय दे दिया- ‘निश्चय ही नामीसे नाम श्रेष्ठ है और राज-सभाके विसर्जन होनेके पूर्व ही प्रत्यक्ष उदाहरणके द्वारा इसकी सत्यता प्रमाणित कर दी जा सकती है।’
तदनन्तर नारदजी ने हनुमान्जी को अपने पास बुलाया और कहा- ‘महावीर ! जब तुम सामान्य रीतिसे सभी ऋषियोंको और श्रीरामको प्रणाम करो, तब विश्वामित्र को प्रणाम मत करना। वे राजर्षि हैं; अतः वे समान व्यवहार और समान सम्मानके योग्य नहीं हैं।’ हनुमान्जी सहमत हो गये। जब प्रणामका समय आया, हनुमान्जीने सभी ऋषियोंके सामने जाकर सब को साष्टांग दण्डवत्-प्रणाम किया; केवल मुनि विश्वामित्र को नहीं किया। मुनि विश्वामित्रजी का मन कुछ क्षुब्ध हो उठा।
तब नारदजी विश्वामित्र मुनि के पास गये और बोले- ‘महामुने ! हनुमान्की धृष्टता तो देखो। भरी राज-सभामें आपके अतिरिक्त उसने सभी को प्रणाम किया। उसे आप अवश्य दण्ड दें। आप ही देखिये, वह कितना उद्दण्ड और घमण्डी है ?’ बस, इतनेपर तो विश्वामित्र मुनि आगबबूला हो गये। वे राजा रामके पास गये और बोले- ‘राजन् ! तुम्हारे सेवक हनुमान्ने इन सभी महान् ऋषियोंके बीचमें मेरा घोर अपमान किया है। अतः कल सूर्यास्तके पूर्व उसे तुम्हारे हाथों मृत्युदण्ड मिलना चाहिये।’ विश्वामित्र रामके गुरु थे। अतः राजा रामको उनकी आज्ञाका पालन करना था। उसी समय भगवान् राम निश्चेष्ट-से हो गये, इसलिये कि उनको अपने हाथों अपने परम अनन्य स्वामिभक्त सेवकको मृत्युदण्ड देना होगा। ‘श्रीरामके हाथों हनुमान्को मृत्युदण्ड मिलेगा’- यह समाचार बात-की-बातमें सारे नगरमें फैल गया।
हनुमान्जीको भी बड़ा ही खेद हुआ। वे नारदजीके पास गये और बोले-‘देवर्षि! मेरी रक्षा करो। भगवान् श्रीराम कल मेरा वध कर डालेंगे। मैंने आपके परामर्शके अनुसार ही कार्य किया। अब मुझे क्या करना चाहिये ?’ नारदजीने कहा – ‘ओ हनुमान् ! निराश मत होओ। जैसा मैं कहता हूँ, वैसा करो। ब्राह्ममुहूर्तमें बड़े सबेरे उठ जाओ। सरयूमें स्नान करो। फिर सरिताके बालुका- तटपर खड़े हो जाओ और हाथ जोड़कर ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’- मन्त्रका जप करो। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुमको कुछ नहीं होगा।’
दूसरे दिन प्रभात हुआ। सूर्योदयके पहले ही हनुमान्जी सरयूतटपर गये, स्नान किया और जिस प्रकारसे देवर्षि नारदने कहा था, तदनुसार हाथ जोड़कर भगवान्के उपर्युक्त नामका जप करने लगे। प्रातःकाल हनुमान्जीकी कठिन परीक्षा देखनेके लिये नागरिकों की भीड़-की-भीड़ इकट्ठी हो गयी। भगवान् श्रीराम हनुमान्जीसे बहुत दूर खड़े हो गये, अपने परम सेवकको करुणार्द्र दृष्टिसे देखने लगे और अनिच्छापूर्वक हनुमान्पर बाणोंकी वर्षा करने लगे, परंतु उनका एक भी बाण हनुमान्को वेध नहीं सका, सम्पूर्ण दिवस बाण-वर्षा होते रहनेपर भी हनुमान्जीपर कोई प्रभाव नहीं हुआ। भगवान्ने ऐसे शस्त्रोंका