फ़िल्म एक ऐसा प्लेटफॉर्म है, जिस पर एक ट्रेंड अधिक समय नहीं चलता। राष्ट्रवादी फिल्मों का ट्रेंड अब जाता दिख रहा है। इस ट्रेंड का सबसे अधिक लाभ ‘उरी’ को हुआ था। उस वक्त राष्ट्रवाद का ट्रेंड चरम पर था। उरी, राज़ी, परमाणु अच्छी फिल्में थी और इनको माहौल का भरपूर फायदा मिला।
बॉलीवुड में चलन है कि एक फ़िल्म बड़ी हिट हो जाए तो सभी भेड़चाल में लग जाते हैं। इस भेड़चाल का परिणाम ये हुआ कि ‘गोल्ड’, पैडमैन, रॉ, पलटन जैसी फिल्में बुरी तरह पिट गई। क्या आगामी राष्ट्रवादी फिल्मों को इस मरते ट्रेंड का लाभ मिल सकेगा। मुझे इसमें संदेह है। राष्ट्रवाद की फिल्में तब चलती है, जब देश मे वैसा माहौल हो। सीमा पर तनाव हो या आतंकी हमला हो जाए तो ऐसी फिल्मों के लिए लाभदायक वातावरण बन जाता है।
अक्षय कुमार की मंगल मिशन को कितने दर्शक मिलेंगे। अक्षय की फॉलोइंग ही इस फ़िल्म को चला सकेगी क्योकि साइंस फिक्शन का मार्किट यहां नगण्य है। देश की आधे से अधिक आबादी को अंतरिक्ष अभियानों में कोई रुचि नहीं होती। ऐसे में मंगल मिशन को दर्शक मिलेंगे भी तो चुनिंदा। जॉन अब्राहम की ‘बटाला हाउस’ के साथ भी विचित्र समस्या है। इस घटना को कई साल बीत चुके हैं।
युवा दर्शक को रिकॉल करवाना बड़ी समस्या है। कुल मिलाकर ट्रेंड बदल चुका है। बधाई हो बधाई और अंधाधुन जैसी फिल्मों ने ट्रेंड बदल दिया है। अच्छा हो कि साल में एक या दो ही फिल्में ऐसी आनी चाहिए वरना दर्शक ऊब जाएगा और नुकसान राष्ट्रवाद की भावना को होगा। हालांकि दो वर्ष बाद प्रदर्शित हो रही एस एस राजामौली की ‘R R R’ बॉक्स आफिस पर राष्ट्रवाद को तूफानी ढंग से स्थापित कर देगी। तब तक तो माहौल ठंडा ही रहेगा।