भी प्रयोग किया, जिनसे वे लंकाकी रणभूमिमें कुम्भकर्ण तथा अन्यान्य भयंकर राक्षसोंका वध कर चुके थे। अन्तमें भगवान् श्रीरामने अमोघ ‘ब्रह्मास्त्र’ उठाया। हनुमान्जी भगवान्के प्रति आत्मसमर्पण किये हुए पूर्ण भाव के साथ मन्त्र का जोर-जोर से उच्चारण करके जप कर रहे थे। वे भगवान् रामकी ओर मुसकराते हुए देखते रहे और वैसे ही खड़े रहे। सब आश्चर्यमें डूब गये और हनुमान्की ‘जय जय’ का घोष करने लगे।
ऐसी स्थिति में नारदजी विश्वामित्र मुनिणके पास गये और बोले- ‘हे मुनि ! अब आप अपने क्रोधका संवरण करें। श्रीराम थक चुके हैं। विभिन्न प्रकारके बाण हनुमान्का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। यदि हनुमान्ने आपको प्रणाम नहीं किया, तो इसमें है ही क्या ? अब इस संघर्षसे श्रीरामकी रक्षा कीजिये और इस प्रयाससे उन्हें परावृत्त कीजिये। अब आपने श्रीरामके नामकी महत्ताको समझ-देख ही लिया है।’ इन शब्दोंसे विश्वामित्र मुनि प्रभावित हो गये और ‘ब्रह्मास्त्रद्वारा हनुमान्को नहीं मारें’ – ऐसा श्रीराम को आदेश दिया। हनुमान्जी आये और अपने स्वामी श्रीरामके चरणोंपर गिर पड़े एवं विश्वामित्र मुनिको भी उनकी दयालुताके लिये प्रणाम किया। विश्वामित्र मुनिने बहुत प्रसन्न होकर हनुमान्जीको आशीर्वाद दिया। उन्होंने श्रीरामके प्रति हनुमान्की अनन्य भक्तिकी बड़ी सराहना की।
जब हनुमान्जी संकटमें थे, तभी सर्वप्रथम यह मन्त्र नारदजीने हनुमान्को दिया था। अतः हे प्रिय साधकगण ! जो भवाग्निसे दग्ध हैं, उन्हें अपनी विमुक्ति के लिये इस मन्त्रका जप करना चाहिये।
‘श्रीराम’ – यह सम्बोधन, भगवान् रामके प्रति पुकार है। ‘जय राम’ – यह उनकी स्तुति है। ‘जय जय राम’ – यह उनके प्रति पूर्ण समर्पण है। मन्त्रका जप करते समय मनमें यही भाव होना चाहिये कि ‘हे राम ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ। मैं आपकी शरण हूँ।’ तुरंत ही भगवान् रामके दर्शन मिलेंगे।
आपको समर्थ स्वामी रामदासजीने इस मन्त्रका तेरह करोड़ जप किया और भगवान् श्रीरामके प्रत्यक्ष दर्शनका लाभ उठाया। राम-नामकी अचिन्त्य शक्ति का प्रभाव अमित है। आप राम-नामका गुणगान करें। आप मन्त्रका जप कर सकते हैं और सुस्वरमें उसको गा भी सकते हैं। इस मन्त्रमें तेरह अक्षर हैं और तेरह लाख जपका पुरश्चरण माना गया है।
उपर्युक्त १३ अक्षरके सिद्ध मन्त्रका तुम जप क्यों नहीं करते ? और इससे जिस प्रकार अनेकानेक भक्तोंको भगवान्की प्राप्ति हुई है, उसी प्रकार भगवान्की प्राप्ति क्यों नहीं कर लेते ?
यह नाम तुम्हारे जीवनका सहारा बने, यह नाम तुम्हारी रक्षा करे, तुम्हारा पथ-प्रदर्शन करे और लक्ष्यकी प्राप्ति करा दे। पूर्ण श्रद्धा-भक्ति के सहित भगवान्के नामका अखण्ड जप करनेसे तुम्हें इसी जन्ममें प्रभुका साक्षात्कार हो जाय, यही मेरा आशीर्वाद है।
श्रीराम जय राम जय जय राम…